मायावती ने ट्विटर पर आकर लोगों के मन का कचरा उघाड़ दिया है
स्वच्छ भारत अभियान शर्मा जाए इतनी गंद देख के.
डॉक्टर स्ट्रेंज (Doctor Strange) हॉलीवुड की एक फिल्म है. मार्वल स्टूडियोज की. बेनेडिक्ट कंबरबैच ब्रिटिश एक्टर हैं. उन्होंने डॉक्टर स्टीवेन स्ट्रेंज का किरदार निभाया है जो ध्यान की शक्ति से सुपर पॉवर वाला हीरो बन जाता है. इस फिल्म में एक सीन है जिसमें वो जाकर वॉन्ग से बात करता है. वॉन्ग कहता,
‘मिस्टर स्ट्रेंज.’
‘ओह सिर्फ स्टीवेन कहिए प्लीज. आपका नाम ?’
‘वॉन्ग’
‘वॉन्ग. सिर्फ वॉन्ग? जैसे एडेल? या एरिस्टोटल. ड्रेक. बोनो... एमिनेम’.
डॉक्टर स्ट्रेंज को लगता है वॉन्ग को हंसी आएगी. पर नहीं आती.
यहां पर सीन कॉमिक है. लेकिन जरा इधर अपने देश आ जाएं. तो एक भयानक सच्चाई.
आप कहीं जाएं. किसी से मिलने. वो आपका नाम पूछे. उसे सिर्फ अपना पहला नाम बता कर चुप हो जाइए. वो इंसान अनकम्फर्टेबल हो जाएगा. आपसे ‘पूरा नाम’ पूछेगा. इस पूरे नाम को पूछने के पीछे कारण ये नहीं है कि आपका नाम उसे पसंद आ गया है और वो जानना चाहता है कि इस नाम का दूसरा हिस्सा आपके मम्मी पापा ने क्या रखा. बल्कि इसलिए, कि आपकी कास्ट आइडेन्टिटी इसी दूसरे शब्द से पता चलती है. काफी हद तक आपका सोशल स्टेटस भी.
घर किराए पर लेने जाइए. कहीं किसी फंक्शन में जाइए. कहीं नौकरी के लिए जाइए. आपका ‘पूरा नाम’ हर जगह आपका पीछा करेगा.
इसी वजह से शायद मायावती का एक अपने नाम के सहारे खड़े रहना किसी किसी को पच नहीं रहा है.
तस्वीर: ट्विटर
मायावती की बात क्यों? क्योंकि हाल में ही ट्विटर पर एक्टिव हुई हैं. उसमें उनका नाम सुश्री मायावती है. ट्विटर हैंडल पर. इसको लेकर सबसे बड़ी बहस तो ये छिड़ी हुई है कि मायावती अपने नाम के आगे जो सुश्री लगा रही हैं, इसका मतलब क्या है. क्यों लगा रही हैं. पहले तो ये जान लीजिए:
कवि त्रिभुवन ने इस बारे में बताया अपनी फेसबुक वॉल पे. त्रिभुवन के मुताबिक-
'हिंदी के प्रसिद्ध लेखक हरिवंश राय बच्चन ने मुझे एक पत्र लिखा था. उस पत्र में उन्होंने लिखा था कि हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका पल्लव का संपादन कवि सुमित्रा नंदन पंत के जिम्मे था. उस दौर में कई युवतियों की कविताएं छपने के लिए आती थीं. उनके नाम के आगे न तो कुमारी लगा होता था और न ही श्रीमति. ऐसे में सुमित्रा नंदन पंत उलझन में पड़ जाते थे कि कवयित्री के नाम के आगे क्या लिखा जाए. उस जमाने में फोन बहुत कम थे और मोबाइल तो बिल्कुल भी नहीं था. ऐसे में लेखिका से पूछना संभव नहीं था कि उनके नाम के आगे क्या लिखा जाए. ऐसे में सुमित्रा नंदन पंत ने बीच का एक रास्ता निकाला. जिन कवयित्रियों की वैवाहिक स्थिति के बारे में सुमित्रा नंदन पंत को पता नहीं होता था, उन्होंने उनके नाम के आगे सुश्री लगाना शुरू कर दिया. अब ये शब्द विवाहित स्त्री के साथ भी लग सकता था और अविवाहित के साथ भी. हालांकि बाद में चीजें बदल गईं. अविवाहित के लिए कुमारी शब्द का इस्तेमाल होने लगा और विवाहित महिलाओं के लिए श्रीमती शब्द इस्तेमाल होने लगा.'
तस्वीर: ट्विटर
जानने वाली बात ये है कि शादी-शुदा/गैर शादी-शुदा/डाइवोर्सी औरतें/लड़कियां अपने नाम के साथ इसका इस्तेमाल कर सकती हैं. इसमें उम्र का कोई बंधन नहीं होता. एक 12 साल की लड़की के नाम के आगे भी सुश्री लिखा जा सकता है, और एक 52 साल की महिला के नाम के साथ भी. इसलिए मायावती का अपने नाम के आगे सुश्री लगाना कोई बड़ी बात नहीं है. उनको ये पूरा अधिकार है कि अपने नाम के साथ जो भी लिखना चाहें लिखें.
अब बात इस पर हो रहे बवाल, और सोशल मीडिया रिएक्शन की.
कुछ लोग हैं, वेलकम कर रहे हैं. कुछ लोगों का मानना है कि मायावती को सुश्री हटा लेना चाहिए. क्योंकि लोग ‘सुसरी’ (एक तरह की गाली) बोलने लग जाएंगे. कुछ तो बोल भी रहे हैं.
तस्वीर: ट्विटर
इन सभी ट्वीट्स में कुछ बातें कॉमन हैं. मायावती को अनपढ़ बताने जैसी. उनकी जाति पर कमेन्ट करने की. उनकी शक्ल पर कमेन्ट करने की.
तस्वीर: ट्विटर
इन ट्वीट्स के पीछे, एक दुनिया है. वो दुनिया जहां दो नाम वाले राज करते हैं. जहां इंसान का रसूख उसके सरनेम की वजह से पहले पहुंच जाता है. वो दुनिया जहां अपनी जाति बताने वाला नाम ना लगाने वाले अधूरे माने जाते हैं. वहां जहां एलीटिज्म है. ऊंची जाति का होने का. पॉवर को उंगलियों पर सदियों से नचाते रहने की आदत है. उस दुनिया में मायावती अपने इकलौते नाम के साथ सीना ठोक कर खड़ी हैं.
तस्वीर: ट्विटर
70 के दशक में जब मायावती स्कूल में पढ़ा रही थीं, और IAS बनने की तैयारी कर रही थीं. तब कांशीराम उनके घर पहुंचे थे. बात है 1977 की. उसके बाद से वो कांशीराम की पॉलिटिकल दुनिया का हिस्सा बनीं, फिर अपना नाम कमाया. 1995 में आकर मुख्यमंत्री बनीं. इसी साल कुख्यात गेस्ट हाउस कांड हुआ था. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मायावती के ऊपर हमला बोल दिया था. उसकी चर्चा अपने-आप में एक अलग डिस्कशन की हकदार है. लेकिन उसके परे भी बहुत कुछ ऐसा चल रहा था, जिसने मायावती को पीछे धकेलने की पूरी कोशिश की.
मायावती को लेकर इस तरह की टिप्पणियां कोई नई नहीं हैं. ब्लर किया गया शब्द एक अपमानजनक तरीके से इस्तेमाल होने वाला शब्द है इसलिए इसे ब्लर किया गया है. तस्वीर: ट्विटर
जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं, उस वक़्त भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने इसे ‘Miracle of Democracy’ यानी लोकतंत्र का चमत्कार बताया था. ये वही साल था जब मीडिया ने भी खुल कर मायावती के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. अगड़ी जाति के लोग अंदर ही अंदर कसमसा रहे थे. जिस जाति को ‘सेवा’ करने के लिए बनाया गया था, उसका एक सदस्य, तिस पर औरत सत्ता में आकर वहां बैठे हुक्मरानों को चुनौती दे रही थी. उसे ‘पीछे खींचना’ जरूरी था. उसे ‘सबक सिखाना’ ज़रूरी था.
मायावती की जाति से लेकर उनके चेहरे तक, इस तरह के कमेंट सोशल मीडिया पर काफी देखने को मिलते हैं. तस्वीर: ट्विटर
अजय बोस. मायावती की बायोग्रफी लिखी है. नाम है 'बहनजी'. उसमें बताते हैं एक घटना. साल 1995 ही था. उस समय दैनिक जागरण का बड़ा नाम था. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार. उसके चीफ थे नरेंद्र मोहन. मायावती सीएम बनकर पद खो भी चुकी थीं. दिसंबर में दैनिक जागरण में खबर छपी कि मायावती की एक 12 साल की बेटी है जिसको वो छुपा कर रखती हैं. इसका सोर्स दिया गया BSP के एक नेता के नाम पर जो पार्टी से निकाले जा चुके थे. इस खबर का लांछन ये था कि मायावती का कैरेक्टर ठीक नहीं है. इस बात को मायावती ने खुल कर चैलेंज किया. लखनऊ में हुई रैली में कहा, जागरण वाले या तो उस बेटी को पेश करें, या नतीजा भुगतने को तैयार रहें. पार्टी के कार्यकर्ताओं ने फिर लखनऊ में जागरण के दफ्तर पर हमला भी किया.
इसके लगभग दस साल बाद 2005 में दैनिक जागरण ने ही मायावती के लिए चमारिन शब्द का प्रयोग किया. ये शब्द जाति सूचक अपमान के तौर पर देखा जाता है. मायावती ने अखबार को कानून के लपेटे में ले लिया. अखबार ने कहा ‘टाइपो’ हो गया था.
मायावती का अपमान: पॉलिटिक्स से दिक्कत है या मायावती से?
करप्शन के चार्जेज लगे मायावती पर. कहा गया खुलकर पैसे खाए और टिकट दिया. आरोप लगे कि दलितों के नाम पर पॉलिटिक्स में आईं, लेकिन कुछ किया नहीं.
सारे आरोप सही हो सकते हैं. सभी आरोपों पर बात हो सकती है. सभी आरोपों को लेकर मायावती का क्रिटिसिज्म होना जरूरी है.
लेकिन ये आरोप किसी को ये हक़ नहीं देते कि उनका कैरेक्टर ऐसैसिनेशन किया जाए. उनपर जातिवादी टिप्पणियां की जाएं.
तस्वीर: ट्विटर
मायावती ने मूर्तियां बनवाईं. इसको लेकर कहा गया कि मूर्ति बनवाने से बेहतर वो पैसा दूसरी जगहों पर खर्च किया जाता. मायावती ने करोड़ों खर्च करके नॉएडा में दलित प्रेरणा स्थल बनवाया. भीमराव अंबेडकर की मूर्ति लगवाई. कहा गया पैसे की बर्बादी है. पैसे की बर्बादी तो कई मूर्तियां हैं. लेकिन बनवाई जाती हैं. लोगों को दिक्कत इस बात से है कि दलित होकर ऐसा दुस्साहस कैसे कर रही हैं मायावती.
तस्वीर: ट्विटर
बहुत कुछ है जिसपर पॉलिटिक्स की जा सकती है. बहुत कुछ है जिसपर बहस हो सकती है. बहुत कुछ है जो मायावती ने गलत किया है. बहुत कुछ है जो साबित भी हो जाएगा अगर उस पर कायदे की इन्क्वायरी बिठाई जाए तो. करप्शन करने की सजा होनी ही चाहिए. लेकिन फिर वो हर किसी के लिए एक कॉमन ग्राउंड है. कहने के लिए तो अरविंद केजरीवाल ने भी कहा था कि शीला दीक्षित के खिलाफ उनके पास पोथा पड़ा हुआ है. भाजपा ने कहा वाड्रा के खिलाफ गाथा लिखी हुई है.
कहा सबने, पर हुआ क्या?
किसी के ऊपर जातिसूचक टिप्पणियां नहीं की गईं. उनकी शक्ल का मज़ाक नहीं बनाया गया. उनके कैरेक्टर पर सवाल नहीं उठाए गए. मायावती के मामले में ये बातें एक अलग रूप इसलिए ले लेती हैं, क्योंकि वो ना सिर्फ एक दलित हैं, बल्कि एक महिला भी हैं. इन दोनों फैक्टर्स को निकालकर क्रिटिसिज्म को छान कर देखिए, कहीं पूरी चाय इन्हीं दोनों पत्तियों से तो नहीं बन रही है आपकी?
बाकी चलते-चलते ये बता दें, कि मायावती के पास दिल्ली यूनिवर्सिटी से लॉ माने कानून की डिग्री है.
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