शहादत के नाम पर घड़ी-घड़ी भावुक होने वाले इस देश में शहीदों के परिवार किस हाल में हैं
सब 10-15 दिन का खेल है. इसके बाद कोई शहीद के परिवार, पत्नी और बच्चों को नहीं पूछेगा. मैं कह रही हूं, आप देख लीजिएगा.'
‘कहने के लिए तो लोग बहुत कुछ कह देते हैं लेकिन करते कुछ नहीं हैं. हमारे समय ही कहा गया था कि बच्चे जब पहली क्लास में जाएंगे तबसे उनके पढ़ाई का ख़र्चा सरकार उठाएगी लेकिन कहां कोई उठा रहा है. मैं ही पढ़ा रही हूं. मेरे भाई लोग बहुत दौड़े, जब कुछ नहीं हुआ तो छोड़ दिए. जिसे जाना था वो तो चला गया अब क्या भागना-दौड़ना!’
देश के जवान शहीद होते हैं. सरहद पर होते हैं. सरहद के भीतर होते हैं. हर तीसरे-चौथे दिन एक शहीद की लाश चुपचाप ताबूत में उसके घर भेज दिया जाता है. कोई बवाल नहीं मचता. एक दिन बड़ा हमला होता है. लोग नींद से चौंकते हैं. जंग की मांग करते हैं. बदला मांगते हैं. एक के बदले दस सिर लाने की कहते हैं. सरकारें वादे करती हैं. उन वादों की जोर-शोर से पब्लिसिटी होती है. न्यूज चैनलों पर एंकर बहसें कराते हैं.
उड़ी हमले के बाद शहीदों को श्रध्दांजलि देती हुई कश्मीर की पूर्व सीएम महबूबा मुफ़्ती. तस्वीर: इंडियन आर्मी
फिर मामला ठंडा पड़ जाता है. कोई ये नहीं पूछता, वादों का क्या हुआ. कोई सुध नहीं लेता कि शहीद का परिवार किस हालत में है. एशियाविल न्यूज ने उड़ी हमले में शहीद हुए जवानों के परिवार वालों से बात की. उन्हीं में से एक थे शहीद सिपाही हरिहर यादव. उनकी पत्नी निर्मला यादव से बातचीत हुई उनकी. उस बातचीत के अंश हम एशियाविल यूज से साभार यहां आपको पढ़वा रहे हैं.
‘हमारे भाइयों के साथ अभी एक बड़ी घटना (पुलवामा में सीआरपीएफ के जवान पर हुआ हमला) हो गई. इतने वीर भाई शहीद हो गए. जब टीवी पर ख़बर देखती हूं तो अपना वक़्त याद आ जाता है. उसी तरह से फिर कहा जा रहा है- हम ये करेंगे. हम ऐसे आपके परिवार के साथ खड़े रहेंगे. हम आख़िर तक आपका साथ देंगे. शहीद के परिवार की देख-रेख देश करेगा. ये सारी बातें हमसे भी बोले थे. आज कोई खड़ा नहीं है. इनके साथ भी कोई खड़ा नहीं रहेगा. सब 10-15 दिन का खेल है. इसके बाद कोई शहीद के परिवार, पत्नी और बच्चों को पूछने नहीं आ रहा. मैं कह रही हूं, आप देख लीजिएगा.’
तस्वीर: निर्मला यादव (साभार एशियाविल न्यूज )
उड़ी में 18 सितम्बर 2016 को इंडियन आर्मी के ब्रिगेड हेडक्वार्टर्स पर हमला हुआ था. तीन मिनट के भीतर 17 ग्रेनेड फेंके गए थे. पूरी घटना सुबह 5.30 बजे घटी. कश्मीर घाटी में सिक्योरिटी फोर्सेज पर ये पिछले 20 सालों में ये सबसे बड़ा हमला था. इसके बाद इसका बदला लेने के लिए इंडियन आर्मी ने सर्जिकल स्ट्राइक की. इस पर अब फिल्म भी आ गई है.
उड़ी: द सर्जिकल स्ट्राइक ने तारीफ बहुत कमाई, कइयों ने इसकी तुलना हॉलीवुड की फिल्म जीरो डार्क थर्टी फिल्म से भी की.
लेकिन उसके शहीदों को लेकर जो हो हल्ला मचा, उसका क्या? क्या अभी जो गुस्सा है लोगों में वो भी उसी तरह ठंडा हो जाएगा? निर्मला यादव शहीद हो रहे जवानों के बारे में कहती हैं,
‘मैं चाहती हूं ये सिलसिला थमना चाहिए. अगर ऐसा ही होता रहा तो मैं तो अपने बच्चों को फ़ौज में नहीं भेजूंगी. मुझे डर लगता है. कैसे भेज दूंगी सर? जो दुःख मैं काट रही हूं वो मेरी बहू को तो नहीं ही ना काटने दूंगी. बड़े वाला बेटा समझता है कि पापा भगवान के पास चले गए हैं लेकिन छोटा वाला पूछता है कि पापा कब आएंगे? क्या बताएं उसको? एक उनके जाने से मेरा पूरा परिवार डिस्टर्ब हो गया. रोज़-रोज़ जवान शहीद हो रहे हैं. उन सब के बारे में सोच-सोच के परेशान हो जाती हूं. मैं चाहती हूं कि शांति रहे.’
अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘Peace is bad for business’. यानी शांति का समय बिजनेस के लिए खराब होता है. युद्ध होते हैं, तो हथियार बिकते हैं, शांति लाने के प्रयास किये जाते हैं जिनमें पैसा लगता है, लोगों के भीतर डर भरकर उनसे वो सब कुछ कराया जाता है जो वो आम तौर पर नहीं करते. हाल में ही बीजेपी के एक नेता भरत पंड्या ने वडोदरा में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि राष्ट्रवाद की इस भावना को वोट में तब्दील करना चाहिए. कई लोगों के लिए तो युद्ध या युद्ध जैसे हालात या हमले सिर्फ एक बहाना है, अपना उल्लू सीधा करने का. हमारी मत मानिए. शहीद की विधवा की तो मानेंगे? निर्मला कहती हैं,
उड़ी हमले ने भी देश को झकझोरा था. लेकिन उसके शहीदों की बात आज कौन कर रहा है?
‘पुलवामा के बाद सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा उड़ी के बाद हुआ था. लोग इधर से उधर भाग रहे हैं. हल्ला कर रहे हैं. नारेबाज़ी कर रहे हैं लेकिन मैं आपसे कह देती हूं पंद्रह दिन बाद कोई भी शहीद की पत्नी का हाल-चाल नहीं लेगा. उलटे जब शहीद की पत्नी राह चलती है तो लोग बोल-बोल के उसका रास्ता चलना मुश्किल कर देते हैं. अगर सही कपड़ा पहन लिए तो ताना, नहीं पहने तो ताना.’
कितना दर्द है इन बातों में. किसी अपने का इस दुनिया से यूं चले जाना मानो कम दुख न था. कि ऊपर से लोगों के ताने भी झेलो. एक औरत जिसने अपना पति खो दिया हो, जिससे झूठे वादे किए गए हों. जिसे अपने हक़ के लिए भी तरसाया जा रहा हो. उसे इस तरह का व्यवहार झेलने के लिए छोड़ देना नज़रंदाज़ी नहीं, क्रूरता है.
और इससे भी ज्यादा दुख की बात ये है कि ये कहानी इकलौती निर्मला यादव की नहीं. कमोबेश हर उस औरत की है, परिवार की है, जिनके घर के जवान इन युद्धों और हमलों ने छीन लिए. जो लोग जोर जोर से चीख कर युद्ध की मांग करते हैं, उनको एक बार इनकी बातें सुन लेनी चाहिए. पढ़ लेनी चाहिए.
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