शहरयार: कामुकता का शायर, वेश्या का शायर, दबी ज़बान में कही जाने वाली बातों का शायर
उमराव की आंखें अमर करने वाले शायर की बरसी है.

नुसरत फ़तेह अली खान साहब का एक गाना है. आफरीन आफरीन. वही गाना जिसमें लाइन है "हुस्न-ए-जाना की तारीफ़ मुमकिन नहीं". इसे कई लोग ‘उसने जाना की तारीफ़ मुमकिन नहीं’ भी गाते आए काफी समय तक. जावेद अख्तर की कलम का कमाल था ये. इधर हाल में राहत फ़तेह अली खान ने कोक स्टूडियो पाकिस्तान में मोमिना मुस्तेहसान के साथ इसे दुबारा गाया था. लेकिन ओरिजिनल की बात सिर्फ ओरिजिनल में होती है. तो बात गाने की. इस गाने में नुसरत साहब ने गाया था,
आंखें नीची हुईं तो हया बन गईं
आंखे ऊंची हुईं तो दुआ बन गईं
आंखें उठ कर झुकीं तो अदा बन गईं
आंखें झुक कर उठीं तो कदा बन गईं
आंखें जिनमें हैं कैद आसमान और ज़मीन.
आंखों को लेकर इतना कुछ कहा गया है कि उसमें कुछ भी और जोड़ना लकीर पीटने जैसा लगता है. लेकिन लिखने का सबसे खूबसूरत पहलू यही है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उसे फिर से लिखा जा सकता है. उस पर बार-बार लिखा जा सकता है. हजार तरीकों से लिखा जा सकता है. इसीलिए तो जब सैकड़ों सालों से मृगनयनी कही जाने वाली नारी के मुंह से जब बोल फूटे कि
‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आंखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं’
तो दुनिया थम कर रह गई. पलटी, और देखती रह गई.
देखती रह गई क्योंकि अच्छे घर की लड़कियां कहां इस तरह की बातें करतीं थीं. पत्नियां कभी कामुकता ज़ाहिर करती थीं क्या भला? पत्नियां तो पुरुषों की जागीर थीं. उनके लिए भला कैसा कौतूहल होता. उनको कोई क्यों पाना चाहता. पाना तो लोग उमराव को को चाहते थे. वो आसानी से कहां मिलती.
उमराव को आवाज़ दी थी आशा भोसले ने. शब्द थे शहरयार साहब के. चेहरा था, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे ज्यादा रहस्यमय और जादुई मानी जाने वाली शख्सियत, रेखा का.
इस गाने में न जाने क्या था कि फिल्म के रिलीज के साथ इसका नशा परवान चढ़ता गया. गोया कि सुनने वाला समय में पीछे चला गया हो. उस कवि की खोज में, जिसने पहली बार अपनी नायिका को मृगनयनी कहा होगा. उन आंखों में न जाने क्या भोलापन, क्या गहराई रही होगी. लेकिन इस गाने की सबसे ख़ास बात ये है कि नायिका जानती है कि उसकी जगह इन सबसे कहीं ऊपर है . उसे मालूम है उसके एक इशारे पर लाखों जान दे सकते हैं.
इक तुम ही नहीं तन्हा, उल्फत में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं
उसे मालूम है कि उसकी चाह कईयों को है. वो ओथेलो की डेसडेमोना नहीं है, लेकिन लेडी मैकबेथ भी नहीं है. अपनी अहमियत को कम करके आंकने की गलती जिसे साहित्य ‘स्त्री का सहज भूषण’ कहता है, वो करने का इरादा नहीं है. इसे और भी ज्यादा साफगोई से अगली पंक्तियों में अमीरन उर्फ़ उमराव जान कह जाती हैं,
इस शम्मे फरोज़ा को आंधी से डराते हो
इस शम्मे फरोज़ा के परवाने हज़ारों हैं
रेखा की आंखें जब आरोह और अवरोह के साथ उठती और गिरती हैं, उस वक़्त साथ-साथ नुसरत फ़तेह अली खान की आवाज़ बैकड्राप में गूंजती सी लगती है. कहा जाता है कि आंखें किसी भी व्यक्ति की आत्मा की खिड़की होती हैं. इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी इमेजिनेशन, हम नहीं जानते. आत्मा 21 ग्राम की होती है या 56 ग्राम की, हम नहीं जानते. लेकिन जानते हैं तो ये कि अगर कैमरे में देखकर कोई माहिर कलाकार अपनी पलक के कोने पर आंसू रोक ले, तो उसके बाहर निकल कर देखने वालों की आंखों में समा जाने में समय नहीं लगता. उसके भीतर टाइम एंड स्पेस कंटीन्यूअम को पार कर जाने की कूवत होती है. रेखा इस गाने में यही करती हैं. उनकी कमर की लोच से ज्यादा उनकी आंखों का एक तरफ हटके झुक जाना दिल में गहरे उतर जाता है.
गाने लिखना मेहनत का काम है. शायद इसी वजह से आजकल गाने लिखे नहीं जा रहे. रीमिक्स हो रहे हैं. गाने के शब्दों के पीछे छुपा एक पूरा संसार होता है जिसके बारे में बाद में बैठकर सोचा जा सकता है. जब गुलज़ार लिखते हैं, "तेरी बातों में किमाम की खुशबू है, तेरा आना भी गर्मियों की लू है". उस पर आप घंटों बहस कर लें. किमाम की खुशबू ही क्यों. गर्मियों की लू कैसे आती है. लहर में. वैसे ही प्रेमिका भी आती है. झट से आई और झटके से निकल गई. और कैसे चली जाती, यही क्यों लिखा? अपनी अपनी एक्सप्लेनेशन है.
शहरयार साहब का असली नाम अख़लाक़ मुहम्मद खान था. बरेली से थे. साहित्य में पहले से बड़ा नाम थे. फिल्मों में पहचान मिली तो ताबड़तोड़, इसी फिल्म के गानों से. वो कहते हैं न, पॉपुलर कल्चर में रिकग्निशन वाली बात. 'दिल चीज़ क्या है, आप मेरी जान लीजिए' भी इन्हीं का लिखा हुआ है. ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला. 2012 में निधन हुआ.
लेकिन कई पढ़ने, गुनने, और सुनने वालों के लिए वो वही शहरयार रहेंगे जिसने रेखा उर्फ़ उमराव जान की आंखों से वो सब कहलवा दिया जो स्क्रीन पर उतरने से पहले सौ पर्दों में खुद को लपेट लेता है. वो आंखें जिनके भीतर मय पिलाने की कूवत है, वरना मयखाने तो शहर में हज़ारों हैं. नहीं?
मजे की बात तो ये कि जब फिल्म आई थी तो चली न थी. शहरयार का लिखा हुआ टाल दिया गया था. ये कहकर कि फिल्मों के मुताबिक़ नहीं था उनका लिखा हुआ. मुशायरों में भले पढ़ लें लोग. आशा भोसले का ग़ज़ल एक्सपेरिमेंट लगा कि फेल हो गया. ख़ास तौर पर ग़ज़ल गाने के लिए उन्होंने अपनी आवाज़ के नोट्स नीचे किए थे. लगा उसका क्या ही फायदा हुआ. फिर केबल टीवी आया. और उमराव जान इतिहास बनने की जगह बना गई.
औरत अगर अपनी कामुकता ज़ाहिर करे तो समाज के पसीने छूट जाते हैं. इसलिए समाज डरता है वेश्याओं से. अपने डर को हिकारत में लपेटकर पेश करता है. उमराव की भेदी निगाहें लजाती नहीं, भेदती हैं. जकड़ लेती हैं, गुलाम बना लेती हैं. शहरयार ये आंखें गढ़ते हैं.
शहरयार कामुकता गढ़ते हैं.
अब तो ले दे के यही काम है इन आंखों का
जिन को देखा नहीं उन ख़्वाबों की ताबीर करें
कहां तक वक्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
ये हसरत है कि इन आंखों से कुछ होता हुआ देखें.
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