आपके घर के पास 'सेल सेल सेल!' या 'भारी छूट' के बोर्ड लगे हों तो ये डरने की बात है
कंपनियां सेल क्यों लगाती हैं, सच्चाई जान लीजिए.

सेल सेल सेल !
बाई 2 गेट 5 फ्री !
महाधमाका ! महाधमाका !! महाधमाका !!!
इस तरह के एडवर्टिज़मेंट अक्सर लोकल अखबार, केबल टीवी चैनल, फ्लायर वगैरह पर देखने को मिल जाते हैं. आम तौर पर क्लियरेंस सेल या सीजन के ख़त्म होने पर ऐसे ऑफर आते हैं. कई लोग तो इसी के इंतज़ार में बैठे रहते हैं कि कब सेल शुरू हो और कब वो खरीददारी करें.
ऐसा ही कुछ हुआ हैदराबाद में.
वहां साड़ियों की सेल लगी. सिद्दीपेट में एक मॉल है. वहीं पर. सेल में साड़ियां दस रुपए में मिलेंगी. ये कहा गया. जैसे लोगों को पता चला, लोग वहां उमड़-उमड़ कर पहुंचने लगे. इतनी भीड़ बढ़ गई कि वहां लोगों को कंट्रोल करना मुश्किल हो गया. भगदड़ वाली हालत हो गई. इस हल्ले-गुल्ले में कई लोग तो घायल हुए ही, कईयों का काफी नुकसान भी हो गया.
तस्वीर: ट्विटर
सेल के दौरान लोगों का पगला जाना कोई नई बात नहीं है. अमेरिका में भी ब्लैक फ्राइडे की सेल या बॉक्सिंग डे सेल काफी पॉपुलर है. इस दिन लोग लाइनें लगाकर रात से ही दुकानों के बाहर खड़े रहते हैं. जैसे ही दुकानें खुलती हैं, भसड़ मच जाती है.
आखिर सेल में होता क्या है?
सेल में आम तौर पर जो कीमत होती है चीजों की, उससे काफी कम दाम पर बिकती हैं. ऐसा आपको लगता है. हमने बात की युवरानी सहाय से. सीनियर मैनेजर हैं एक बड़ी इंडियन कम्पनी में जो फाइनेंशियल सर्विसेज देती है. उन्होंने बताया,
‘Daniel Kahneman की एक किताब है, Thinking Fast and Slow. उसमें बताया गया है कि किस तरह दिमाग के सोचने के दो तरीके होते हैं. एक होता है सिस्टम 1, और सिस्टम 2. सिस्टम 1 जो होता है, उसमें लोग इमोशनल होकर, इम्पल्स पर सोचते हैं. दूसरा यानी सिस्टम 2 जो होता है, उसमें लॉजिक लगता है. समय लेकर डिसीजन लिए जाते हैं. मेरा ओपिनियन ये है भारत के जो कस्टमर्स हैं वो फिर भी समझदार हैं. मिलेनियल जेनेरेशन में भले ही उतना ना हो, पर इस जेनेरेशन के पहले की जेनेरेशन के अन्दर पेशेंस रहा है. वो तुरंत किसी इनपुट पर रियेक्ट नहीं करते. वो डिस्काउंट भी चल रहा हो तो पांच जगह जाकर पता करते हैं कि कहां सस्ता मिल रहा है. लेकिन अब जो मिलेनियल जेनेरेशन है, वो मटीरियलिज्म में पैदा हुए हैं, तो उनके ऊपर इन सब चीज़ों का काफी फर्क पड़ रहा है. सेल जो है, वो एक अर्जेंसी क्रियेट करती है. कि सब लोग खरीद रहे हैं. ये तुम्हारा टाइम है. तुम भी खरीद लो. वरना ये ख़त्म हो जाएगा. खरीद तो लोगे, लेकिन क्रेडिट कार्ड से भी पेमेंट किया तो पैसे तो आपकी ही जेब से गए न. उसे ज़रूरत समझ कर खरीद लिया, जबकि वो इच्छा थी. ज़रूरत नहीं. इट वॉज अ वॉन्ट, नॉट अ नीड. एक और ट्रिक इस्तेमाल करते हैं. 3999 लिख कर बेच दिया किसी चीज़ को. अब लोग खरीदते हैं, तो उनके दिमाग में चलता है कि उन्होंने तीन हजार के आस-पास पे किया है. जबकि होता वो चार हज़ार है.’
सांकेतिक तस्वीर: ट्विटर
सेल को लेकर देश का मार्केट किस तरह काम करता है. क्या इसमें नुकसान है, या इकॉनमी का फायदा है. इन सब पर हमने बात की आशीष मामगईं से. पेरिस के एक इंटरनेशनल बिजनेस स्कूल में मास्टर्स ऑफ़ मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे हैं. सेल को लेकर उनके अपने व्यूज हैं. कस्टमर की साइड हम समझ जाते हैं, मार्केट के दूसरे छोर की क्या सोच है, इस पर भी डिस्कशन हुआ उनसे. उनका कहना है,
‘कुछ कारणों की वजह से सेल अच्छी होती है. बेचने वालों के पास जो भी एक्स्ट्रा इन्वेंटरी (सामान जो बेचा जाता है) होती है, वो इस पीरियड में निकल जाती है. साल के कुछ समय ऐसे होते हैं जिनमें लोग ज्यादा सामान खरीदते हैं. उसका भी एडवांटेज मिल जाता है सेल करने वालों को. कस्टमर्स के लिए फायदा ये होता है कि रेगुलर से कम दाम पर चीज़ें मिल जाती हैं उनको. हालांकि इससे सरकारें उतनी खुश नहीं होतीं. क्योंकि सेल होती है तो टैक्स के रुपयों में कमी हो जाती है. क्योंकि कम्पनी ने डिस्काउंट दे दिए थे. सप्लाई चेन में लगे हुए लोगों की कमाई कम हो जाती है. ख़ास तौर पर विकसित देशों में इस चीज़ को लेकर थोड़ी ज्यादा दिक्कत है. फ्रांस को ही ले लें. सामान बेचने वाले रीटेलर्स कितना डिस्काउंट दे सकते हैं, उसकी एक लिमिट सरकार ने तय कर रखी है. साल में भी बस दो ही टाइम पीरियड नियत कर दिए हैं जिनमें डिस्काउंट दिया जा सकता है. वहीं जब सब्सिडी मॉडल के तहत ये डिस्काउंट दिए जाते हैं, तो सरकारें खुश होती हैं. क्योंकि इसके जरिए वो लोग फायदा उठाते हैं जो आम तौर पर वो चीज़ें अफोर्ड नहीं कर सकते.’
सेल के दौरान भागदौड़ करके चीज़ें खरीदने का कोई फायदा नहीं है. सामान वही लीजिए जिसकी आपको ज़रुरत हो. वो भले सेल में खरीद कर पैसे बचा लें आप. लेकिन बाज़ार के प्रलोभन से संभल कर रहिए.
सांकेतिक तस्वीर: ट्विटर
जैनेन्द्र कुमार अपने निबंध बाज़ार दर्शन में लिखते हैं,
‘बाजार में एक जादू है। वह जादू आंख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है। पर जैसे चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुंच जाएगा. कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूं, वह भी लूं। सभी सामान जरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है. पर यह सब जादू का असर है. जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है. थोड़ी देर को स्वाभिमान को जरूर सेंक मिल जाता है. पर इससे अभिमान की गिल्टी की ओर खुराक ही मिलती है. जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी?
बाज़ार का जादू चढ़ता है तो उतारते नहीं बनता. सांकेतिक तस्वीर: ट्विटर
पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है. वह यह कि बाजार जाओ तो मन खाली न हो. मन खाली हो, तब बाजार न जाओ. कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए. पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है. मन लक्ष्य में भरा हो तो बाजार भी फैला-का-फैला ही रह जायगा. तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा. तब बाजार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे. बाजार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना’.
चलते चलते आपको ये बता दें कि जिस सेल की बात हमने आपको बताई, उसमें एक महिला ने पांच टोला सोना, छह हज़ार रुपए, और डेबिट कार्ड लुटने की रिपोर्ट लिखवाई है पुलिस में.
ये भी पढ़ें:
Gully Boy से तो मिल लिए, अब मिलिए अपने देश की 'गली गर्ल्स' से.
देखें विडियो:
लगातार ऑडनारी खबरों की सप्लाई के लिए फेसबुक पर लाइक करे