कंगना रनौत की फ़िल्म 'मेंटल है क्या' को लेकर डॉक्टर्स जो कह रहे हैं वो कितना सही है?

'मेंटल है क्या' के टाइटल और पोस्टर को लेकर बवाल मचा हुआ है.

सरवत फ़ातिमा सरवत फ़ातिमा
अप्रैल 22, 2019
(फोटो कर्टसी: ट्विटर)

उस वक़्त मैं कुछ 12 साल की रही होऊंगी, जब मैंने पहली बार ‘मेंटल’ शब्द सुना था. हमारे पड़ोस में एक आंटी रहती थी. आसपास के लोग उन्हें ‘मेंटल’ बुलाते थे. उनका मज़ाक उड़ाते थे. कुछ उनसे डरते भी थे. कोई कहता उनपे जिन्न का साया है. मैं भी सबकी तरह उनसे डरती थी. कई सालों बाद मुझे पता चला उन्हें स्किजोफ्रीनिया था. स्कूल में जब साइकोलॉजी पढ़ना शुरू किया तो इस दिमागी डिसऑर्डर के बारे में और पता चला. अब लगता है कि सोसाइटी के लोग उन आंटी के साथ कितने क्रूर थे. आंटी के साथ लोगों का बर्ताव भी बहुत बुरा था.

ये यादें तब ताज़ा हो गईं जब फिल्म ‘मेंटल है क्या’ के बवाल के बारे में न्यूज़ में सुना. वजह है फ़िल्म का टाइटल और पोस्टर. कुछ दिन पहले ‘इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी’ ने इनपर ऐतराज़ जताया था. अपनी शिकायत उन्होंने सेंसर बोर्ड के चेयरपर्सन प्रसून जोशी को एक ख़त में लिख भेजी थी.

टाइटल से उनकी शिकायत ये है कि ये मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों का अपमान है. उनका मज़ाक उड़ाता है. हमारी सोसाइटी पहले से ही मानसिक रूप से बीमार लोगों का मजाक उड़ाती आई है. ऐसे में इस फ़िल्म के टाइटल और पोस्टर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं. इसलिए मेकर्स टाइटल से लेकर हर वो हिस्सा फिल्म से हटाएं, जो किसी मानसिक रूप से बीमार इंसान के अधिकारों का हनन करती है. अगर ये सब नहीं किया गया, तो साइकिएट्रिक सोसाइटी ने इस फिल्म के मेकर्स के खिलाफ पीआईएल (PIL) डालने की भी धमकी दी है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि मानसिक रोगियों का अपमान या मजाक उड़ाने वाले किसी भी व्यक्ति को इंडियन हेल्थ एक्ट के तहत कम से कम छह महीने जेल की सजा का प्रावधान है. जो एक्चुअली इस फिल्म का टाइटल और पोस्टर कर रहा है.

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(फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर)

दरअसल इनमें कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो अपने-आप में काफ़ी ग़लत हैं. टैगलाइन है: ‘सैनिटी इज़ ओवररेटेड.’ इसका मतलब हुआ कि जो किसी भी तरह की मानसिक बीमारी से नहीं जूझ रहा है, वो कुछ खास नहीं है. ये सेंटेंस अपने आप में काफी दिकक्तभरा है. मानसिक बीमारियां किसी और बीमारी जितनी ही गंभीर होती हैं. चाहे आप इनको सीरियसली लें, या न लें. इनसे जूझ रहे लोगों का समाज मज़ाक उड़ाता है. उन्हें ‘मेंटल’ या पागल बोलकर उनकी खिल्ली उड़ाता है. बिना उस इंसान की तकलीफ को समझे. इसकी एक वजह ये भी है कि मानसिक रोगों को लेकर अभी हमारी सोच बहुत लिमिटेड है. इस तरह की बीमारियों की हमें कोई मालूमात ही नहीं है.

पोस्टर में जिन तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया गया है वो हैं- ‘मेंटल’ ‘साइको’ ‘वीयर्ड’ ‘क्रेज़ी’ ‘फ्रीकी’. ये सारे वो शब्द हैं जिन्हें आमतौर पर लोग किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहे इंसान के लिए इस्तेमाल करते हैं.

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(फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर)

इस मुद्दे पर हमने बात की डॉक्टर मोनिका कुमार से. ये पेशे से क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट हैं. और मानस फाउंडेशन की को-फाउंडर. वो कहती हैं:

“मैनें इस विवाद के बारे में सुना. ‘इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी’ की बात सही है. जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, उनमें दिक्कत है. क्योंकी ये सोसाइटी में मौजूद ग़लत धारणाओं को और बढ़ावा देते हैं. जैसे शब्द ‘मेंटल’. इसका मतलब हुआ कोई ऐसी चीज़ जिसका लेना-देना किसी दिमागी डिसऑर्डर से हो. हम अक्सर लोगों को आम बोलचाल की भाषा में ‘मेंटल’ या ‘साइको’ बोल देते हैं. और उनसे भी आम है ‘पागल’. ये शब्द किसी मानसिक बीमारी से ग्रसित इंसान के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. अगर हम अपनी बोलचाल में ही दिमागी बीमारियों को बाकी बीमारियों कि तरह ट्रीट नहीं करेंगे तो कुछ नहीं बदलेगा. ज़रुरत है हम दिमागी बीमारियों के बारे में बात करते समय नॉर्मल भाषा का इस्तेमाल करें. जैसे बाकी बीमारियों के लिए करते हैं. उनसे सफ़र कर रहे लोगों को हम अजीब नहीं समझते. तो दिमागी बीमारी से जूझ रहे इंसान के साथ ऐसा क्यों? पहले से ही मानसिक बीमारियों को लेकर बहुत ग़लत धारणाएं बनी हुई हैं. ज़रूरी है हम उन्हें दूर करें. ताकि लोग बिना किसी झिझक के डॉक्टर को दिखाने आ सकें. इनका टेस्ट करवा सकें. ये तभी मुमकिन है जब हम अपनी बोलचाल बदलेंगे. इतना हव्वा बनाना बंद करेंगे.”

बात तो सही है. फ़िल्म के पोस्टर में ‘मेंटल’ शब्द का इस्तेमाल बहुत हल्के में किया गया है. जैसे सालों पहले लोग स्किजोफ्रीनिया से जूझ रही आंटी के लिए करते थे.

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(फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर)

डॉक्टर पवन तोमर मुंबई में साइकोलोजिस्ट हैं. माइंडकेयर नाम का क्लिनिक चलाते हैं. वो कहते हैं:

“क्या आपको पता है, हिंदुस्तान दुनिया में सबसे ज़्यादा डिप्रेस्ड देश है. इसकी एक वजह ये भी है कि इंसान कि दिमागी हालत पर तब तक ध्यान नहीं देते, जब तक बात हाथ से न निकल जाए. इस डर से कि लोग क्या कहेंगे. सब उसे ‘पागल’ समझेंगे. बदनामी होगी. दिमागी बीमारी से ग्रसित इंसान को कोई ‘नॉर्मल’ समझता ही नहीं है. बल्कि दिमागी बीमारियां भी आम बीमारियों कि तरह ही होती हैं. इनका इलाज भी मुमकिन है. सही ट्रीटमेंट और दवाइयों की मदद से. 2017 में आए डेटा के मुताबिक, 7.5 हिंदुस्तान में फ़ीसदी लोग दिमागी बीमारियों से ग्रसित हैं. 71% लोग मेंटल डिसऑर्डर से जुड़े टॉपिक्स के बारे में मालूमात नहीं रखते. या उनके लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं जो उनकी खिल्ली उड़ाता है या इंसल्ट करता है.”

एक समाज जो पहले से दिमागी बीमारियों के बारे में इतनी ग़लत सोच रखता है, उसे कुछ ऐसा परोसना जो कि और अनरियल है, वो ग़लत है.

हलाकि फ़िल्म के टाइटल को लेकर कंगना की तरफ़ से सफ़ाई आई थी. पर उस सफ़ाई को सुनकर ऐसा लगता है कंगना को ‘इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी’ की बात समझ में ही नहीं आई.

 कंगना की बहन रंगोली चंदेल के ट्विटर अकाउंट से एक स्टेटमेंट जारी किया गया है. इसमें लिखा है-

“मैं कंगना की तरफ़ से ये कहना चाहती हूं कि ‘मेंटल है क्या’ जिस विषय पर बनी है, उसे देखने के बाद लोग आपत्ति जताने के बदले फ़िल्म पर गर्व करेंगे. मानसिक रोगों को लेकर हमारे आसपास जो गलत धारणा बनी है, ये फ़िल्म उसे दूर करेगी.”

फ़िल्म में ‘मेंटल’ ‘वीयर्ड’ ‘साइको’ ‘फ्रीकी’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल मानसिक बीमारियों को डिसक्राइब करने के लिए क्यों किया गया है, इसपर उन्होंने कुछ नहीं कहा. न ही जिन तरह की तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है, उसपर कोई सफ़ाई दी. यही सवाल एक्सपर्ट्स और लोग फ़िल्म के मेकर्स से ट्विटर पर पूछ रहे हैं.

 पढ़िए: फिल्म 'मेंटल है क्या' विवाद पर कंगना रनौत ने बहुत बचकानी चीज़ कही है

 

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