पीरियड के दौरान काम धीमा न पड़े, इसलिए महिला वर्कर्स को बिना डॉक्टरी जांच के दवाएं खिला रहे

गारमेंट फैक्ट्री की असलियत: इन वर्कर्स को अब पेशाब में जलन और गर्भपात जैसी परेशानियां हो रही हैं.

कारखाने में काम कर रहीं महिलाएं. (प्रतीकात्मक चित्री) तस्वीर : पिक्साबे.

पीरीयड्स में जब काफी तेज दर्द हो तो महिलाएं अक्सर डॉक्टर की सलाह पर दवा खा लेती हैं. पर अगर वो दवा डॉक्टर की सलाह पर न हो तो सेहत के लिए नुकसाहनदेह हो सकती है. कुछ दवाइयों के साइड इफेक्ट्स भी होते हैं. जिससे गंभीर बिमारी भी हो सकती है. कुछ ऐसा ही हुआ चेन्नई के एक कारखाने में काम करने वाली महिलाओं के साथ. जिन्हें पीरीयड्स में ऐसी दवाईयां दी गईं, जिससे महिलाओं को गर्भपात जैसी समस्या होने लगी.

तमिलनाडू में एक गार्मेंट फैक्ट्री है. वहां कई महिलाएं काम करती हैं. वहां की महिलाओं से रॉयटर्स न्यूज एजेंसी ने फैक्ट्री की कुछ महिलाओं से बात की. जिससे उस फैक्ट्री के सुपरवाइजर की करतूत के बारे में मालूम हुआ. ये एक टेक्सटाइल इंडस्ट्री है. जहां की महिलाओं ने वहां की परेशानी के बारे में बताया.

रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक

सुधा, जो वहां काम करती है. उसने बताया कि पीरीयड के दौरान दर्द होता था. तो उसके काम में कोई रुकावट न आए, उसे छुट्टी न लेनी पड़े. इसलिए सुपरवाइजर से दवा मांगकर खा ली. ये सिर्फ उसने ही नहीं, बल्कि वहां काम कर रही 100 महिलाओं के साथ ऐसा हुआ है.

रॉयटर्स को महिलाओं ने बताया कि उस दवा को खाने के बाद अब उनके सेहत पर असर हो रहा है. बिना डॉक्टर की सलाह पर सभी महिलाओं को दवा दी गई. महिलाओं ने बताया कि उन्हें दवा के नुकसान समझने में कई साल लग गए. कभी भी उन्हें दवा देते वक्त साइड इफेक्ट्स के बारे में भी नहीं बताया गया. उन्हें डिप्रेशन, पेशाब के रास्ते इंफेक्शन, घबराहट, गर्भपात जैसी समस्या होने लगी.

रॉयटर्स फाउंडेशन को जब वो दवा दिखाई गई. तो उस दवा में न तो मैनुफैक्चरिंग डेट थी. न ही उसमें ब्रांड का नाम और न ही एक्सपाइरी डेट थी.

sui_750_061519052809.jpgओडीसा की महिलाएं कपड़ों की सिलाई-बुनाई करती हुईं.

पर जब इस दवा को दो जानकार डॉक्टरों को दिखाई गई. तब उन्होंने बताया कि ये दवा पीरीयड्स में दर्द को दूर तो करती है. पर इसके साइड इफेक्ट्स भी होते हैं. इस समस्या पर कई लोगों ने अपनी चिंता जताई.

टॉयलेट ब्रेक से लेकर पीरियड तक महिला कारीगरों की लाइफ को बुरी तरह कंट्रोल किया जा रहा है. टॉयलेट गंदे रखे जाते थे, ताकि वो काम छोड़कर बार-बार बाथरूम न जाएं. दवा भी ऐसी दी जाती थी, जिससे दर्द बंद हो जाए और फैक्ट्री के काम में रुकावट न हो.

सुधा का मेडिकल टेस्ट हुआ. तो फाइब्रॉएड यानी गर्भाशय में एक तरह का ट्यूमर का पता चला. जो धीरे-धीरे बढ़ रहा था. डॉक्टर ने उसे सलाह दी कि उसे काम बंद करके आराम करना चाहिए.

पर सुधा काम छोड़ नहीं सकती थी. वो अपनी मां की मदद कर रही थी. उसे लोन चुकाना था. और उसकी सैलरी का आधा हिस्सा लोन चुकाने में ही जाता था. तो वो जॉब छोड़ने के बारे में सोच ही नहीं सकती थी.

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को तमिलनाडू के एक अधिकारी ने कहा कि राज्य गार्मेंट वर्कर्स के स्वास्थ्य की निगरानी के लिए एक प्रोजेक्ट लॉन्च करेगी, और कितने स्वास्थ्य की परेशानी से जूझ रहे हैं, उसका एक डेटा भी तैयार करेगी.

sui-2_750_061519052955.jpgकारखाने में काम करती हुई महिलाएं.

तमिलनाडु राज्य में पर्यावरणीय स्वास्थ्य अधिकारी मनिवलन राजमणिक्कम ने भी कहा. उनके मुताबिक, भारत के फैक्ट्री एक्ट में मेडिकल डिस्पेंसरी की जरूरत है. जिसे एक जानकार नर्स या डॉक्टर चलाएं. पर कुछ छोटे कारखाने इसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं.

कारीगरों ने कहा कि बड़े ब्रांडों के बढ़ते दबाव से कपड़े जल्दी-जल्दी और सस्ते में मिल रहे हैं. लेकिन पीरियड्स के कारण काम छूटने और मजदूरी खोने का डर था और चिंता भी. जिस कारण उन्होंने दर्द में दवाई लेना सही लगा.

जिन महिलाओं ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से बात की थी, उसमें ज्यादातर 15 से 25 साल की महिलाएं थीं. उन महिलाओं के मुताबिक, उन्हें हमेशा सामने गोलियां निगलने के लिए कहा जाता था. न तो दवा का नाम पता था और न ही कभी उसके साइड इफेक्ट्स. बस उसके रंग और साइज से ही पहचान होती थी.

सेल्वी को अपने पीरियड्स के बारे में बात करना पसंद नहीं है. उसे जब दर्द हुआ, तो उसने भी दवा मांगी. दवा खाने के बाद पेट में जलन होने लगी. वो बीमार पड़ी. 10 दिन की छुट्टी ली और उसमें ही उसकी नौकरी चली गई.

sui-3_750_061519052942.jpgकपड़े के कारखाने में महिला काम कर रही है.

सुधा अभी भी कारखाने में काम करती है. उसने बदलाव की उम्मीद करना बंद कर दिया है। सुधा का कहना है कि गंदे बाथरूम, पीरीयड्स के दौरान दर्द जैसी समस्याओं के बारे में बोलने से डरती थी. चार साल बाद भी काम के घंटे वही हैं और सैलरी भी वही है. कुछ नहीं बदला.

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