नैनेट: एक ऐतिहासिक शो जिसके बारे में कोई बात नहीं करता क्योंकि वो कॉमेडी है
अगर आपको लगता है कि कपिल शर्मा कॉमेडी करते हैं, तो आप ये न देखें.
"मैं एक परिस्थिति हूं, जो छोटे शहर के लिए अजीब है. दूर से मैं बिलकुल सही लगती हूं क्योंकि मुझे देखकर उन्हें लगता है कि कोई पुरुष खड़ा है. पास आने पर कहते हैं, ओह! ये तो एक धोखेबाज़ औरत है."
खुद को एक परिस्थिति बताने वाली इस औरत का नाम है हैना गैड्सबी. पेशे से कॉमेडियन हैं. किसी भी कॉमेडियन का परिचय यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए मगर हैना गैड्सबी के साथ एक और शब्द जुड़ा है: लेस्बियन. एक लेस्बियन कॉमेडियन उनका परिचय है. अब हम इसे हैना के अपने शब्दों में समझें, तो पाएंगे कि हमें असल में क्या समझने की जरूरत है.
कहने का अर्थ ये है कि अगर आप गे, लेस्बियन या ट्रांसजेंडर हैं, तो आपको हमेशा आपकी लैंगिक आइडेंटिटी या सेक्स चॉइस से पहचाना जाता है, आपके काम से नहीं.
हम बात कर रहे हैं 'नैनेट' की. 'नैनेट' हैना का एक स्टैंडअप कॉमेडी शो है. जिसका नाम उन्होंने 'नैनेट' क्यों रखा, वो ये भी बताती हैं. और आज हम 'नैनेट' की बात कर रहे हैं क्योंकि ये शो ऐतिहासिक है.
हां, ऐतिहासिक एक बड़ा शब्द है. ऐतिहासिक तो हम उसे कहते हैं जब कोई क्रिकेटर बहुत अच्छा खेल जाता है, कोई टीम हारा हुआ फुटबाल मैच जीत जाती है. एक लेस्बियन औरत स्टेज पर खड़ी चुटकुले बनाए, इसमें क्या ऐतिहासिक है?
ऐतिहासिक है, स्टेज पर खड़े होकर, हजारों की भीड़ में सफ़ेद चमड़ी वाले स्ट्रेट पुरुष से कहना कि एक महिला के तौर पर मुझे तुमसे डर लगता है. मुझे डर लगता है जब एक कमरे में पुरुष ही पुरुष हों और मैं एक अकेली महिला हूं. और एक ऐसी महिला जिसे महिला का दर्जा और सम्मान भी प्राप्त न हो क्योंकि वो लेस्बियन है.
हैना गैड्सबी का शो देखते हुए हंसल मेहता की फिल्म अलीगढ़ का सीन याद आता है. जब पत्रकार दीपू (राजकुमार राव) प्रफेसर सिरास (मनोज बाजपेयी) से पूछता है कि उनसे लोग चिढ़ते क्यों हैं, वो गे हैं इसलिए? और प्रफेसर जवाब देते हैं कि gay शब्द के तीन अक्षरों में कोई उनकी सारी संवेदनाएं कैसे समेट सकता है?
प्रफेसर सिरास को लोग नहीं मार पाए, मीडिया के शोर ने उन्हें मार दिया था. हैना गैड्सबी का ये शो इसी शोर में एक ठहराव लेकर आता है. और कहता है सोशल मीडिया पर चल रहे तमाम मूवमेंट्स के बीच हम जरा रुकें, एक कप चाय पिएं, एक नींद लें और सोचें कि हम क्या कर रहे हैं. कि हमारी पहचान क्या है.
इस पुरुषवादी समाज में अगर हम अलग हैं तो हमें चीखना पड़ता है. हिजड़ों को ताली बजानी पड़ती है, LGBTQ समुदाय को परेड निकालती पड़ती है, फेमिनिस्ट्स को कभी ब्रा जलानी पड़ती है तो कभी नग्न होकर सड़कों पर उतरना पड़ता है. हैना अपना काम कॉमेडी के ज़रिये कर रही हैं. एक ऐसी कॉमेडी जो दुनिया का सबसे मजबूत साहित्य है.
"एक पुरुष ने मुझे लड़का समझकर पीटना चाहा, क्योंकि मैं उसकी गर्लफ्रेंड से बात कर रही थी. फिर उसे मालूम पड़ा कि मैं औरत हूं तो माफ़ी मांगने लगा. कहा, 'मैं औरतों पर हाथ नहीं उठाता.' मैंने मन में सोचा, 'क्या आदमी है. बहुत बढ़िया. मगर कभी किसी पर भी हाथ न उठाने के बारे में इसने सोचा है?"
हिंसक, ज़हरीला पौरुष हमारे चारों तरफ़ है. हमेशा से रहा है. हमले, युद्ध, सत्ता, न्याय--सबके नाम पर समाज में मारपीट देखी गई है. हैना का ये एक छोटा सा चुटकला मानों मानव इतिहास को आईना दिखाता है.
"मैं ट्रांसजेंडर नहीं हूं. सच कहूं तो मैं लेस्बियन भी नहीं हूं. जिस पहचान से मुझे जाना जाना चाहिए वो ये है कि मैं थकी हुई हूं. सिर्फ थकी हुई."
हम ऐसे दौर में हैं जब हम चैन की नींद सोने के लिए तरसते हैं. हमारे दिमाग सोचना बंद नहीं कर पाते. क्योंकि हम विचारधाराओं से घिरे हैं. अपनी सोच, अपने समुदाय को दूसरे से बेहतर साबित करने और दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में हैं. हम दूसरे देश, दूसरी नस्ल, दूसरी जाति, दूसरे लिंग, यहां तक कि हमसे अलग फिल्मों और साहित्य का टेस्ट रखने वालों से भी नफरत कर रहे हैं.
डरने की बात ये है कि हमारी हंसी भी किसी की तकलीफ का नतीजा है. दूसरों को मारकर, उन्हें तड़पता देख हमें एक विचित्र सा सुकून मिलता है. ये किसी भी इतिहास का सबसे बुरा दिन ही होगा, जब एक नन्ही बच्ची का धार्मिक वजहों से रेप होता है और लोग धार्मिक वजह देते हुए रेप करने वाले के सपोर्ट में रैली निकालते हैं. लोग उसके सपोर्ट में रैली निकालते हैं जो लाइव वीडियो में किसी की हत्या कर देता है. ऐसे वक़्त में ये पहचानना जरूरी है कि मनुष्यों में जितनी असमानताएं हैं, उससे ज्यादा समानताएं हैं.
"आपको मालूम है, पुरुष और स्त्री में जितनी असमानताएं हैं, उससे ज्यादा समानताएं हैं. कई गुना ज्यादा. मगर हम अपने बड़े होते हुए बच्चों को कभी ये नहीं बताते कि वो एक ही टीम में हैं. एक ही साइड हैं. एक दूसरे के अपोजिट नहीं."
हैना गैड्सबी का ये स्टैंडअप इसलिए भी अलग है क्योंकि ये सिर्फ ये कहना कि हमारा इतिहास सेक्सिस्ट है, काफी नहीं है. ये सिर्फ फिल्म, टीवी, विज्ञापन या साहित्य की बात नहीं, हमारा होना ही पुरुषवाद का होना है.
बीते दिनों हमने सुना कि मॉर्गन फ्रीमैन पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे. मॉर्गन उम्रदराज हैं. और अमेरिका ही नहीं, दुनिया के सबसे माने हुए एक्टर्स में से एक हैं. मगर उनकी महानता को हमने कभी औरतों के प्रति उनके व्यवहार से नहीं परखा. हमारी फिल्म इंडस्ट्री पर भी यही बात लागू होती है. और ये फिल्म इंडस्ट्री पर नहीं रुकता. उदाहरण के तौर पर हिंदी के 'महान' कवि सुदामा पांडेय धूमिल का लिखा देखिए:
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार… मैंने जिसकी पूंछ उठायी है
उसको मादा पाया है.
सत्ता और तानाशाही पर हमला करती इस कविता में औरतों का ट्रीटमेंट बेहद घटिया है. यहां औरत यानी 'मादा' होने को कमज़ोर, बिना किसी ज़मीर या एथिक्स का, बिना किसी हिम्मत का होना माना गया है.
हैना इसी चीज को दुनिया के सबसे बड़े पेंटर्स में से एक पाब्लो पिकासो का उदाहरण देकर समझाती हैं. पिकासो को महान पेंटर माना गया, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि वो जिस समाज को अन चित्रों में दिखा रहे हैं, उसमें औरत की क्या जगह है. पिकासो ने कहा था:
"जितनी बार मैं पत्नियां बदलता हूं, मुझे पिछली पत्नी को जला देना चाहिए. इस तरह मेरी परेशानी कम होगी और मेरा जीवन आसान होगा. अगर अपना बुरा भूतकाल ख़त्म करना है तो उस औरत को मार दो जो उस भूतकाल को रिप्रेजेंट करती है."
चुटकुले के तौर पर पिकासो के बारे में की गई टिप्पणी पर हमें गौर करना चाहिए. गौर करेंगे तो पाएंगे कि हमारी बनाई हुई 'महान' की परिभाषा कितनी गलत है.
"हंसना हमारे रोगों का इलाज नहीं है. हमें केवल हमारी कहानियां उबार सकती हैं."
मगर हमारी परिभाषाएं, हमारी सभी कहानियां, हमारे सारे सच गलत गढ़े गए हैं. हमें उन्हें सही करना है. फिर से लिखना है. किसी औरत या पुरुष के नजरिये से नहीं, एक मनुष्य के नज़रिए से.
इस शो का रिव्यू आप यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं.
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