अमेठी में स्मृति ईरानी की जीत सिर्फ राहुल नहीं हर किसी के लिए सबक है

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों.

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता... अमेठी फतह के बाद स्मृति ईरानी ने यही ट्वीट किया था. इस ट्वीट में दुष्यंत कुमार की गजल की लाइन स्मृति की उस भावना को बता रही है कि किस तरह वह मार्च-अप्रैल 2014 से अमेठी जीतने के लिए पूरी तबीयत से लगी हुई थीं. यह ट्वीट बताता है कि एक बार जनता द्वारा नकारे जाने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और उसी संसदीय सीट की जनता का दिल जीतने में कामयाब हुईं, जो कभी राजीव तो कभी सोनिया से लेकर राहुल के लिए पलकें बिछाए रहती थी.

एक बार ठुकराए जाने के बाद गांधी परिवार के इस गढ़ को जीतना आसमां में सुराख करने जैसा ही माना जा सकता है. क्योंकि, काउंटिंग की सुबह तक कोई ये मानने को तैयार नहीं था कि राहुल अमेठी हार सकते हैं. यह जीत एक दिन की जीत नहीं है. न ही किसी एक करिश्मे की. ये जीत 5 साल के उस लगातार प्रयास की है, जिससे स्मृति अमेठी की जनता में विश्वास बनाने में कामयाब हुईं. जिस स्मृति के बारे में साल 2014 में कहा जा रहा था कि वह हारने के बाद अब वहां नहीं लौटेंगी, वही स्मृति अब अमेठी से संसद पहुंच गईं.

स्मृति ईरानीस्मृति ईरानी

कई साल पहले टीवी पर एक सीरियल आता था ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी.’ अपने दौर का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला धारावाहिक था वह. उसमें स्मृति ईरानी ने तुलसी का किरदार निभाया था. तुलसी इस शो की मुख्य किरदार थी. उस दौर में तुलसी को घर-घर में लोग जानते थे और मांए अपने लिए वैसी ही बहू के सपने देखा करती थीं.

तुलसी का जिक्र इसलिए कि स्मृति की इस जीत में तुलसी की झलक नजर आती है. तुलसी का किरदार ऐसा ही था, जो ठान लेता करके रहता.

खैर, 2014 में जब ईरानी ने राहुल को अमेठी में टक्कर दी तब उन्होंने सिर्फ राहुल को टक्कर नहीं दी, उन्होंने कांग्रेस के अभेद्य किले में हुंकार भरी थी. वह हार गईं. काफी फजीहत भी हुई. फिर राज्यसभा सांसद बनीं और केंद्र में मंत्री भी.

स्मृति चाहतीं तो उस हार को वहीं छोड़ देतीं. लेकिन उन्होंने अमेठी को नहीं छोड़ा. मंत्री बनने के बाद कई बार वह अमेठी गईं, लोगों से मिलती रहीं और जनता के बीच अपनी एक अलग जगह बना ली. इस बीच राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके थे, अमेठी को उतना वक्त नहीं दे पाए जितना देना चाहिए था. या यूं कहें कि 2014 की मोदी लहर में भी स्मृति ईरानी जैसी सीनियर लीडर को लाख के ऊपर के मार्जिन से हराकर वह निश्चिंत हो गए कि ये किला उनसे कोई नहीं छीन सकता.

खैर, स्मृति लगी रहीं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पांच सालों में वह 38 बार अमेठी गईं. चुनावी रैलियां अलग. ईरानी ने कई मौकों पर राहुल गांधी पर अमेठी को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया. यहां तक कहा कि राहुल गांधी के लिए अमेठी की जनता वोटबैंक से ज्यादा कुछ नहीं है. यहां कई चुनावी रैलियां की और वोटिंग के दिन भी अमेठी में ही रहीं.

अमेठी में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से था स्मृति का मुकाबलाअमेठी में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से था स्मृति का मुकाबला

स्मृति ईरानी सीनियर नेता का दर्जा रखती हैं. उन चुनिंदा महिला नेताओं में से एक हैं जिन्हें बच्चा-बच्चा जानता है. चाहतीं तो 5 साल खपाए बिना, किसी छोटी सीट से चुनाव लड़तीं, इससे आधी मेहनत में जीत जातीं. लेकिन उन्होंने अमेठी को चुना. एक ऐसी सीट जिसमें सालों से एक परिवार का एकाधिकार रहा है. उन्होंने इस एकाधिकार को तोड़ने की ठानी और आज उसपर कब्जा कर लिया है.

कई लोग इस जीत का श्रेय मोदी फैक्टर को भी दे रहे हैं. लेकिन मोदी लहर तो 2014 में भी थी. तब स्मृति हार गई थीं. हो सकता है इस बार मोदी लहर ने कुछ मदद की हो. लेकिन मोदी फैक्टर को क्रेडिट देकर स्मृति ईरानी की मेहनत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

शायद, कांग्रेस को इस बात का अंदाजा हो गया था कि पांच साल में ईरानी ने अमेठी में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. इस वजह से राहुल गांधी ने अमेठी के साथ-साथ केरल की वायनाड सीट से भी नामांकन भरा. इस सीट पर राहुल गांधी जीत भी गए.

ईरानी के व्यक्तित्व, उनकी एजुकेशन, उनकी राजनीति को लेकर लोगों की राय अलग हो सकती है. उनके बयानों को लेकर उनकी आलोचना की जा सकती है. लेकिन अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ उनकी जीत एक मिसाल है, उन लोगों के लिए जो किसी चीज़ को मुश्किल समझकर छोड़ देते हैं. कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.

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