अटेंशन: भारत देश के सभी लड़कों के लिए 'बहूरानी' मिल गई है
दहेज़ की कसम, हम मज़ाक नहीं कर रहीं.
आज सुबह चाय की चुस्कियां लेते हुए न्यूज़पेपर खंगाल रही थी कि तभी नज़र एक ऐड पर पड़ी. पेजभर का यह ऐड किसी लोहे की अलमारी की कंपनी का था. उसका टैगलाइन ही मुझे कुछ ठीक नहीं लगा. बड़े, लाल अक्षरों में लिखा हुआ था, ‘लाडली बिटिया की गृहस्थी में निपटाऊ नहीं, टिकाऊ.’ बोले तो सीधे-सीधे दहेज़ की तरफ इशारा. नीचे जिन प्रोडक्ट्स के सैंपल दिए गए थे उनके भी नाम अजीब से थे. जैसे ‘गृहलक्ष्मी’, ‘बहूरानी’ और पता नहीं क्या क्या.
यह रहा वह ऐड
यह ऐड बनानेवालों के लिए मेरे कुछ सवाल हैं.
अलमारी, बर्तन, मिक्सर जैसा घर-गृहस्थी का सामान महिलाओं को ही क्यों बेचा जाता है?
मसाले के ऐड में अनीता हसनंदानी
ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि अलमारी, खटिया, बेलन, चौका बेटियां और बहुएं ही खरीदेंगी? क्या मर्दों को इनकी ज़रूरत नहीं पड़ती? कोई मर्द अकेला रह रहा हो तो क्या उसे कपड़े रखने की जगह नहीं चाहिए होगी? या खाना बनाने का सामान नहीं चाहिए होगा? ‘टेस्ट में बेस्ट’ सिर्फ़ ‘मम्मी और एवरेस्ट’ क्यों हैं जब खाना बनाने का काम सिर्फ़ मांएं नहीं करतीं? पिता, प्रोफेशनल्ज़, और अकेले रह रहे युवा भी करते हैं?
गृहस्थी की ज़िम्मेदारी ‘बिटिया’ की अकेली क्यों?
आपकी ‘लाडली बिटिया’ अपने नए घर में अलमारी क्यों लादकर ले जाएगी? क्या उसके ससुराल में अलमारियों की कमी है? क्या अलमारी जैसी बेसिक चीज़ नहीं खरीद सकता उसका पति? नहीं भी खरीद सकता तो ज़रूरत पड़ने पर खुद खरीद लेगी लड़की. ये क्या बात हुई कि बेटी की गृहस्थी बसाने के लिए भी मां-बाप को अपना पेट काट कर दहेज़ देना पड़े? अलमारी कहने को छोटी चीज़ है, लेकिन इस लेन-देन के पीछे की मानसिकता एक बड़ा मुद्दा है.
दहेज की प्रथा बस कहने को ही खत्म हुई है. फिर लड़की घर से सामान क्यों लेकर जाए?
जहां दहेज को एक सामाजिक कुप्रथा मानकर उसे ग़ैरकानूनी कर दिया गया है, वहां क्यों यह मान लिया गया है कि बहू ससुराल में अपने साथ अलमारी, पलंग वगैरह लेकर जाएगी?
आपके प्रोडक्ट्स के नाम क्यों इतने वाहियात हैं?
सोचिए इस चीज़ का नाम 'गृहलक्ष्मी' है
एक फैंसी अलमारी का नाम रखा है ‘गृहलक्ष्मी’. कुछ 30,000 रुपए की है. ‘घर की लक्ष्मी’ तो आमतौर पर बेटियों और बहुओं को कहा जाता है. एक लोहे की अलमारी आपके घर की लक्ष्मी कैसे हो गई भैया? मतलब आपके घर की महिलाएं एक अलमारी से रिप्लेसेबल हैं? कहना क्या चाहते हैं?
एक और प्रोडक्ट का नाम है ‘बहूरानी’. 24,000 की थोड़ी छोटी अलमारी. मतलब एक कंज़्यूमर प्रोडक्ट को आपने ‘बहू’ का दर्जा दे दिया है. जैसे उसमें और एक जीती-जागती औरत में कोई फ़र्क ही न हो. वाह!
कमेंट्स पर बहुत गालियां पड़नेवाली हैं, मुझे पता है. सब की यही शिकायत रहेगी कि यह फ़र्जी फ़ेमिनिस्ट हर चीज़ में सेक्सिज़्म ढूंढ लेती हैं. मगर इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि इन्हीं मेसेजेज़ के ज़रिए हमें जेंडर स्टीरियोटाइप्स बड़ी चालाकी से सिखा दिए जाते हैं. एक बात समझना ज़रूरी है. घर का सामान खरीदना सिर्फ़ औरतों की ज़िम्मेदारी नहीं है. और वह अगर खरीदें भी तो ज़रूरी नहीं कि अपने ससुराल के लिए ही खरीदें.
यह स्टोरी ईशा ने लिखी है
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