'मेरी बेटी थोड़ी अलग जरूर है, पर उस पर तरस मत खाओ'
'मैं भी तुम्हारी तरह एक आम मां हूं. और मैं तो खुद को बहुत कमज़ोर मां मानती हूं.'
मैं दीपिका घिल्डियाल, देहरादून से हूं. एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में काम करती हूं. मेरी एक बहुत प्यारी सी छह साल की बेटी है जिसका नाम आद्या है. आद्या बहुत खुशमिज़ाज़ और इंटेलिजेंट बच्ची है. आद्या की तमाम खूबियों में ये भी शामिल है कि उसे सेरिब्रल पाल्सी है. प्रेग्नेंसी या प्रसव के दौरान दिमाग तक ऑक्सीज़न की सप्लाई में जरा सी भी कमी हो जाए तो दिमाग को नुकसान पहुंच जाता है. वही आद्या के साथ हुआ और अब आद्या के दिमाग से शरीर के अंगों तक सही से सिग्नल नहीं पहुंच पाते.
मैं ये सब खत इसलिए लिखती हूं ताकि समाज की उस सोच को बदल सकूं जो लोगों को "सामान्य" और "असामान्य" के खांचों में बांटती है. मैं चाहती हूं कि किसी भी किस्म की विकलांगता को दया भाव से ना देखा जाए. लोग जानें कि स्पेशल बच्चे भी एक आम बच्चे क़ी तरह प्यार और सम्मान के हकदार हैं, साथ ही उनके माता-पिता भी.
अगर इन खतों को पढ़ने वाला एक भी इंसान अगली बार किसी स्पेशल बच्चे से बिना किसी दया या डर के मिले, तो मैं समझूंगी मेरा प्रयास सफल रहा.
प्यारी सखी
पहले तो माफ़ी क्योँकि ये दोस्ती के उसूलों के खिलाफ है कि दो दोस्तों के बीच की बात को यूं किसी सार्वजनिक मंच पर लाया जाए. लेकिन मैं ऐसा कर रही हूं क्योँकि कुछ बातें जरिया होती हैं, उन तमाम लोगों तक अपना पक्ष पहुंचाने का जो उस बात से जुड़े हों.
तुम्हें शायद याद भी ना हो कि कुछ दिन पहले जब मैं अपनी बेटी की दिनचर्या का कोई हिस्सा तुम्हें सुना रही थी, तुमने आंखों में असीम दया भरते हुए कहा था- आप आद्या का कितना अच्छा खयाल रखते हो, वो आपको कितना आशीर्वाद देती होगी.
सखी! तुम्हारे ये शब्द मेरे कानों में हथौड़े की तरह बजे. मेरा मन किया कि तुम्हें जवाब दूं, लेकिन उसी वक़्त मुझे ये भी लगा कि पहले खुद से तो जवाब लूं कि तुम, जो कि मुझे इतने करीब से जानती हो, तुम जिससे मेरा शायद ही कुछ छिपा हो, अगर मेरे बच्चे के बारे में ऐसा सोचती हो तो इसकी वजह क्या है?
करीब तीन साल पहले मैंने अपनी बेटी के बारे में सोशल मीडिया पर खुलकर लिखना शुरू किया. इसके पीछे बहुत सारी वजहें रहीं, जिनमें एक बड़ी वजह ये भी थी कि मैं चाहती थी, मेरे सीमित दायरे में ही सही, लोगों का विकलांगता को लेकर नजरिया बदले. किसी खास बच्चे को देखकर लोग दया ना दिखाएं, उसके पास जाएं, उससे डरें नहीं. उसके माता-पिता की रोमांचक दिनचर्या के बारे में जानें, उनके संघर्षों के गवाह बनें और जहां हो, संवेदनशीलता दिखाएं, सहानुभूति या दया नहीं.
(सांकेतिक तस्वीर) फ़ोटो कर्टसी: Pixabay
मैं बहुत हद तक कामयाब भी रही. मेरे आसपास बहुत कुछ बदला है. मुझे लगने लगा था, आद्या अब एक आम बच्चे की तरह प्यार पाती है, दया नहीं लेकिन तुमने मुझे फिर से वहीं लाकर खड़ा कर दिया, जहां से मैंने शुरू किया था.
तो सुनो सखी! हम सब इंसान कमोबेश एक जैसे ही बने हैं. ऐसे ही हम सबके बच्चे भी. किसी मेडिकल कंडीशन पर किसी का बस नहीं और इसी वजह से मेरा बच्चा या हर स्पेशल बच्चा बाकियों से अलग होता है.
मैं भी तुम्हारी तरह एक आम मां हूं. और मैं तो खुद को बहुत कमज़ोर मां मानती हूं. जैसे तुम अपने बच्चे की परवरिश करती हो, प्यार, डांट, खेल और रूठना मनाना करती हो, मैं भी बस वैसा ही करती हूं. फ़र्क़ बस ये है कि मेरे बच्चे को थोड़ा ज्यादा देखभाल की जरूरत है. शायद उसे उम्र भर इस देखभाल की जरूरत हो, लेकिन इससे मैं मां के तौर पर महान नहीं बनती और ना ही मेरा बच्चा किसी की दया का पात्र.
मेरी बेटी आम बच्चों की तरह शरारती और स्वार्थी है. तुम कभी उससे पूछना कि वो अपनी मम्मा से प्यार करती है? तो उसका जवाब हमेशा ना होगा. हां सिर्फ तब जब मैं कहूं कि मेरे पास आइसक्रीम है.
(सांकेतिक तस्वीर) फ़ोटो कर्टसी: Pixabay
तुम एक बहुत अच्छी मां हो. अपने बच्चे की बेहतरीन परवरिश कर रही हो, लेकिन क्या तुमने कभी सोचा कि इसके बदले तुम्हें अपने बच्चे से आशीर्वाद मिलेगा? नहीं ना? वो इसलिए कि हमारी मानसिकता में ये कूट-कूटकर भरा है, कि किसी दीन-हीन की सेवा करो तो आशीर्वाद मिलता है. हमारा समाज यही मानता है कि बीमारी या विकलांगता किसी पूर्व जन्म के बुरे कर्म का नतीजा है और ऐसे लोगों की सेवा से पुण्य मिलता है. मैं इस सोच का पूरा विरोध करते हुए तुम्हें और बाक़ी लोगों को बताना चाहती हूं कि विकलांगता या किसी बीमारी पर हमारा जोर नहीं चलता लेकिन इन अवस्थाओं के प्रति हम क्या नजरिया रखते हैं, ये सब हमारे अपने वश में है.
ये मेरे संवाद की असफलता है कि तुम अपनी इस सोच को नहीं बदल पाई. इसे पढ़कर कोई और बदल पाए तो मेरी बात सफल होगी.
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