डॉक्टर भगवान नहीं होता, इस बात को समझने की जरूरत है

लोगों की जान बचा रहे डॉक्टर्स की सुरक्षा का जिम्मेदार कौन?

बंगाल में डॉक्टर्स के साथ मारपीट की घटना पर विरोध दर्ज कराती एक डॉक्टर. फोटो-पीटीआई

'कोई भी फिजिशियन, कितना भी सावधान क्यों न हो. अपने काम को लेकर कितना भी समर्पित क्यों न हो. वो नहीं जानता कि किस दिन, किस घंटे किसी हमले का शिकार हो जाए. उस पर लापरवाही का दोष लग जाए. उसे ब्लैकमेल किया जाए और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाए.'

ये पैराग्राफ अमेरिका के किसी जर्नल में 135 साल पहले छपा था. ये तब जितना प्रासंगिक था. उतना ही आज भी है. देशभर में डॉक्टर्स स्ट्राइक पर हैं. आज 8 वां दिन था. कारण, बंगाल में भीड़ द्वारा एक अस्पताल पर हमला. और हमले का कारण 85 साल के एक बुजुर्ग की हार्ट अटैक से मौत है. बुजुर्ग की मौत के बाद हिंसक हुई भीड़ ने अस्पताल पर हमला बोल दिया.  2 डॉक्टर्स को इतना पीटा कि उनकी जान पर बन आई. उन दोनों डॉक्टर्स का इलाज चल रहा है. डॉक्टर्स के साथ मारपीट की ये कोई पहली घटना नहीं है. इलाज के दौरान अक्सर उन्हें इस तरह की घटनाओं से दो-चार होना पड़ता है. 2017 में आई आईएमए की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 75 फीसद डॉक्टर्स ने अपने साथ हिंसक घटना होने की शिकायत की है. इस रिपोर्ट में ये बात भी सामने आई है कि ज्यादा हिंसा की घटनाएं इमरजेंसी सर्विसेज देने वाले डॉक्टर्स के साथ हुई हैं.

हर तरह की कैजुअलिटी के लिए डॉक्टर जिम्मेदार नहीं

डॉ. साधना काला. मूलचंद हॉस्पिटल में गायनैकोलॉजिस्ट हैं. उनका कहना है कि पेशेंट की मौत के लिए उनके रिश्तेदार डॉक्टर्स को ही जिम्मेदार मान लेते हैं. जबकि ऐसा नहीं है. अगर मरीज की डेथ हो जाती है तो उसकी फैमिली को लगता है कि डॉक्टर ने गलत किया. लेकिन अगर वही मरीज स्वस्थ हो जाता है तो उसकी फैमिली और मरीज दोनों खुश रहते हैं. भले ही डॉक्टर ने गलत किया हो. जब मरीज को कोई नुकसान पहुंचता है तो उसके परिवार के लोग गुस्सा हो जाते हैं. कई बार वे इसका सीधा जिम्मेदार डॉक्टर को मान लेते हैं. जबकि अधिकतर मामलों में डॉक्टर जिम्मेदार नहीं होते हैं. इनमें भी बड़े शहरों में इस तरह की कम घटनाएं होती हैं. वहां डॉक्टर्स परिजन को समझाते हैं और वो मान जाते हैं. लेकिन छोटे शहरों में ये चीजें नहीं हो पाती हैं.

डॉक्टर्स भगवान नहीं हैं

रूबी सिंह केजीएमयू लखनऊ में जूनियर डॉक्टर हैं. रूबी डॉक्टर्स के साथ हिंसा के पीछे की एक वजह 'धरती का भगवान' वाली छवि को भी मानती हैं. उनका कहना है लोग इस बात को समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि हम भी इंसान हैं. अभी तक मेरे साथ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ कि जिससे डर लगा हो. 24 घंटे हम इमरजेंसी पर अवेलेबल होते हैं. कई बार हम भूखे पेट काम करते हैं. कई बार मरीज बहुत बुरी स्थिति में आते हैं. हम अपनी तरफ से तो पूरी जी जान लगा देते हैं मरीज को बचाने के लिए. लेकिन इसके बावजूद अगर वो नहीं सर्वाइव कर पा रहे हैं तो उन्हें ये बात समझनी चाहिए. हम लोगों को भगवान का दर्जा मत दो. हमें इंसान की तरह ही ट्रीट किया जाए. अगर 100 लोग आ रहे हैं तो हम 90 की जान बचा रहे हैं. लेकिन उसे कोई नहीं गिनता है कि हमने किस तरह से उनकी जान बचाई है. हमारे यहां जो पेशेंट आते हैं. अगर उनकी ब्लीडिंग हो रही है तो हम उनके लिए ब्लड अरेंज करने जाते हैं. जूनियर डॉक्टर्स रात में भी उनके लिए ब्लड खोजते हैं. इनमें लड़कियां भी होती हैं. एंबुलेंस में गार्ड के साथ जाती हैं. किसी भी तरीके से पेशेंट की जान बचाई जा सके. वो सब चीजें भी लोगों को देखनी चाहिए.

आईएमए के एक सर्वे के मुताबिक मारपीट की सबसे ज्यादा घटनाएं जूनियर डॉक्टर्स के साथ होती हैं. आईएमए के एक सर्वे के मुताबिक मारपीट की सबसे ज्यादा घटनाएं जूनियर डॉक्टर्स के साथ होती हैं.

सबसे पहला काम होता है काउंसिलिंग

डॉक्टर्स और अटेंडेंट के बीच कन्फ्यूजन का एक बड़ा कारण उनके बीच गैप का होना भी है. मरीज के अटेंडेंट कहते हैं कि डॉक्टर सारी चीजें हमें नहीं बताते हैं. जबकि डॉक्टर्स इस बात को सिरे से खारिज कर देते हैं. डॉ. रूबी कहती हैं, जैसे ही पेशेंट आता है हम सबसे पहले उनकी काउंसिलिंग करते हैं. पेशेंट की हिस्ट्री लेते हैं. देखते हैं कि बच्चे को क्या रिस्क है और मां को क्या रिस्क है? उसके बाद अटेंडेंट से बात की जाती है. उसे पूरा मामला बताया जाता है. कि क्या-क्या रिस्क है और क्या-क्या हो सकता है? इन सब का पेपर पर साइन भी कराया जाता है.

डॉ. काला का भी यही कहना है कि सबसे पहले मरीज या अटेंडेंट को उसकी कंडीशन के बारे में समझाया जाता है. मेडिकल रेगुलेशन है कि डॉक्टर सबसे पहले मरीज को समझाता है. उसी की भाषा में समझाता है. कि क्या प्रोसेस होना है? लेकिन इसके बावजूद अगर मरीज को कोई नुकसान होता है तो अटेंडेंट कहते हैं कि उन्हें कुछ बताया नहीं गया. जबकि उन्हें सबकुछ समझाकर फॉर्म पर साइन भी कराया जाता है.

नवजात को लेकर सेंसिटिव होते हैं लोग

तमिलनाडु के तूतीकोरिन में एक गर्भवती महिला को अस्पताल में भर्ती कराया गया. महिला की हालत गंभीर थी. उसे दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिया गया. लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही उसकी मौत हो गई. महिला के पति ने डॉक्टर के चैंबर में घुसकर उसकी हत्या कर दी. घटना 2012 की है. इसके भले ही 7 साल बीत चुके हों लेकिन अभी भी हर रोज प्रसव के केस में अस्पतालों में तोड़फोड़ और डॉक्टर्स के साथ मारपीट की घटना सामने आती रहती है. डॉ. रूबी का कहना है कि बाकी लोगों की तुलना में हमारा काम थोड़ा अलग होता है. हमें मां और बच्चे दोनों का रिस्क लेकर चलना होता है. हमें मां और बच्चे दो-दो जानें बचानी होती हैं. कुछ अटेंडेट्स होते हैं जो बिल्कुल एग्रेसिव होते हैं. उनको आप कितना भी समझा दीजिए उन्हें चीजें समझ में नहीं आती हैं. ये दिक्कत प्रसव वाले केसेज में ज्यादा होती है. क्योंकि मां 9 महीने अपने गर्भ में बच्चे को रखती है. उसके लिए पूरा परिवार बेसब्री से इंतजार कर रहा होता है. इसलिए अटेंडेंट कहीं न कहीं इमोशनली बहुत अटैच्ड होते हैं. इसलिए अगर उसमें कोई गड़बड़ी होती है तो वो एग्रेसिव हो जाते हैं.

आईएमए यानी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन डॉक्टर्स की सुरक्षा को लेकर एक कठोर कानून की मांग कर रहा है. आईएमए की मांग है कि इन घटनाओं को रोकने के लिए क्रिमिनल लॉ बनाया जाए. ताकि डॉक्टर्स और हॉस्पिटल स्टाफ की सुरक्षा की जा सके. फिलहाल पश्चिम बंगाल के डॉक्टर्स ने हड़ताल खत्म कर दी है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें सुरक्षा का पूरा भरोसा दिया है.

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