मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर: स्क्रिप्ट में संडास जाती मां का रेप करवाने की क्या जरूरत थी?

रेप बड़ा ही मार्मिक क्राइम है. इसका इस्तेमाल किसी भी स्क्रिप्ट में कर सकते हैं. चाहे वो टॉयलेट बनवाना हो. क्रांति लानी हो. या पौरुष स्थापित करना हो.

'मेरी मां का रेप हो गया था. आपकी मां के साथ भी ऐसा होता तो आपको कैसा लगता?'

एक नन्हा बच्चा, जिसकी मां रात को बाहर मलत्याग के लिए गई थी, वापस आती है तो उसका रेप हो चुका होता है. ये बच्चा प्रधानमंत्री से चिट्ठी लिखकर रिक्वेस्ट करता है कि उनके इलाके में टॉयलेट बन जाए. जिससे औरतों को अंधेरे में सुबह के 3 बजे निवृत्त होने न जाना पड़े.

बच्चा छोटा है. मां का रेप हुआ है. नन्हे हाथों से चिट्ठी लिखता है. बेशक, डायरेक्टर राकेश मेहरा को ये मालूम रहा होगा कि ये सीन पब्लिक की आंखों में आंसू ले आएगा. और उन्हें भी एहसास होगा कि टॉयलेट बनना चाहिए. इसलिए नहीं कि लोग मल त्यागने जा सकें. बल्कि इसलिए कि रेप न हों.

rape_031819051725.jpgफिल्म में मल त्यागने गई मां का रेप हो जाता है.

रेप बड़ा ही मार्मिक क्राइम है. कलेजा काटने वाला. इसका इस्तेमाल किसी भी स्क्रिप्ट में कर सकते हैं. चाहे हो टॉयलेट बनवाना हो. क्रांति लानी हो. या पौरुष स्थापित करना हो. बस लोगों की आंखों में आंसू आ जाएं. इसी मकसद से 70 और 80 के दशक से अब तक कई फ़िल्में बनी हैं. इंसाफ का तराजू (1980), दामिनी (1993), इंसाफ की जंग (2006) और सिंबा (2018) भी लिखी गई थीं. ये महज उदाहरण हैं. रेप का किसी भी फिल्म में प्लॉट या सब-प्लॉट हो सकता है. और ये इतना आम है कि हमें फिल्मों में रेप का जिक्र देखकर अजीब भी नहीं लगता.

 

inssaf-ka-tarazu_031819052205.jpg'इंसाफ का तराजू' (1980), हॉलीवुड फिल्म 'लिपस्टिक' (1976) का रीमेक थी. ओरिजिनल फिल्म पर ही रेप को मसालेदार तरीके से पेश करने के आरोप थे. इस सीन में ज़ीनत अमान और राज बब्बर दिख रहे हैं.

बड़े होते हुए टीवी पर कई रेप-रिवेंज (जैसा इन फिल्मों को कहा जाता है) हमने देखीं. जो फ़िल्में पूरी तरह रेप रिवेंज नहीं होतीं, उनमें भी गुंडे या डकैत एकाध रेप कर देते हैं. फिल्म में इमोशन लाने के लिए. रेप सीन से दो मकसद सधते हैं:

पहला, शक्ति कपूर या रंजीत को हिरोइन के कपड़े फाड़ते देख जनता को उस पॉर्न की झलक मिल जाती, जो कुछ साल पहले तक वीडियो के रूप में मिलना मुश्किल था.

दूसरा, नायक जब इस रेप का बदला लेता है, वो 'लीड एक्टर' से 'हीरो' बन जाता है. सोचिए, एक बेबस महिला के 'चरित्र हनन' का बदला लेने वाला लड़का कितना अच्छा होगा. सबसे पहली बात तो वो खुद कभी रेपिस्ट नहीं बनेगा. क्योंकि एथिकली वो इसके खिलाफ है. बस हमें एक लड़के से और क्या चाहिए. इतना ही कि वो रेप न करे. बाकी रोज का सेक्सिजम, महिला विरोधी विचार और उनके इज्जत का स्वामी होने की भावना के साथ तो हम लड़कियां जी ही लेंगी.

ranjit-rekha_031819051839.jpgरंजीत का एक रेप सीन: रेप कल्चर की इन्तेहां देखिए. रंजीत ने लगभग 150 में रेप सीन किए थे.

खैर. वापस आते हैं 'मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर' पर. फिल्म में सरगम (मां) रात में अकेले ही संडास के लिए निकलती है. रास्ते में इलाके का मवाली मिलता है. नशे में धुत्त. पकड़ने की कोशिश करता है. पर सरगम उसको पीटती है. फिर गश्त लगा रहे पुलिस वाले आकर पीटते हैं. मवाली से तो सरगम बच जाती है. पुलिस वाले से कैसे बचेगी. हवलदार की निगरानी में इंस्पेक्टर रेप करता है.

ये फिल्म रेप रिवेंज नहीं है. कोई हीरो आकर यहां औरत का बदला नहीं लेता. पर शायद ले ही लेता, तो लगता कि चलो कुछ हुआ है. रेप रिवेंज से भी बुरा है रेप का जिक्र भर करके निकल जाना.

condom_031819052413.jpgइस सीन में कनू, सरगम को कॉन्डम देकर बता रहा है कि बड़े लोगों को इसे इस्तेमाल करना चाहिए. ये फिल्म कभी दूरदर्शन का ऐड लगती है. कभी प्रोग्रेसिव होने की असफल कोशिश.

सरगम के बेटे कनू के दिमाग में एक ही चीज ठिठक गई है. पड़ोसी औरत का कहना, 'चैन से हगने भी नहीं देते.' इसलिए अब वो टॉयलेट बनवाएगा. वो अपनी मां को दुखी नहीं देख सकता. दोनों में बहुत गहरी बॉन्डिंग है. कनू को ये नहीं पता कि मां इसलिए नहीं उदास है कि वहां टॉयलेट नहीं है. बल्कि इसलिए उदास है कि उसका रेप हुआ है. दुख की बात ये है कि ये बात डायरेक्टर को भी नहीं पता. ऐसा लगता है.

simbba_031819052759.jpgसामने रणवीर और बैकग्राउंड में औरतें. 'सिंबा' (2018) की भी यही कहानी है.

रेप जैसा जघन्य अपराध यहां एक पुलिस वाले ने किया था. सिस्टम की ओर से होने वाले इस तरह के क्राइम का ट्रीटमेंट फिल्म में 2 मिनट का भी नहीं है. सरगम को न्याय मिला? उसे न्याय कैसे मिलेगा? उसके आरोपी खुले घूमेंगे? पुलिस का लोगों के प्रति क्या कर्तव्य है? पुलिस वाले जब अपनी वर्दी को इस तरह अब्यूज करते हैं तो उनका क्या होता है? गरीब, स्लम में रहने वाली औरत कैसे सुरक्षित रह सकती है? ये जवाब बहुत ढूंढे. मिले नहीं.

फिल्म इस तरह रेप को छूकर निकल गई जैसे पॉकेटमारी का कोई वाकया हो.

इंडिया में फीचर फ़िल्में बनते 100 साल से भी ज्यादा हो गए. 50 साल से ज्यादा रेप पर सिनेमा बनते हो गए. मेरी बिन मांगी सलाह है. कि अब रेप और रेप पीड़िता को दिखाने के पहले उनपर रिसर्च कर ली जाए. कि इसका ट्रॉमा कैसा होता है.

बाकी टॉयलेट तो बनने ही चाहिए. फ़िल्में गांधी की तस्वीर पर ख़त्म होनी चाहिए. उन्हीं गांधी जी पर जिनकी ऐनक स्वच्छ भारत अभियान में दिखती है. पर इसलिए नहीं कि रेप न हों.

रेप न हों, इसके लिए पुरुषों को रेप करना बंद पड़ेगा.

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