डियर आयुषी, पता है हमारी असल दिक्कत क्या है?

हम लोगों के पास जो है उसके लिए कभी शुक्रगुजार नहीं होते

आशुतोष चचा आशुतोष चचा
नवंबर 22, 2018

आप पढ़ रहे हैं हमारी सीरीज- 'डियर आयुषी'. रिलेशनशिप की इस सीरीज में हम हर हफ्ते 'चचा' की एक चिट्ठी पब्लिश करेंगे. वो चिट्ठी, जिसे वह अपनी बेटी आयुषी के लिए लिखते हैं. इन चिट्ठियों से आपको ये जानने को मिलेगा कि एक पिता अपनी बेटी के लिए क्या चाहता है. ये चिट्ठियां हर उस पिता की कहानी बयान करेंगी, जिनके लिए उनकी बेटी किसी 'परी' से कम नहीं होती, जिनके लिए उनकी बेटी कुदरत की सबसे प्यारी रचना होती हैं. 

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एक बात देखी है मैंने. मेच्योर लोग गुस्से में अच्छी बात नहीं बोल पाते. या यूं कहो कि तनी हुई भौंहों, चढ़ी हुई आंखों और बिगड़े हुए मुंह से अच्छी बात भी अच्छी नहीं लगती. लेकिन बच्चों के मुंह से गुस्से में भी फूल ही बरसते हैं. तुमने जो डायलॉग मारा था मुझसे गुस्से में वो मैंने सबसे बता दिया है. कि मैंने तुम्हें धीरे से मारा तो तुमने अपनी मम्मी से कहा 'देखो तुम्हारा पति मुझे मार रहा है.' फिर पति पत्नी घंटों हंसते रहे. पता नहीं ये सब कहां से सीखती हो तुम. ये सब खुराफात तुम सीखोगी तो मेरी कही बातें कौन सीखेगा? फिर भी मैं अपनी चिट्ठियां लिखता जाता हूं.

हां तो मैटर ये है कि कुछ दिन पहले मैं थोड़ा परेशान था. किसी ज्ञानी ने ज्ञान दिया कि 'अपनी कमजोरी को अपनी स्ट्रेंथ बनाओ.' जब तक मैं स्ट्रेंथ की स्पेलिंग गूगल करता, उस ज्ञानी का नाम भूल गया और उसका ज्ञान भी. मैंने सोचा लोग यहां फालतू में ज्ञान की बातें पेलते रहते हैं. अपना पेट भरा हो तो सबको बड़ी बातें आती हैं. बेरोजगार हो, घर में खाने को न हो, चलने के लिए एक साइकिल न हो, बात करने के लिए एक फोन न हो तब देखें कहां से टपकती हैं बातें. ऐसे ही मन में दो चार और गंदी बातें बोलकर मैंने अपने ही थॉट प्रोसेस से उस ज्ञान को धराशायी कर दिया. कि प्रैक्टिकली तो अपनी कमजोरी को स्ट्रेंथ बनाया नहीं जा सकता. 

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एक दिन बैठा अपने पुराने दिन याद कर रहा था तो इस बात में दम लगा. मेरी मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान थी. ऐसी जगह पर थी कि कस्टमर्स आते नहीं थे. लिहाजा मेरे पास बहुत सारा खाली टाइम रहता था. तो मैं फेसबुक पर कुछ भी ऊल जलूल लिखा करता था. लिखते लिखते समझ शार्प होती गई. सटायर पर पकड़ मजबूत होती गई. काफी फिल्में देखीं और कुछ किताबें पढ़ीं उस खाली वक्त में. कायदे से वो बेरोजगारी थी जो मेरी स्ट्रेंथ बन गई. मैंने अपना समय फेसबुक पर ही बरबाद किया. बिना ये सोचे कि ये किसी काम भी आ सकता है. लेकिन उस बरबादी में भी मेरे लिखा बेहतर होता गया और लोगों ने पसंद किया. फिर उसी की बदौलत मुझे मौका मिला तो मैंने थोड़ा बहुत खुद को साबित किया.

फिर एक दिन बैठा यूट्यूब पर वीडियोज देख रहा था तो इसी पर सुई अटक गई. TVF में एक लड़का है अरुण कुशवाहा. छोटे मियां के नाम से मशहूर है. सतना का है. हाइट कम है उसकी. लेकिन उसने अपनी इस कमजोरी को अपनी स्ट्रेंथ बनाई हुई है. शानदार एक्टिंग करता है और हर रोल में जान डाल देता है. लोग बाकी तमाम एक्टर्स से ज्यादा उस पर प्यार लुटाते हैं. उसको देखकर मेरे गांव के एक दोस्त की याद आ जाती है. वो हमेशा अपनी नाकामियों का ठीकरा अपनी हाइट पर थोपा करता था. जैसे हाइट वाले सब यहां दरोगा ही बने जा रहे हैं. 

chess-1483735_1920_750_112218061844.jpg हार मानने वालों की हार होती है आयुषी, हारना तो केवल हिस्सा होता है जिंदगी का.

ऐसे ही हजारों लोगों को तुम अपने आस पास की दुनिया में देखोगी. किसी के हाथ पैर नहीं हैं. छोटा सा पैर निकला हुआ है लेकिन वो बहुत तेज तैरता है. किसी का हाथ नहीं है तो वो मशीनी हाथ से गिटार बजाता है एकदम सनन. किसी की आंखें नहीं हैं तो वो म्यूजिक की दुनिया में नाम कर रहा है. बहुत से लोग तो ऐसे मिलेंगे कि वो जो अंग न होने की वजह से अपूर्ण थे, उसी पर इतनी तगड़ी खोज की कि आगे लोगों की जिंदगी आसान हो गई. तुम मोबाइल में डोरेमॉन की बजाय कुछ और सर्च करने लायक हो जाओ तो लुइस ब्रेल सर्च करना. बचपन में हादसे के कारण दोनों आंखें चली गई थीं इस आदमी की. इसने एक लिपि बनाई, जिसको हम ब्रेल लिपि कहते हैं. इस लिपि की वजह से न देख सकने वाले लोग भी पढ़ सकते हैं.

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पता है हमारी असल दिक्कत क्या है? हम लोगों के पास जो है उसके लिए कभी शुक्रगुजार नहीं होते. अपनी नाकामियों का ठीकरा किसी कमी पर थोपते रहते हैं. जैसे कोई कहे कि मैं गांव में हूं. यहां संसाधन नहीं हैं तो मैं कुछ नहीं कर सकता. मैं बेरोजगार हूं, क्या कर सकता हूं? मेरी हाइट कम है, मैं बहस में कमजोर हूं, मेरी राइटिंग अच्छी नहीं है, मैं लिख लेता हूं लेकिन बोल नहीं पाता सही से, मेरे पैर छोटे हैं इसलिए दौड़ में हिस्सा नहीं ले सकता. एक बात समझो, जब शारीरिक या मानसिक रूप से किसी तरह की कमी झेल रहे लोग कुछ बड़ा कर सकते हैं तो हर अंग सलामत लेकर बैठे लोगों को ऐसे रोना नहीं चाहिए. उन पर दया दिखाने की बजाय खुद पर दया दिखानी चाहिए.

मैं जब बेरोजगार था तो बेरोजगारी मेरी कमजोरी थी. अभी मैं अच्छी जॉब कर रहा हूं तो ये मेरी कमजोरी बनी हुई है. मैं शिकायतें करता हूं कि नौकरी की वजह से टाइम नहीं मिलता कुछ अलग, क्रिएटिव करने का. लेकिन मुझे उम्मीद है कि मैं अपनी इस शिकायत पर काबू पा लूंगा. अपनी कमजोरी को स्ट्रेंथ बना लूंगा.

 

 

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