देश की छह महिला जर्नलिस्ट्स जो धमकियों और गालियों से नहीं डरतीं

ट्रोलिंग को लेकर क्या कहती हैं इंडिया की बड़ी पत्रकार

ट्रोल.

कैम्ब्रिज डिक्शनरी के अनुसार एक ऐसा व्यक्ति जो इन्टरनेट पर परेशान करने वाले मैसेज छोड़े, ध्यान खींचने के लिए या गड़बड़ी करने के लिए. ये मैसेज या कमेन्ट अधिकतर भड़काऊ या मुद्दे से हटकर किए जाने वाले होते हैं. ये सब कुछ करने की क्रिया, ट्रोलिंग कहलाती है.

एक ऐसा शब्द जो आज से कुछ साल पहले तक मेनस्ट्रीम में नहीं था. अब सब जानते हैं. ये अच्छा है या बुरा, ये तय करने की आपको आज़ादी है.

इंटरनेट पर ट्रोलिंग पिछले कुछ समय में बेहद जहरीली हुई है. किसी भी मुद्दे को लेकर असहमति जताना एक ओर, और उस मुद्दे को लेकर सामने वाले पर पिल पड़ना एक ट्रेंड सा बन गया है. ये हम नहीं कह रहे. सोशल मीडिया का चक्कर लगा आएं, आप खुद देख लेंगे.

ये ट्रोलिंग जहरीली इस मायने में होती है कि रेप थ्रेट्स दिए जाते हैं. जान से मार देने की धमकी दी जाती है. प्राइवेट फोन नंबर और घर का पता पब्लिक कर दिए जाते हैं. इसे अंग्रेजी में Doxxing कहा जाता है. ये ट्रोलिंग के सबसे खतरनाक तरीकों में से एक है.

ऑनलाइन ट्रोलिंग का टार्गेट हर वो व्यक्ति हो सकता है जिसने मुखर होकर अपनी बात रखी हो. महिलाओं के मामले में ये और भी ज्यादा नीचता की हद पार कर जाता है क्योंकि फिर उन्हें सीधे-सीधे बलात्कार के, क्रूरता के, अश्लीलता भरे तरीके से धमकाया जा सकता है. नीचा दिखाया जा सकता है. ख़ास तौर पर जब वो महिला जर्नलिस्ट हो तब तो उसका टार्गेट बनना और भी ज्यादा आसान हो जाता है. क्यों?

क्योंकि वो पब्लिक डोमेन में दिखती है.

उसका ओपिनियन सीधे लोगों तक पहुंचता है.

लोगों को लगता है कि चूंकि हम इसे स्क्रीन पर देख सकने के लिए आज़ाद हैं, तो हम कुछ भी कह सकते हैं. हमारा ओपिनियन उससे ज्यादा इम्पोर्टेन्ट है, क्योंकि हमारे पास इंटरनेट है. ये कई बार इस हद तक भयानक हो जाती है कि बाहरी एजेंसियों को दखल देना पड़ता है. हाल में ही जर्नलिस्ट राणा अय्यूब को जान से मारने की धमकियां दी जा रही थीं. उनके चेहरे का इस्तेमाल करके पॉर्न विडियो में लड़की के शरीर पर लगा दिया गया. इसे ‘डीपफेक’ कहते हैं. इस वजह से राणा काफी समय तक अपसेट भी रहीं. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि किस तरह जब उन्होंने पुलिस के पास जाकर शिकायत करने की कोशिश की तो उन्होंने रिपोर्ट नहीं लिखी. जब ये कहा गया कि वो मीडिया के पास जाएंगी, तब जाकर रिपोर्ट लिखी गई. उनके ऊपर फेक ट्वीट, झूठे कोट्स दिखाकर उन्हें ट्रोल किया जा रहा था. आखिरकार यूनाइटेड नेशंस के 16 स्पेशल प्रतिवेदकों ने भारतीय सरकार को लिखित में रिक्वेस्ट भेजी. कि राणा को प्रोटेक्ट किया जाए. तब जाकर उन पर हो रहा अब्यूज थोड़ा कम हुआ.  

आखिर क्या सोचते हैं ट्रोल. कैसे होती है ट्रोलिंग की शुरुआत. आज के समय में लीडिंग महिला जर्नलिस्ट्स के ट्विटर हैंडल्स जाकर देख लीजिए, आपको ट्रोल्स की भरमार मिलेगी. ऐसा नहीं कि पुरुष जर्नलिस्ट्स के साथ ये समस्या नहीं है. लेकिन महिला जर्नलिस्ट्स के मामले में ट्रोलिंग दोधारी तलवार की तरह होती है. एक तरफ से उनके जर्नलिस्ट होने की क्रेडिबिलिटी पर अटैक करती. दूसरे उनके महिला होने के पूरे वजूद को ट्रोलिंग का सेंटर बना लेने वाली. ऐसी दोहरी ट्रोलिंग जब एक बार में अटैक करती है, तो उससे कैसे डील करती हैं ये पत्रकार. हमने बात की कुछ ऐसे चेहरों से जिनको हम और आप रोजाना टीवी, फोन स्क्रीन, और सोशल मीडिया पर देखते हैं.  

अंजना ओम कश्यप

एग्जीक्यूटिव एडिटर- आज तक

anjana-750x500_062619052541.jpg                          तस्वीर: ट्विटर

सोशल मीडिया आपके दिमाग के साथ खेल सकता है. ये अप पर दबाव डाल सकता है, इस हद तक जहां पर आपके बेहद नैचरल डिसीजन भी आपको बार-बार सोचने पर मजबूर कर दें. ये ऐसी चीज़ें हैं जो आप शुरू में नहीं समझते. आप सीधे दिल से बात करते हैं. मैं हमेशा शुरुआत से ही काफी गार्डेड रही हूं, जब शुरुआत में भी ट्रोलिंग होती थी, तब भी. मैंने अपनी (सोशल मीडिया) टाइमलाइन काफी क्लीन रखी है. मैंने इस सोशल मीडिया का जो ‘जॉबलेस ईकोसिस्टम’ है, इसे काफी सही तरीके से नज़रंदाज़ किया है, एकदम शुरुआत से ही. मुझे ये सारी सिचुएशन पता है क्योंकि मैंने डिजिटल में काफी काम किया भी है. जैसे ‘न्यूज तक’ शुरू किया. मुझे पता है कि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स पर आपको किस तरह के रिस्पांस मिलते हैं. हम हर तरह के नेताओं से मिलते हैं, हमें पता है कि किस तरह ट्रोल करने के लिए एजेंसियों और सोशल मीडिया टीमों को पैसे दिए जाते हैं. मुझे पता है कि लोग अपनी आइडियोलॉजी को सूट करने वाली ट्वीट रीट्वीट करते हैं, और इसके उन्हें पैसे मिलते हैं. तो हर व्यक्ति यहां बस अपना काम ही कर रहा है या अपनी पॉलिटिक्स कर रहा है. कुछ बातें जो अच्छी होती हैं, जिन पर सब सहमत हो सकते हैं, वो बात आगे नहीं बढ़ाई जाएगी क्योंकि ये उनकी पॉलिटिक्स को सूट नहीं करता. मुझे सोशल मीडिया पर दिखावे की बधाई और विशेज भी अच्छे नहीं लगते. इसे भी पॉलिटिकल बना दिया जाता है.

मैं अपनी पर्सनल लाइफ को भी लेकर बहुत ज्यादा प्रोटेक्टिव रहती हूं. पहली बार अपनी फैमिली के बारे में तब ट्वीट किया था जब लोग मेरे नाम में लगे ‘ओम’ का मज़ाक उड़ाते थे, मुझे ट्रोल करके कहते थे कि खान क्यों नहीं रख लेती. तब मैंने बताया था कि ये किसी धार्मिक वजह से नहीं है, बल्कि मेरे पापा का नाम ओम प्रकाश तिवारी था. वो आर्मी में डॉक्टर थे. तो मेरा मिडल नेम उनका नाम है. अब वो नहीं हैं इस दुनिया में. दूसरी बार मैंने तब जवाब दिया था जब प्रधानमंत्री मोदी ने मुझे टैग करके वोटिंग कैम्पेन में युवाओं को एनकरेज करने के लिए कहा था. तो लोगों ने ट्रोल करते हुए कहा था कि मैं फेवरेट हूं और इस तरह की बातें की थीं. तब मैंने अपनी बेटी के साथ फोटो ट्वीट करके उन्हें जवाब दिया था. क्योंकि इस लोकसभा चुनाव में मेरी बेटी ने पहली बार वोट दिया था.

ये सिर्फ वही दो मौके थे जिनमें मैंने ट्रोल्स को सीधे पलट कर जवाब दिया. वरना मैं वही लिखती हूं, जो मुझे लिखना होता है. आपको अगर ऐसा महसूस होता है कि आपको कुछ करना है, तो आपको उसे लेकर आगे ज़रूर बढ़ना चाहिए. मुज़फ्फरपुर वाले केस में भी वहां जाने के पीछे मेरा यही मकसद था कि वहां की भयानक परिस्थितियों और नज़रअंदाज़ी को सामने लाया जा सके. मैं पूरे दिन नीतीश कुमार और हर्षवर्धन को चैलेंज किया कि उस अस्पताल में रात बिताकर दिखाएं. अगर मुझे वहां जाकर ये स्टोरी करने का मौका मिला तो मैं इसे दुबारा करूंगी. ट्रोल करना तो लोगों का बिजनेस है. मेरा काम सच सामने लाना है.

संध्या मेनन

राइटर-जर्नलिस्ट 

sandhya-750x500_062619052617.jpg                          तस्वीर: फेसबुक

जब पहली बार मुझे ट्रोल किया गया, तो मुझे महसूस नहीं हुआ कि ये ट्रोलिंग है. मैंने उन ट्रोल्स के साथ इंगेज करना शुरू किया. कि ये बात करने का तरीका नहीं है. आपको इस तरह से नहीं बात करनी चाहिए. जब ये कुछ ज्यादा ही बुरा हो गया, तब मैंने अपने सपोर्ट सिस्टम का सहारा लिया. चिल्लाई भी. रोई भी. क्योंकि मुझे सच में ये लगता था कि ये असली लोग हैं जो भटके हुए हैं. जिनको समझ नहीं है. मुझे लगा कि एकलौता तरीका है उनके साथ इंगेज करना (बातचीत करना). ये (ट्रोलिंग) आपको खुद पर सवाल खड़े करने पर मजबूर कर देती है, कि आखिर मैं यहां ट्विटर पर कर क्या रही हूं. लेकिन मुझे यहां से इतना सब कुछ अच्छा मिला है, कि वो सभी बुरी चीज़ों पर भारी पड़ता है. मुझे रेप थ्रेट्स से डर नहीं लगता. जो लोग असल में रेप करते हैं, वो थ्रेट्स नहीं देते. पढ़कर बुरा तो लगता ही है. लेकिन ऐसी आशंका बहुत कम है कि रियल लाइफ में ऐसा कुछ होगा. मैं नहीं कह रही कि ऐसा बिल्कुल नहीं होगा, या ऐसा पहले हुआ नहीं है, लेकिन मेरा पर्सनल ओपिनियन ये है कि असल जिंदगी में ऐसा होगा इसकी आशंका कम है. 

ट्रोलिंग का मुख्य लक्ष्य आपको डराना है. डर तो होता है है, लेकिन उससे आगे निकलना ज़रूरी है, तब आपको अहसास होता है कि इन थ्रेट्स में बड़बोलापन काफी है. हो सकता है कि कई में से एक ऐसा सनकी निकले जो सच में कुछ कर दे. लेकिन खुद को उस डर से परे निकालना बहुत ज़रूरी है, उसके अंदर नहीं जाने देना खुद को. जो लोग वल्नरेबल हैं ट्रोलिंग को लेकर, वो सिर्फ यंग लड़कियां/महिलाएं ही नहीं बल्कि समाज के हाशिए पर मौजूद महिलाएं भी हैं. दलित और बहुजन समाज की महिलाएं हैं जिनके अस्तित्व पर दोहरा खतरा है. LGBTQ समुदाय के लोग हैं. ऐसे समूह हैं  जो पहले से ही हाशिए पर हैं और उनके पास इस ट्रोलिंग से डरने की पर्याप्त वजह है. मैंने ये फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस नहीं किया (इतनी तीव्र ट्रोलिंग जो इस समुदाय के लोगों ने झेली), तो इसलिए मैं ये नहीं कह सकती कि उनको ट्रोलिंग से डील करने के लिए क्या करना चाहिए. लेकिन जो एक सलाह मेरी रहेगी वो ये है कि ज्यादा सुरक्षित ऑनलाइन सिस्टम्स के लिए मेहनत करनी चाहिए हमें. साइबर पुलिस से रिस्पांस के लिए, एक्शन के लिए, बेहतर सिस्टम्स की कोशिश करते रहना चाहिए हमें.

निधि राजदान

जर्नलिस्ट, एंकर - NDTV

nidhi-750x500_062619052725.jpg                          तस्वीर: ट्विटर

मुझे ट्विटर पसंद भी नहीं. मैं सोशल मीडिया पर्सन नहीं हूं. मैं सोशल मीडिया पर इसीलिए आई क्योंकि लोग मेरी नकली प्रोफाइल्स बना रहे थे. मेरे नाम से ट्वीट्स डाल रहे थे. फिर ट्विटर ने मुझसे कहा कि मुझे एक वेरिफाइड ट्विटर हैंडल बनवा लेना चाहिए. क्योंकि बार-बार मैं कम्प्लेन कर अपने नाम से चल रहे कितने ही फेक हैंडल्स हटवाऊंगी. मैं कुछ साल पहले थी ट्विटर पर, लेकिन मुझे वो पसंद नहीं आया. काफी टॉक्सिक लगा मुझे ये. अभी भी है. और शुरुआत में (जब ट्रोलिंग हुई) तो मुझे नहीं लगता कि मैंने उसे ढंग से हैंडल किया. क्योंकि मैं नई थी. और कोई भी नार्मल इंसान चीज़ों को दिल पे ले सकता है. मुझे ये अपने समय की बर्बादी लगा. कुछ सालों तक मैं थी ही नहीं इस प्लेटफ़ॉर्म पर. वो काफी शांति वाला टाइम था.

कुछ साल पहले जब मैं वापस आई, तो उसकी वजह यही थी जो मैंने आपको बताई. अभी भी मेरे दूसरे कलीग्स के मुकाबले मैं उतनी एक्टिव नहीं हूं. मैंने सोच समझकर निर्णय लिया है कि छुट्टी वाले दिन या ऑफ वाले दिन ट्वीट नहीं करूंगी. मैंने ये देखा है कि ऐसी चीज़ों से डील करने के सबसे बेहतरीन तरीकों में से एक है कि कभी-कभी पलट कर जवाब दे देना चाहिए. मैं अब परेशान भी नहीं होती. कुछ भी कहें लोग, मुझे वो परेशान नहीं करता. मेरे लिए सबसे हेल्दी तरीका यही है कि इन सबसे जितनी दूर रह सकूं, उतना अच्छा.

रूबिका लियाकत

जर्नलिस्ट, एंकर- ABP न्यूज़  

rubika-750x500_062619052842.jpg                          तस्वीर: इन्स्टाग्राम

आप खुश होते हैं जब लोग आपको मैसेज करते हैं, आपकी तारीफ़ करते हैं स्ट्रांग स्टैंड लेने के लिए, आपकी एंकरिंग की तारीफ करते हैं. जितना वो आपको अच्छा लगता है उतना ही आप गालियों से भी प्रभावित होते हैं. शुरुआत में कुछ ज्यादा होते हैं आप. मैं तो होती हूं. एक इंसान होने के नाते जितनी तारीफ़ अच्छी लगती है मुझे उतनी ही गालियां दुखी भी करती हैं. लगता है क्या हो गया, ये तो अच्छी ही बात थी, इस पर लोग ऐसे क्यों रियेक्ट कर रहे हैं. दूसरी चीज़ ट्विटर से चीज़ों का व्हाट्सएप पर वायरल होना. मुझे याद है अभी हाल में मैंने अपने राखी भाई के साथ फोटो डाली थी. सोचिए मेरे और मेरे राखी भाई की तस्वीर वायरल होती है, लोग गंदे-गंदे ट्वीट करते हैं और मैसेज उसमें डालते हैं. मैंने इग्नोर किया क्योंकि मुझे सच पता है. लेकिन वो वो फोटो व्हाट्सएप पर कहीं से कहीं जाते हुए मेरी फैमिली तक पहुंच जाती है. मेरे पापा का मैसेज आता है, कि चिंता मत करो हम तुम्हारे साथ हैं. आप देख रही हैं कितना जहरीला साइकल है ये. इनमें से अधिकतर ट्रोल्स के नाम नहीं होते, चेहरे नहीं होते, अपनी कोई पहचान नहीं होती. एक दिन मैं बहुत परेशान थी. सोच रही थी कि क्या करना चाहिए. कि क्या मुझे अब ब्रेक लेना चाहिए. और मुझे अहसास हुआ कि क्या बीच में ऐसा कभी हुआ है कि ऑफिस से मैंने ऐसा चाहा हो? फैमिली से ऐसा चाहा हो कि भाई मुझे इससे अलग हो जाना है? क्योंकि मुझे अच्छा और बुरा दोनों झेलना पड़ रहा है? नहीं, ये तरीका नहीं है. ये आपको मानना पड़ेगा कि ये आपकी न्यू एज लाइफ का हिस्सा है.

ये (ट्रोल्स) लोग क्या तब आपकी लाइफ में थे जब आप स्ट्रगल कर रहे थे? नहीं. तो जब ये आपकी सक्सेस का हिस्सा नहीं हैं, तो ये आपको अपसेट करने का हिस्सा कैसे बन सकते हैं? जब मुझे ट्रोल करते हैं, और मैं उनको सरसरी निगाह से देखती हूं, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मैं बिल्कुल इग्नोरेंट हो जाऊं. मैं पढ़ती हूं सारे ट्वीट. लेकिन अच्छा अपने तक रखती हूं, बाकी नहीं. ट्रोल्स को सिर्फ एक नम्बर की तरह देखिए. जिस तरीके से कुछ लोग आपको रोकने की कोशिश करेंगे, उनमें से ये लोग भी हैं. लेकिन अच्छी बात ये है कि ये सिर्फ मशीन हैं. ये आपके सामने नहीं हैं. बेस्ट पार्ट ये है कि आप इनको अपनी उंगली के एक क्लिक से खत्म कर सकते हैं. जस्ट वन क्लिक. ये सिर्फ मशीन की तरह काम करते हैं.  इनके अंदर कोई सम्वेदना नहीं होती. एक ही काम होता है. ढूंढो और वार करो. और सताओ. ये सारा टाइम कम्प्यूटर के सामने ऐसे ही बैठे रहते हैं. ध्यान रखना है कि जैसे आपके शब्द पावरफुल हैं, उतनी ही आपकी इंडेक्स फिंगर पावरफुल है. इनको जितना ज्यादा टाइम दोगे, उतना ही बर्बाद होगा. इनको अपनी लाइफ के पांच सेकण्ड भी नहीं देने चाहिए. ये असल जिंदगी में चार शब्द भी नहीं बोलते होंगे. मान लीजिए मुझे दिन में पांच सौ गालियां पड़ती हैं. मैं पहले रैंडमली एक को रिप्लाई कर देती थी. तो जो वो पांच सौ गालियां होती थीं, वो हज़ार हो जाती थीं. वो जो बचे लोग हैं, उनको लगता है कि ये अटेंशन पाने का तरीका है. उनको लगता था कि इसको जितनी गन्दी गाली दोगे, उतना फेमस होने के चांसेज हैं. इसीलिए मैं कह रही हूं कि इनपर अपनी जिंदगी के पांच सेकंड भी खर्च नहीं करने चाहिए. ये सिर्फ इसलिए ऐसा कर रहे हैं ताकि आपकी सक्सेस का पॉइंट भर हिस्सा भी उनकी तरफ अट्रैक्ट हो गया तो उनकी तो जिंदगी बन जाएगी. अपनी लाइफ के महत्वपूर्ण पल मैं अपनी और समाज की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करूंगी. इसपर क्यों करूं. लेकिन हां, हर चीज़ को चुपचाप नहीं सहना चाहिए. जैसे मुझे लगता है कि कोई अपने वेरिफाइड अकाउंट का नाजायज़ इस्तेमाल करे, या ऐसी बातें फैलाए तो उस पर पलट कर जवाब ज़रूर देना चाहिए.

 

स्वाति चतुर्वेदी

राइटर-जर्नलिस्ट 

swati-chatur-750x500_062619053025.jpg                          तस्वीर: फेसबुक

जब आप जर्नलिस्ट बनते हैं, तो आप फैक्चुअल स्टोरीज प्रोवाइड करने के लिए बनते हैं, अपना निष्पक्ष मत रखने के लिए बनते हैं, अब्यूज या ट्रोल होने के लिए नहीं. जबकि एक्जैक्टली यही होता है. मैंने अपनी किताब (आई एम ट्रोल) में भी पड़ताल की थी इसकी, ये सब बहुत सलीके से प्रायोजित होता है. उन लोगों को चुप कराने के लिए जिनका अपना ओपिनियन है, reach है, और जिनका नजरिया किसी भी पॉलिटिकल पार्टी के मनचाहे नजरिए से अलग है. जब गुरमेहर कौर को बुरी तरह ट्रोल किया गया था, उसके बाद उसने बताया कि उसने और उसकी मम्मी ने मेरी बुक पढ़ी. और जब उन्हें पढ़कर पता चला कि ये ट्रोलिंग पर्सनल नहीं है, तो उन्हें सुकून मिला. कि इन ट्रोल्स को तो लोगों पर अटैक करने के पैसे मिलते हैं.

अभी दो महीने पहले संयुक्त राष्ट्र (यूएन- United Nations) ने एडवाइजरी जारी की थी मोदी सरकार को कि उन्हें सुरक्षा प्रोवाइड करनी चाहिए मुझे. ये देखते हुए कि मुझे किस तरह की जान की धमकियां मिल रही हैं. मुझे रोज़ कम से कम आधा दर्जन धमकियां मिलती हैं जान से मार देने की. ये काफी डरावना है, काफी होस्टाइल है. हमें पता है कि ये प्रायोजित है. मैं पिछले 20 सालों से जर्नलिस्ट हूं. मेरा काम बोलता है मेरे लिए. मैंने अपनी पूरी जिंदगी इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (खोजी पत्रकारिता) की है. मेरे लिए मेरा जॉब डिस्क्रिप्शन नहीं बदला है. सत्ता में बैठे लोगों का टॉलरेंस लेवल कम हो गया है. वो चाहते हैं कि जर्नलिस्ट्स चीयरलीडर बन जाएं. मैं वो नहीं बन सकती. मैं तो बहुत जिद्दी इंसान हूं, मैं खुद ये बात कहती हूं. और एक जर्नलिस्ट को जिद्दी होना ही चाहिए. कि चाहे कुछ भी हो, मुझे ये स्टोरी करनी ही है. अगर आपके पास न्यूज सेंस है तो स्टोरी भी आ जाएगी आपके पास.

नेहा दीक्षित

राइटर -जर्नलिस्ट 

neha-dixit-750x500_062619053114.jpg                         तस्वीर: नेहा दीक्षित

पहली बार मैंने भयंकर ट्रोलिंग का सामना तब किया जब 2013 में मैंने स्टोरी की थी आउटलुक के लिए. मुज़फ्फरनगर में मुस्लिम महिलाओं के सामूहिक बलात्कार पर. दंगों के दौरान ये बलात्कार हुए थे. ये बहुत अजीब था, क्योंकि इससे पहले भी कई साल पहले हमने इस तरह की हिंसा पर रिपोर्ट की थी. तस्करी, लैंगिक हिंसा जैसे विषयों पर मैंने पहले भी रिपोर्ट की थी. लेकिन इस तरह का रिस्पांस पहली बार आया था. मैं कुछ समझ ही नहीं पाई कि आखिर गलती कहां हुई. उसके बाद लोगों ने कहा कि इन मुस्लिम महिलाओं की तरह मेरा भी रेप होना चाहिए. मुझे तब ये नहीं पता था कि ये एक बहुत बड़ा ऑर्गनाइज्ड प्रयास था ट्रोलिंग का. मैंने ट्रोल्स को जवाब देना शुरू किया, उसकी वजह से ट्रोलिंग बढ़ गई. ये बहुत मुश्किल था. मुझे कम से कम एक से डेढ़ साल लगा खुद को इस के लिए तैयार करने में कि ये मुझे प्रभावित ना करे. तब से लेकर अभी तक भी जब मैं अपना ट्विटर खोलती हूं तो हर रोज़ दो सौ से ढाई सौ नोटिफिकेशंस होते हैं. जिसमें कभी Dick pics (पुरुषों के प्राइवेट पार्ट की तस्वीरें), कभी गालियां होती हैं. मैंने साइबर सेल में शिकायत की, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में भी बात की, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. मुझे एहसास हुआ कि इससे पार पाने का एक ही तरीका है, एक ही डिफेन्स मैकेनिज्म है. और वो है कि इससे प्रभावित होना छोड़ दो. मुझे काफी समय लगा खुद पर काम करने में. कि मैं खुद पर इसका असर ना पड़ने दूं कि दूसरे लोग क्या कह रहे हैं. शुरू-शुरू में था सब. अब फर्क नहीं पड़ता है.

हां तब डरावना लगता है जब मेरी फैमिली की तसवीरें लीक होती हैं. मेरे पति के साथ मेरी फोटो इस्तेमाल की गई थी. किसी ने मेरा घर का एड्रेस पब्लिक कर दिया था. वो कभी कभी जो ऑनलाइन थ्रेट ऑफलाइन तक पहुंचने का दम रखता है, वो थोड़ा डराता है. दो चीज़ें हैं. ट्रोलिंग इसलिए होती है क्योंकि सबसे पहले कि आप स्टोरीज किस तरह की कर रहे हैं. मुज़फ्फरनगर और RSS वाली स्टोरी पर काफी ट्रोलिंग हुई थी. इस तरह ट्रोलिंग करके वो ये जताना चाहते हैं कि किन विषयों पर हमें रिपोर्टिंग नहीं करनी है.ये जर्नलिस्ट्स के बीच सेल्फ सेंसरशिप लगाने का एक तरीका है. दूसरी चीज़ ये है कि 2013 से पहले किसी ने भी मेरी स्टोरी से असहमति जताई तो वो कोर्ट के पास गए. मुझे लीगल नोटिस मिला. आप कोर्ट के पास जाइए, सुबूत पेश करिए, फैक्ट्स पेश करिए. लेकिन अब लीगल केस नहीं हैं, ऑनलाइन बुलीइंग है. ऐसा प्रोसीजर नहीं है कि आप किसी से डिसअग्री कर रहे हैं तो आप उसको लीगली या कॉन्स्टिट्यूशनली चैलेन्ज करें, अब ये डिरेक्ट हो गया है. मैं हूं या दूसरे जर्नलिस्ट्स हैं, हमें इस मामले में ये प्रिविलेज मिली हुई है कि हम अंग्रेजी बोलते हैं और मेट्रो शहरों में रहते हैं. लेकिन कई ऐसी महिला जर्नलिस्ट्स हैं जो छोटे शहरों और गांव के इलाकों में हैं और उनकी ट्रोलिंग होती है तो कोई बात सामने नहीं आ पाती है. उनकी कोई मदद करने वाला भी नहीं होता है. इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.

ऑनलाइन हैरेसमेंट को लेकर कानून के पहलू धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं. लेकिन अभी भी इतने बेहतर नहीं हो पाए हैं कि पूर्ण सुरक्षा दे सकें, एक सेफ डिजिटल दुनिया बनाने में सहयोग दे सकें. ट्विटर ने हाल में ही कई फेक अकाउंट बंद किए. फेसबुक ने कई पेजेज़ को ब्लाक या डीएक्टिवेट किया. लेकिन ट्रोलिंग की मुसीबत कम नहीं हुई है. ऐसे समय में ऑनलाइन अपनी बात रखना अच्छे-अच्छों को डरा सकता है. उन्हें पीछे धकेल सकता है. लेकिन कुछ आवाजें बनी रहेंगी. डटी रहेंगी. वो विचारधाराओं के हर स्पेक्ट्रम से आएंगी, लेकिन जब तक भरोसा जिंदा है उन आवाजों पर, तब तक उम्मीद बनी है. उम्मीद कि दुनिया में लड़ने लायक बहुत कुछ है. बनने लायक बहुत कुछ है.

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