कौन है चंद्रिमा साहा, जो 85 साल पुराने नेशनल साइंस एकेडमी की पहली महिला अध्यक्ष बनी है
इनकी रिसर्च का इस्तेमाल कैंसर की दवाइयां बनाने के लिए हो चुका है.

चंद्रिमा साहा इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (INSA) की पहली महिला प्रेसिडेंट बन गई हैं. INSA के 85 सालों के इतिहास में पहली बार कोई महिला इस पोस्ट के लिए चुनी गई है. चंद्रिमा साहा के खाते में कई फर्स्ट दर्ज हैं. वो पश्चिम बंगाल की पहली महिला क्रिकेट टीम में शामिल थीं. चंद्रिमा साहा उस टीम की उप-कप्तान भी रहीं. तीन सालों तक. वो ऑल इंडिया रेडियो की पहली महिला क्रिकेट कमेंटेटर भी रह चुकी हैं.
INSA है क्या?
इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी की निदेशक के तौर पर 1 जनवरी 2020 उनका पहला दिन होगा. यह एकेडमी 1935 में शुरू हुई थी. देशभर में विज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए. यह संस्था देशभर के टॉप के वैज्ञानिकों की खोज-खबर रखती है. साथ ही देश में विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे बेहतरीन कामों को दुनिया में पहुंचाने का काम भी करती है. इस संस्था का पहला नाम नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेस ऑफ इंडिया था. नया नाम फरवरी 1970 में मिला.
Congratulations Dr. Chandima Shaha, President-elect ( 2020) @insa_academy . Known for her laboratory's work on cell-death in the context of parasitic diseases. Dr. Shaha is a former Director of @NImmunology . First woman President in @insa_academy >80 years. pic.twitter.com/7bOFJqRe9G
— Principal Scientific Adviser, Govt. of India (@PrinSciAdvGoI) August 3, 2019
पिता का सपना बेटी ने पूरा किया
14 अक्टूबर 1952. दिन मंगलवार. शम्भू साहा और करुणा साहा के घर एक बच्ची ने जन्म लिया. नाम रखा गया चंद्रिमा. पिता शम्भू साहा पेशे से फोटोग्राफर थे. मां करुणा साहा पेंटिंग करती थीं. नोबेल विजेता रवीन्द्रनाथ ठाकुर के आखिरी दिनों की तस्वीरें खींचकर शम्भू साहा मशहूर हुए. फोटोग्राफी उनका पहला सपना नहीं था. वो बचपन में साइंस की उलझी गलियों में सैर करना चाहते थे. उनका वो सपना पूरा नहीं हो सका. यह सपना उन्होंने अपनी बेटी की नजर से देखा. चंद्रिमा साहा उन नजरों पर खरी उतरीं. चंद्रिमा की मां भी कम साहसी न थी. वो कलकत्ता के आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स कॉलेज में पढ़ाई करने वाली शुरुआती महिलाओं में से एक थी. पेंटिंग के क्षेत्र में उनका अपना स्थान है. ब्रिटिश भारत में उन्होंने यूनियन जैक खींचकर उतार दिया था. जिसकी वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा था.
विज्ञान की तरफ झुकाव
चंद्रिमा को बचपन में एक टेलीस्कोप मिला था. उससे वो सूदूर अंतरिक्ष में तारों की हरकतों पर नजर रखती थी. फिर उन्हें मिला एक माइक्रोस्कोप और उसने उनके करियर की दशा और दिशा ही बदल दी. घर के आस-पास जितने भी पानी के सैंपल मिले. उन्होंने उसे माइक्रोस्कोप के पैनल पर जांचा. कलकत्ता यूनिवर्सिटी की मास्टर्स की डिग्री उनके पास है. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी में उनकी रिसर्च पूरी हुई. 1980 में. उसी साल वो अमेरिका की कंसास यूनिवर्सिटी पहुंची. पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च के लिए. 1984 तक न्यूयॉर्क में रहीं. फिर उनका भारत आगमन हुआ. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी में बतौर वैज्ञानिक. 2012 में चंद्रिमा साहा इसी इंस्टीट्यूट की डायरेक्टर बनीं. यह संस्था हमारे शरीर की बीमारियों को झेल सकने की क्षमता पर रिसर्च करती है.
CELL(सेल) जीवन की सबसे छोटी इकाई है. हमारा शरीर करोड़ों सेल्स से मिलकर बना है. हमारे शरीर में पुरानी सेल्स का मरना और नई सेल्स का बनना निरंतर चलता रहता है. चंद्रिमा साहा का काम इन्हीं सेल्स के मरने के पीछे की बारीकियों से जुड़ा है. इस रिसर्च का इस्तेमाल कैंसर की दवाईयां बनाने के लिए भी किया जा चुका है. वो कालाजार बीमारी पर भी अच्छा-खासा रिसर्च कर चुकी हैं. उनके खाते में 80 से ज्यादा रिसर्च पेपर दर्ज हैं.
पुरुष वैज्ञानिक कर देते थे नजरअंदाज
चंद्रिमा साहा ने अपनी जगह हासिल करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है. द प्रिंट से बातचीत में उन्होंने अपने करियर के शुरुआती दिनों की यादें साझा की. तब कोई भी महिला वैज्ञानिकों से हाथ तक नहीं मिलाता था. उन्हें उनके पुरुष साथी पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया करते थे. इन सबके बावजूद उन्होंने कभी अपना सपना पीछे नहीं छोड़ा. अब जाकर परिस्थितियां बदली हैं. इस पूरे सफर की वो साझेदार हैं. अहम गवाह भी.
1970 के दशक में बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन जोरों पर था. तब चंद्रिमा साहा कॉलेज में पढ़ाई कर रही थीं. आंदोलन की वजह से उनका ग्रेजएशन दो साल लंबा खिंचा था. तमाम अड़चनों के बाद भी चंद्रिमा साहा ने कई लाजवाब मुकाम छुए हैं. उनका यहां तक पहुंचना बहुतों को हिम्मत देता है. खासकर उनके लिए जो पहली बार फिसलने के बाद ही मंज़िल का रास्ता तय करने के ख्वाब को दफना आते हैं.
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