आज़ादी के दिन पढ़िए प्रेमचंद की कहानी 'यही मेरा वतन'

कहां देशभक्ति मैसेज फॉरवर्ड करने में लगी हो बहन. लो कहानी पढ़ो.

शिप्रा किरण शिप्रा किरण
अगस्त 14, 2018
प्रेमचंद

यही मेरा वतन

आज पूरे साठ बरस के बाद मुझे अपने वतन, प्यारे वतन का दर्शन फिर नसीब हुआ. जिस वक़्त मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ और क़िस्मत मुझे पच्छिम की तरफ़ ले चली, मेरी उठती जवानी थी. मेरी रगों में ताज़ा खून दौड़ता था और सीना उमंगों और बड़े-बडें इरादों से भरा हुआ था. मुझे प्यारे हिन्दुस्तान से किसी ज़ालिम की सख़्तियों और इंसाफ़ के ज़बर्दस्त हाथों ने अलग नहीं किया था. नहीं, ज़ालिम का जुल्म और क़ानून की सख्तियां मुझसे जो चाहे करा सकती हैं मगर मेरा वतन मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं. यह मेरे बुलंद इरादे और बड़े-बड़े मंसूबे थे जिन्होंने मुझे देश निकाला दिया. मैंने अमरीका में खूब व्यापार किया, खूब दौलत कमायी और खूब ऐश किए. भाग्य से बीवी भी ऐसी पायी जो अपने रूप में बेजोड़ थी, जिसकी खूबसूरती की चर्चा सारे अमरीका में फैली हुयी थी और जिसके दिल में किसी ऐसे ख़याल की गुंजाइश भी न थी जिसका मुझसे सम्बन्ध न हो. मैं उस पर दिलोजान से न्योछावर था और वह मेरे लिए सब कुछ थी. मेरे पांच बेटे हुए, सुन्दर,हृष्ट-पुष्ट और नेक, जिन्होंने व्यापार को और भी चमकाया और जिनके भोले,नन्हे बच्चे उस वक़्त मेरी गोद में बैठे हुए थे जब मैंने प्यारी मातृभूमि का अंतिम दर्शन करने के लिए क़दम उठाया. मैंने बेशुमार दौलत, वफ़ादार बीवी, सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े, ऐसी-ऐसी अनमोल नेमतें छोड़ दीं. इसलिए कि प्यारी भारतमाता का अन्तिम दर्शन कर लूं. मैं बहुत बुड्ढा हो गया था. दस और हों तो पूरे सौर बरस का हो जाऊं, और अब अगर मेरे दिल में कोई आरजू बाक़ी है तो यही कि अपने देश की ख़ाक में मिल जाऊं. यह आरजू कुछ आज ही मेरे मन में पैदा नहीं हुई है, उस वक़्त भी थी जब कि मेरी बीवी अपनी मीठी बातों और नाज़ुक अदाओं से मेरा दिल खुश किया करती थी. जबकि मेरे नौजवान बेटे सबेरे आकर अपने बूढ़े बाप को अदब से सलाम करते थे, उस वक़्त भी मेरे जिगर में एक कांटा-सा खटकता था और वह कांटा यह था कि मैं यहां अपने देश से निर्वासित हूं. यह देश मेरा नहीं है, मैं इस देश का नहीं हूं. धन मेरा था, बीवी मेरी थी, लड़के मेरे थे और जायदादें मेरी थीं, मगर जाने क्यों मुझे रह रहकर अपनी मातृभूमि के टूटे-फूटे झोंपड़े, चार छ: बीघा मौरूसी ज़मीन और बचपन के लंगोटिया यारों की याद सताया करती थी और अक्सर खुशियों की धूमधाम में भी यह ख़याल चुटकी लिया करता कि काश अपने देश में होता!

मगर जिस वक़्त बम्बई में जहाज़ से उतरा और काले कोट-पतलून पहने, टूटी-फूटी अंगे्रजी बोलते मल्लाह देखे, फिर अंग्रेजी  दुकानें, ट्रामवे और मोटर-गाड़ियां नज़र आयीं, फिर रबड़वाले पहियों और मुंह में चुरुट दाबे आदमियों से मुठभेड़ हुई,फिर रेल का स्टेशन, और रेल पर सवार होकर अपने गांव को चला, प्यारे गांव को जो हरी-भरी पहाडिय़ों के बीच में आबाद था, तो मेरी आंखों में आंसू भर आये. मैं खूब रोया, क्योंकि यह मेरा प्यारा देश न था, यह वह देश न था जिसके दर्शन की लालसा हमेशा मेरे दिल में लहरें लिया करती थीं. यह कोई और देश था. यह अमरीका था, इंग्लिस्तान था मगर प्यारा भारत नहीं.

ओल्ड बॉम्बे.फोटो क्रेडिट- getty ओल्ड बॉम्बे.फोटो क्रेडिट- getty

रेलगाड़ी जंगलों, पहाडों, नदियों और मैदानों को पार करके मेरे प्यारे गांव के पास पहुंची जो किसी ज़माने में फूल-पत्तों की बहुतायत और नदी-नालों की प्रचुरता में स्वर्ग से होड़ करता था. मैं गाड़ी से उतरा तो मेरा दिल बांसों उछल रहा था-अब अपना प्यारा घर देखूंगा, अपने बचपन के प्यारे साथियों से मिलूंगा. मुझे उस वक़्त यह बिल्कुल याद न रहा कि मैं नब्बे बरस का बूढ़ा आदमी हूं. ज्यों-ज्यों मैं गांव के पास पहुंचता था, मेरे क़दम जल्द-जल्द उठते थे और दिल में एक ऐसी खुशी लहरें मार रही थी जिसे बयान नहीं किया जा सकता. हर चीज़ पर आंखें फाड़-फाडक़र निगाह डालता-अहा, यह वो नाला है जिसमें हम रोज़ घोड़े नहलाते और खुद गोते लगाते थे, मगर अब इसके दोनों तरफ़ काँटेदार तारों की चहारदीवारी खिंची हुई थी और सामने एक बंगला था जिसमें दो-तीन अंग्रेज़ बन्दूकें लिए इधर-उधर ताक रहे थे. नाले में नहाने या नहलाने की सख़्त मनाही थी. गांव में गया और आंखें बचपन के साथियों को ढूंढ़ने लगीं मगर अफ़सोस वह सब के सब मौत का निवाला बन चुके थे और मेरा टूटा-फूटा झोंपड़ा जिसकी गोद में बरसों तक खेला था, जहां बचपन और बेफ़िक्रियों के मज़े लूटे थे, जिसका नक्शा अभी तक आंखों में फिर रहा है, वह अब एक मिट्टी का ढेर बन गया था. जगह ग़ैर-आबाद न थी. सैकड़ों आदमी चलते-फिरते नज़र आये, जो अदालत और कलक्टरी और थाने-पुलिस की बातें कर रहे थे. उनके चेहरे बेजान और फ़िक्र में डूबे हुए थे और वह सब दुनिया की परेशानियों से टूटे हुए मालूम होते थे. मेरे साथियों के से हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर, गोरे-चिट्टे नौजवान कहीं न दिखाई दिये. वह अखाड़ा जिसकी मेरे हाथों ने बुनियाद डाली थी, वहां अब एक टूटा-फूटा स्कूल था और उसमें गिनती के बीमार शक्ल-सूरत के बच्चे जिनके चेहरों पर भूख लिखी थी, चिथड़े लगाये बैठे ऊंघ रहे थे. नहीं, यह मेरा देश नहीं है. यह देश देखने के लिए मैं इतनी दूर से नहीं आया. यह कोई और देश है, मेरा प्यारा देश नहीं है.

ट्राम. फोटो क्रेडिट- getty  ट्राम. फोटो क्रेडिट- getty

उस बरगद के पेड़ की तरफ़ दौड़ा जिसकी सुहानी छाया में हमने बचपन के मज़े लूटे थे, जो हमारे बचपन का हिण्डोला और ज़वानी की आरामगाह था. इस प्यारे बरगद को देखते ही रोना-सा आने लगा और ऐसी हसरतभरी, तड़पाने वाली और दर्दनाक यादें ताज़ी हो गयीं कि घण्टों ज़मीन पर बैठकर रोता रहा. यही प्यारा बरगद है जिसकी फुनगियों पर हम चढ़ जाते थे, जिसकी जटाएं हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारी दुनिया की मिठाइयों से ज्यादा मज़ेदार और मीठे मालूम होते थे. वह मेरे गले में बांहें डालकर खेलने वाले हमजोली जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, वह कहां गये? आह, मैं बेघरबार मुसाफ़िर क्या अब अकेला हूं? क्या मेरा कोर्ई साथी नहीं. इस बरगद के पास अब थाना और पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर कोई लाल पगड़ी बांधे बैठा हुआ था. उसके आसपास दस-बीस और लाल पगड़ीवाले हाथ बांधे खड़े थे और एक अधनंगा अकाल का मारा आदमी जिस पर अभी-अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था. मुझे ख़याल आया, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है, यह योरप है, अमरीका है, मगर मेरा प्यारा देश नहीं है, हरगिज़ नहीं.

इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला जहां शाम को पिताजी गांव के और बड़े-बूढ़ों के साथ हुक्का पीते और हंसी-दिल्लगी करते थे. हम भी उस टाट पर क़लाबाजियां खाया करते. कभी-कभी वहां पंचायत भी बैठती थी जिसके सरपंच हमेशा पिताजी ही होते थे. इसी-चौपाल से लगी हुई एक गोशाला थी. जहां गांव भर की गायें रक्खी जाती थीं और हम यहीं बछड़ों के साथ कुलेलें किया करते थे. अफ़सोस, अब इस चौपाल का पता न था. वहां अब गांव के टीका लगाने का स्टेशन और एक डाकख़ाना था. उन दिनों इसी चौपाल से लगा हुआ एक कोल्हाड़ा था जहां जाड़े के दिनों मे ऊख पेरी जाती थी और गुड़ की महक से दिमाग़ तर हो जाता था. हम और हमारे हमजोली घण्टों गंडेरियों के इन्तज़ार में बैठे रहते थे और गंडेरियां काटने वाले मज़दूरो के हाथों की तेज़ी पर अचरज करते थे, जहां सैकड़ों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिलाकर पिया था. यहां आसपास के घरों से औरतें और बच्चे अपने-अपने घड़े लेकर आते और उन्हें रस से भरवाकर ले जाते. अफ़सोस, वह कोल्हू अभी ज्यों के त्यों गड़े हुए हैं मगर देखो, कोल्हाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटने वाली मशीन है और उसके सामने एक तम्बोली और सिगरेट की दूकान है. इन दिल को छलनी करने वाले दृश्यों से दुखी होकर मैंने एक आदमी से जो सूरत से शरीफ़ नज़र आता था, कहा-बाबा, मैं परदेशी मुसाफ़िर हूं, रात भर पड़े रहने के लिए मुझे जगह दे दो. इस आदमी ने मुझे सर से पैर तक घूरकर देखा और बोला-आगे जाओ, यहां  जगह नहीं है. मैं आगे गया और यहां से फिर हुक्म मिला- आगे जाओ. पांचवी बार सवाल करने पर एक साहब ने मुठ्ठी भर चने मेरे हाथ पर रख दिये. चने मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़े और आंखों से आंसू  बहने लगे. हाय, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है. यह हमारा मेहमान और मुसाफ़िर की आवभगत करने वाला प्यारा देश नहीं, हरगिज़ नहीं.

इंडिया गेट  इंडिया गेट

मैंने एक सिगरेट की डिबिया ली और एक सुनसान जगह पर बैठकर बीते दिनों की याद करने लगा कि यकायक मुझे उस धर्मशाला का ख़याल आया जो मेरे परदेश जाते वक़्त बन रहा था. मैं उधर की तरफ़ लपका कि रात किसी तरह वहीं काटूं, मगर अफ़सोस, हाय अफ़सोस, धर्मशाला की इमारत ज्यों की त्यों थी, लेकिन उसमें ग़रीब मुसाफ़िरों के रहने के लिए जगह न थी. शराब और शराबखोरी, जुआ और बदचलनी का वहाँ अड्डा था. यह हालत देखकर बरबस दिल से एक ठण्डी आह निकली, मैं ज़ोर से चीख़ उठा-नहीं-नहीं और हज़ार बार नहीं यह मेरा वतन, मेरा प्यारा देश, मेरा प्यारा भारत नहीं है. यह कोई और देश है. यह योरप है, अमरीका है, मगर भारत हरिगज नहीं.

भारत का एक गांव भारत का एक गांव

अंधेरी रात थी. गीदड़ और कुत्ते अपने राग अलाप रहे थे. मैं दर्दभरा दिल लिये उसी नाले के किनारे जाकर बैठ गया और सोचने लगा कि अब क्या करूं? क्या फिर अपने प्यारे बच्चों के पास लौट जाऊं और अपनी नामुराद मिट्टी अमरीका की ख़ाक में मिलाऊं? अब तो मेरा कोई वतन न था, पहले मैं वतन से अलग ज़रूर था मगर प्यारे वतन की याद दिल में बनी हुई थी. अब बेवतन हूं, मेरा कोई वतन नहीं. इसी सोच-विचार में बहुत देर तक चुपचाप घुटनों में सिर दिये बैठा रहा. रात आंखों ही आंखों में कट गयी, घडिय़ाल ने तीन बजाये और किसी के गाने की आवाज़ कानों मे आयी. दिल ने गुदगुदाया, यह तो वतन का नग्मा है, अपने देश का राग है. मैं झट उठ खड़ा हुआ. क्या देखता हूं कि पन्द्रह-बीस औरतें, बूढ़ी, कमज़ोर, सफेद धोतियाँ पहने, हाथों में लोटे लिये स्नान को जा रही हैं और गाती जाती हैं-

प्रभु, मेरे अवगुन चित न धरो

इस मादक और तड़पा देने वाले राग से मेरे दिल की जो हालत हुई उसका बयान करना, मुश्किल है. मैंने अमरीका की चंचल से चंचल, हंसमुख से हंसमुख सुन्दरियों की अलाप सुनी थी और उनकी ज़बानों से मुहब्बत और प्यार के बोल सुने थे जो मोहक गीतों से भी ज्यादा मीठे थे. मैंने प्यारे बच्चों के अधूरे बोलों और तोतली बानी का आनन्द उठाया था. मैंने सुरीली चिडिय़ों का चहचहाना सुना था. मगर जो लुत्फ़, जो मज़ा, जो आनन्द मुझे गीत में आया वह जि़न्दगी में कभी और हासिल न हुआ था. मैंने खुद गुनगुनाना शुरू किया-

प्रभु, मेरे अवगुन चित न धरो

तन्मय हो रहा था कि फिर मुझे बहुत से आदमियों की बोलचाल सुनाई पड़ी और कुछ लोग हाथों में पीतल के कमण्डल लिये शिव शिवहर, हर गंगे गंगे, नारायण-नारायण कहते हुए दिखाई दिये. मेरे दिल ने, फिर गुद-गुदाया, यह तो मेरे देश प्यारे देश की बाते हैं. मारे खुशी के दिल बाग़-बाग हो गया . मैं इन आदमियों के साथ हो लिया और एक दो तीन चार पांच छ: मील पहाड़ी रास्ता पार करने के बाद हम उस नदी के किनारे पहुंचे जिसका नाम पवित्र है, जिसकी लहरों में डुबकी लगाना और जिसकी गोद में मरना हर हिन्दू सबसे बड़ा पुण्य समझता है. गंगा मेरे प्यारे गांव से छ: सात मील पर बहती थी और किसी ज़माने में सुबह के वक़्त घोड़े पर चढक़र गंगा माता के दर्शन को आया करता था. उनके दर्शन की कामना मेरे दिल में हमेशा थी. यहां मैंने हज़ारों आदमियों को इस सर्द, ठिठुरते हुए पानी में डुबकी लगाते देखा. कुछ लोग बालू पर बैठे गायत्री मन्त्र जप रहे थे. कुछ लोग हवन करने में लगे हुए थे. कुछ लोग माथे पर टीके लगा रहे थे. कुछ और लोग वेदमन्त्र सस्वर पढ़ रहे थे. मेरे दिल ने फिर गुदगुदाया और मैं ज़ोर से कह उठा- हां हां, यही मेरा देश है, यही मेरा प्यारा वतन है, यही मेरा भारत है. और इसी के दर्शन की, इसी की मिट्टी में मिल जाने की आरजू मेरे दिल में थी.

मैं खुशी में पागल हो रहा था. मैंने अपना पुराना कोट और पतलून उतार फेंका और जाकर गंगा माता की गोद में गिर पड़ा, जैसे कोई नासमझ, भोला-भाला बच्चा दिन भर पराये लोगों के साथ रहने के बाद शाम को अपनी प्यारी माँ की गोद में दौडक़र चला आये, उसकी छाती से चिपट जाए. हां, अब अपने देश में हूं.  यह मेरा प्यारा वतन है, यह लोग मेरे भाई , गंगा मेरी माता है.

मैंने ठीक गंगाजी के किनारे एक छोटी सी झोंपड़ी बनवा ली है और अब मुझे सिवाय रामनाम जपने के और कोई काम नहीं. मैं रोज़ शाम-सबेरे गंगा-स्नान करता हूं और यह मेरी लालसा है कि इसी जगह मेरा दम निकले और मेरी हड्डियाँ गंगामाता की लहरों की भेंट चढ़ें.

आधुनिक भारत की एक तस्वीर. फोटो क्रेडिट- getty आधुनिक भारत की एक तस्वीर. फोटो क्रेडिट- getty

 मेरे लड़के और मेरी बीवी मुझे बार-बार बुलाते हैं, मगर अब मैं यह गंगा का किनारा और यह प्यारा देश छोडक़र वहां नहीं जा सकता. मैं अपनी मिट्टी गंगाजी को सौंपूंगा. अब दुनिया की कोई इच्छा, कोई आकांक्षा मुझे यहां से नहीं हटा सकती क्योंकि यह मेरा प्यारा देश, मेरी प्यारी मातृभूमि है और मेरी लालसा है कि मैं अपने देश में मरूं.

 

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