गले लगाने वाला दिन मनाएं न मनाएं, गले लगाने के फायदे तो जान लीजिए
हमारे यहां के पापा लोग अपनी औलादों को गले लगाने से इतना कतराते काहे हैं?

तारीख 6 अगस्त 2015. जगह मुंबई की चौपाटी. शाम चार बजे का वक़्त. एक आदमी आता है. सफ़ेद कुर्ते-पाजामे में. सर पर जालीदार टोपी. आंखों पर पट्टी बंधी हुई. वो अपने बराबर में एक तख्ती रखता है और बाहें पसार कर खड़ा हो जाता है. तख्ती पर लिखा है,
"मैं एक मुस्लिम हूं और आप पर भरोसा करता हूं. क्या आप मुझपर इतना भरोसा करते हैं कि मुझे गले लगा सकें?"
आगे जो हुआ वो सब वायरल है. उस शाम कईयों ने आगे बढ़कर उस शख्स को गले लगाया. अखबारों, वेबसाइटों ने उसपर ख़बरें बनाईं. सोशल मीडिया पर मज़िम मिल्ला (उस बंदे का नाम) ट्रेंड करने लगा. जो बात हज़ारों-हज़ार आर्टिकल लिखकर नहीं समझाई जा सकती थी, वो एक सिंपल प्रयोग से समझ आ गई. जब समुदायों के बीच अविश्वास का माहौल चरम पर हो, उसे कम करने की किसी भी कोशिश की अपनी अहमियत है. भले ही वो कितनी ही छोटी क्यों न हो? इतिहास उस गिलहरी को भी याद रखता है जिसने रामसेतु की नींव में कंकड़ भरे थे. बहरहाल, गले लगाने की एक मासूम अपील ने लोगों के दिल को छुआ. सोचिए कितनी ताकत है इस जेस्चर में. किसी को गले लगाना उसमें ऊर्जा भर देने जैसा है. किसी को गले लगाना भरोसे का आदान-प्रदान है.
मज़िम मिल्ला को भरपूर प्यार मिला उस दिन.
गले लगाना. वो क्रिया, जिसके लिए फ़रवरी के महीने में एक दिन ही आरक्षित कर दिया गया है. अब अपन इस बहस में तो घुसेंगे नहीं कि इन सारे दिनों का कोई औचित्य है भी या नहीं. जिन्हें मनाना है मनाएं, न मनाना हो तो छोड़ दें. अपन बात करेंगे गले लगने-लगाने की. कि कैसे किसी का गले लगा लेना सांत्वना की, स्नेह की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है.
# किन वजहों से लगते हैं गले?
यूं तो अपने प्रियजनों के गले लगना बेमतलब भी हो जाए तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन फिर भी मोटे तौर पर कुछेक हालात हैं जिनमें एक इंसान दूसरे इंसान के गले लगता है.
- किसी को बधाई देते वक़्त
- दुःख में डूबे किसी अपने को सांत्वना देते वक़्त
- किसी को अलविदा कहते वक़्त
- किसी अज़ीज़ का स्वागत करते वक़्त
- शाबाशी में किसी की पीठ ठोकते वक़्त (ख़ास तौर से स्पोर्ट्स में)
इसके अलावा जिस्मानी इंटिमेसी का पहला स्टेप, किसी को गले लगाना ही है. फिर बचा सोशल कॉज़ के लिए इसे टूल की तरह इस्तेमाल करना. जैसा कि मुंबई में मज़िम मिल्ला ने किया.
# भारत में गले लगना
हमारे भारत में गले लगना-लगाना इतना सहज कभी नहीं रहा. ख़ास तौर से तब, जब गले लगने वाले दो अलग-अलग जेंडर से ताल्लुक रखते हों. मेट्रो शहरों में अब जाकर कहीं थोड़ी बहुत सहजता आ पाई है. पब्लिक प्लेस में गले मिलते लड़का-लड़की काबिले-कबूल हो गए हैं. ये और बात है कि दर्शकों में एकाध अंकल/आंटी ऐसे ज़रूर होते हैं, जिनकी त्यौरियां चढ़ी होती हैं. गांवों-कस्बों में तो ये अब भी दुर्लभ नज़ारा है. प्रेमी जन तो छोड़िए, दोस्त या भाई-बहन तक पब्लिकली गले मिलने से कतराते नज़र आएंगे. यहां एक बार फिर रिमाइंडर कि हमें 'संस्कृति बनाम आधुनिकता' जैसा नैरेशन नहीं खड़ा करना है. हम बस गले लगने की प्रथा के फुटमार्क्स तलाश रहे हैं.
लड़का-लड़की का गले मिलना तो छोड़िए, हमारे यहां बाप-बेटे का गले मिलना भी कम देखी-सुनी गतिविधि है. गले लगना एक तरह से रिश्ते में सहजता होने का घोषणापत्र होता है. हमारे यहां बाप-बेटे में ऐसी सहजता का एकदम ही अभाव न सही, प्रतिशत बेहद कम ज़रूर है. न जाने कौन सी चीज़ है जो पिताओं को अपने औलाद का दोस्त बनने से रोकती है. प्रेम की, फ़िक्र की मात्रा चाहे जितनी हो उसे व्यक्त करने में एक अनदेखी झिझक साफ़ महसूस होती है. हालांकि पिछले दो-तीन दशकों में इस सूरतेहाल में काफी तब्दीली आ गई है. और लगातार आती जा रही है. प्रतिशत बढ़ रहा है. पिताओं से लिपटा रहने वाला गंभीरता का आवरण चटक रहा है.
यकीन जानिए, 'पैर छूने के लिए झुकी संतान को उठाकर गले लगाते पिता' बेहद मनमोहक नज़ारा होता है.
# जादू की झप्पी
गले लगना वाकई जादू की झप्पी जैसा गुणकारी है. कोई विरला ही होगा जिसे 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' का वो अतिभावुक सीन याद न हो. तब, जब मुन्ना अस्पताल के सफाई कर्मचारी को कहता है, "ऐ मामू, जादू की झप्पी दे डाल और बात खत्तम." मुन्ना के गले लगने के बाद उस बुज़ुर्ग सफाईकर्मी के चेहरे पर फैला संतोष इतना जेन्युइन था कि आप हाथ बढ़ाकर छू लें. इतनी ही ताकत है इस सिंपल सी प्रक्रिया में.
मुन्नाभाई की 'झप्पी थेरपी' हिट रही थी.
गले मिलना मनुष्य जीवन की चुनिंदा फंडामेंटल ज़रूरतों में से एक का एक्सटेंडेड वर्जन है. स्पर्श का. कहते हैं कि नवजात बच्चे अपनी मां का स्पर्श पहचान सकते हैं. शुरुआती दिनों में एक पनाहगाह के तौर पर काम आता ये स्पर्श आगे चलकर राहत दिलाने वाली थेरपी में बदल जाता है. इसीलिए मां के गले लगना किसी भी उम्र में आत्मा तक को खुश कर देने वाला अनुभव होता है. हम सबने अनुभव की है वो ऊष्मा.
मानव जीवन की सबसे अनमोल भावना प्रेम का अभिन्न हिस्सा है गले मिलना. गर्मजोशी से किसी अपने के गले मिलने के बाद दुनिया की तमाम मुश्किलें गायब भले ही न हो, उनसे भिड़ जाने का हौसला तो मिलता ही है. यूं ही नहीं लता दीदी का गाया गाना लगभग हर भारतवासी का प्रिय गीत है. "लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो."
मुश्किल दौर में अज़ीज़ों की पहचान का एक ज़रिया भी है ये. रोते हुए कोई पीठ पर हाथ फेर देने वाला कोई आपसे हमदर्दी रख रहा होता है लेकिन अज़ीज़ वो होता है जो खींचकर आपको गले लगाए और खुद भी रो दे.
# साइंस भी मानती है इसका जलवा
विज्ञान भी गले लगने के फायदे गिनवाता नहीं थकता. एक स्टडी हुई. तकरीबन दो सौ लोगों को दो ग्रुप्स में बांटा गया. एक था 'वॉर्म कॉन्टैक्ट ग्रुप' और दूसरा 'नॉन कॉन्टैक्ट ग्रुप'. पहले ग्रुप में 10 मिनट तक लोग हाथ थामे बैठे रहें और आखिर के 20 सेकंड में एक-दूसरे को गले लगाया. दूसरे ग्रुप में लोगों को किसी भी तरह के फिज़िकल कॉन्टैक्ट की मनाही थी. बाद में जब दोनों ग्रुप्स का एक छोटा सा टेस्ट लिया गया तो पहले वाले ग्रुप में नेगेटिविटी की मात्रा बेहद कम, न के बराबर पाई गई. दूसरे ग्रुप के लोगों के पास शिकायतें ज़्यादा थीं. पहले ग्रुप से लगभग हर एक ने किसी अजनबी से गले लगने को अच्छा अनुभव बताया. उनका ब्लड प्रेशर भी काबू में पाया गया.
कई मनोवैज्ञानिक एहसासे-कमतरी (हीन भावना) के शिकार अपने मरीज़ों को बाकायदा सलाह देते हैं कि वो जीवन में फिजिकल ह्युमन कॉन्टैक्ट बढ़ाएं. लोगों से खुलकर गले मिलें. किसी औषधि जितना ही असरदार है ये नुस्खा.
# क्यों मिलें गले?
क्यों मिलें? कितनी ही वजहें हैं.
- अफेक्शन ज़ाहिर करने का कारगर ज़रिया है.
- फ्री है.
- आसान है.
- जल्दी से हो जाता है.
- सेफ है.
और सबसे ज़रूरी बात, काम करता है. बढ़िया रिज़ल्ट्स देता है. तो होली हो, दीवाली हो, क्रिसमस हो या ईद. अपने अज़ीज़ों के गले मिलते रहिए. इनमें से कुछ न भी हो तो भी. गले मिलने के लिए मुक़र्रर किए हुए दिन भी और उसके बाद भी. ताकि आप भी अपने किसी अज़ीज़ से किसी दिन कह सकें,
"हम अपनी रूह तेरे जिस्म में छोड़ आए हैं,
तुझे गले से लगाना तो एक बहाना था"
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