हम क्यों हकलाते हैं और इसपे कैसे काबू पाना चाहिए
बोलने में तकलीफ़ होना कोई गुनाह नहीं कि आप बुरा महसूस करें.

रिया के कॉलेज का पहला दिन था. वो बहुत नर्वस थी. उसे सबके सामने अपना इंट्रोडक्शन देना था. पूरे क्लास के सामने. जब रिया की बारी आई तो उसके हाथ बुरी तरह कांप रहे थे. उसने बोलना शुरू किया. कुछ ही सेकंड के अंदर क्लास में हसने की आवाज़ें शुरू हो गई. वजह थी रिया का हकलाना. उसने अपनी बात कहने के लिए एक्स्ट्रा एक मिनट लग रहा था. उसका रोना छूट गया. पर ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था. हकलाने की आदत उसे बचपन से थी. तब स्कूल में बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते थे. उसने बहुत कोशिश की पर उसकी ये आदत नहीं छूटी.
अब उसे लोगों के सामने, पब्लिक में बोलने में डर लगता है. वो ऐसी जगह जाना ही अवॉयड करती है जहां उसे बोलना पड़े. पर ये उसकी सफ़लता में अड़चन डाल रहा है. दरअसल हकलाने की आदत बहुत सारे लोगों की ज़िन्दगी में अड़चन डालता है. अगर आप भी उनमें से एक हैं तो परेशान मत होइए.

ये समझना ज़रूरी है कि हकलाना कोई बीमारी नहीं, एक सिचुएशन है. और उसके बारे में और जानने के लिए हमने ऐ.पी सिंह से बात की. ये दिल्ली में ‘स्पीच थेरेपी सेंटर’ में एक ‘स्पीच थेरापिस्ट’ हैं.
हम अक्सर ये सोचते हैं कि कोई क्यों हकलाता है. इसके पीछे कुछ वजहें होती हैं:
1. हकलाना ज़्यादातर चार से सात साल की उम्र में शुरू होता है.
2. बच्चा अकसर दूसरों को कॉपी करने की कोशिश करता है. लोग जिस तरह बात करते हैं, वो वैसे ही बात करने की कोशिश करने लगता है. ठीक से कर नहीं पता. इसलिए अटकने लगता है. कभी-कभी ये’ उसकी आदत में शुमार हो जाता है.
3. एक और वजह हो सकती है बीमारी. जैसे टाईफॉइड. इसकी बजह से भी स्पीच में प्रॉब्लम आती है.
4. मानसिक वजहें तो हैं ही. जैसे किसी बात का डर. बहुत घबराना. अपनी फीलिंग्स खुलकर शेयर न करना. ऐसा देखा गया है कि जो लोग बहुत इमोशनल या सेंसिटिव होते हैं वो ज़्यादा हकलाते हैं.

5. अगर कोई इंसान बचपन में नहीं हकलाता था, पर बड़े होने के बाद ऐसा होना शुरू हो गया है तो दो कारण हो सकते हैं. कोई एक्सीडेंट या कोई ऐसी घटना जिसने उसे मानसिक रूप से परेशान कर दिया हो. पर ज़्यादातर ये तभी मुमकिन है कि जब हकलाने की आदत बचपन में रही हो. सिर्फ़ कुछ शब्द बोलते-बोलते अटक जाना हकलाना नहीं होता.
हकलाना कब शुरू होता है?
हकलाना neuro-muscular co-ordination की दिक्कत है. मतलब जब दिमाग में आने वाले ख़याल और ज़बान एक साथ न चलें.
इसका इलाज क्या है?
अव्वल तो ये जानना ज़रूरी है कि हकलाने की आदत ठीक की जा सकती है. इसके लिए स्पीच थेरेपी की ज़रुरत होती है.
पर ये स्पीच थेरेपी क्या होती है?
1. इसमें सबसे पहले प्रॉब्लम का पता लगाया जाता है. ये देखा जाता है कि इंसान किन परिस्थितियों में हकलाता है.
2. उसके बाद, उस प्रॉब्लम की लेवल नापी जाती है. कि वो कितनी सिवियर है. उसके बाद ये सोचा जाता है कि इलाज कैसे किया जाए.
3. ये भी पता लगाया जाता है कि इंसान वाकई में हकला भी रहा है या सिर्फ़ शब्द बोलने में उसे दिक्कत होती है.

4. इसका पता लगाया जाता है उसके चेहरे पर आने वाले हाव-भाव से. क्योंकि हकलाते समय इंसान ज़ोर लगा रहा होता है. फिर भी शब्द मुहं से बाहर नहीं आ रहे होते हैं. और ये ज़ोर चेहरे पर दिख जाता है.
5. उसकी आंखें बंद होने लगेंगी. होंठ झनझनाएगें. और शब्द मुहं में अटकेंगे.
इसके बाद तय होता है इलाज. जो कुछ स्टेप्स में किया जाता है.
1. शुरुवात होती है स्पीच ऑर्गन के ऊपर काम करने से. मतलब वो सारे पुरज़े को बोलने में इंसान की मदद करते हैं.
2. अमूमन पढ़ने की स्पीड, सुनने की स्पीड, और बोलने की स्पीड में फ़र्क होता है.
3. इंसान पढ़ता थोड़ा धीरे है. बोलता थोड़ा तेज़ है. और समझाकर बात करने में उसे समय लगता है. इन तीनों चीज़ों की स्पीड मॉनिटर की जाती है.
4. ग्रुप सेशंस भी होते हैं. उसमें दूसरों के सामने बोलने की झिझक मिटाई जाती है.

5. ये सिखाया जाता है कि धीरे-धीरे बोलो. जिस पहले सोचो, फिर बोलो.
6. एक बार इंसान बिना हकलाये बोलना शुरू कर दे तो उसे लंबे समय तक मेनटेन करने की कोशिश की जाती है.
7. कुछ समय इसके ऊपर काम करने के बाद हकलाने की आदर छूट सकती है.
स्पीच यानी बोलने में तकलीफ होना कोई बीमारी नहीं है. बस एक अवस्था है. हममें से कोई भी अवस्था किसी को भी हो सकती है. जब हम उनका मजाक उड़ाते हैं जो उस तरह नहीं बोल पाते जिसे 'नॉर्मल' माना जाता है, हम असल में केवल अपनी फूहड़ता और बेवकूफ़ी का परिचय देते हैं.
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