जब छोटे शहर का एक लड़का दिल्ली मेट्रो के लेडीज़ कोच में चढ़ गया
और कैसा रहा 'दिल्ली की लड़कियों' के साथ का अनुभव.
8 जून 2018. फ्राइडे ईवनिंग. वीकेंड आरंभ.
इंटर्नशिप के सिलसिले में करीब दो महीने मैं नोएडा में रहा. लगभग हर वीकेंड कहीं आउट ऑफ स्टेशन घूमने निकल जाया करता था. इस वीकेंड मेरा अमृतसर जाने का प्लान था. दिल्ली से अमृतसर की बस में सीट पहले से बुक कर रखी थी. और लाल किले के पास नागपाल डेरी से बस रात 10:30 बजे रवाना होनी थी.
फ्राइडे की शाम को ऑफिस से पी.जी. पहुंचते-पहुंचते 8:00 बज गए. फटाक से आधे घंटे में पैकिंग की, ए.टी.एम. से पैसे निकाले और सवारी ऑटो पकड़ने के लिए फोर्टिस हॉस्पिटल पहुंच गया. अब स्टोरी में आगे बढ़ने से पहले आपका कुछ बातें जान लेना ज़रूरी है. मैं नोएडा में सेक्टर-62 में रहता हूं. यहां से सबसे नज़दीक नोएडा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन है. यहां से लाल क़िला पहुंचने में क़रीब डेढ़ घंटा लगता है. और फोर्टिस हॉस्पिटल (सेक्टर-62) से सिटी सेंटर पहुंचने में लगता है पौन घंटा. हिसाब लगाया जाए तो अपन लेट चल रहे थे.
शायद 9:15 तक सिटी सेंटर पहुंचा होउंगा. बहुत जल्दी में था तो टाइम पर ध्यान नहीं गया, इसीलिए शायद. जल्दी-जल्दी स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर टिकट काउंटर के पास पहुंचा. गनीमत से उस दिस भीड़ कम थी इसीलिए लाइन में नहीं लगना पड़ा. टिकट लेकर प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा. एस्केलेटर से उपर पहुंचा तो ट्रेन सामने खड़ी दिखी. बिना इधर-उधर देखे जिस डिब्बे का दरवाज़ा एस्केलेटर के सामने खुला दिखा उस में घुस गया.
काफ़ी सीटें खाली थीं. एक नज़र देखा कि कौन सी सीट पर महिलाएं या बुज़ुर्ग का हरे रंग का स्टीकर नहीं लगा है और एक कोने की सीट पकड़ कर बैठ गया. मेरे बाजू वाली सीट पर एक और लड़का बैठा था. थोड़ी बातचीत हुई. पता चला दिल्ली से ही है. अपन ने थोड़ी बात कर के शांत बैठना चाहा. लेकिन भाई लगा बोलने. अपने बारे में सब बताए जा रहा है. भाई कुछ बातें आप भी पढ़ें -
"नौकरी सही चीज़ है. बिजनिस-फिजनिस में मत पड़ियो कभी. मेरे दोस्त का सब चौपट हो गया. ये देख मेरे पास आई-फ़ोन है. मैं 50000 से कम के फ़ोन नहीं खरीदता कभी. मेरी सिम का नंबर देख, एक लाख रुपये की सिम है."
मुझे अंदाज़ा लगने ही वाला था कि भाई ने खुद ही बता दिया - "मैंने दारू पी रखी है."
जैसे-जैसे ट्रेन आगे बढ़ रही थी, भीड़ भी बढ़ती जा रही थी. सिटी सेंटर पहला स्टेशन है इसीलिए कम भीड़ रहती है. जैसे ही बोटेनिकल गार्डन स्टेशन आया थोक में भीड़ डिब्बे में घुस गई. ट्रेन आगे बढ़ी. थोड़ी देर में एक लड़की हमारे पास आई और थोड़ी सख्ती भरी आवाज़ में बोली -
"एक्सक्यूज़ मी, ये लेडीज़ कंपार्टमेंट है आप लोग प्लीज़ ये सीट खाली कर दीजिए."
बाजू वाला भाई तो तुरंत खड़ा हो गया, मैंने थोड़ा इधर-उधर देखा और बेमन से मैं भी खड़ा हो गया.
खड़े-खड़े मेरा ध्यान 'महिलाएं' ग्रीन स्टीकर वाली रिज़र्व्ड सीट पर गया. मुझे एकदम से ठगा हुआ महसूस हुआ. मैं उस लड़की के पास गया और उसके सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया.
"अगर ये लेडीज़ कंपार्टमेंट है तो फिर इसमें महिलाओं के लिए अलग से सीट क्यों रिज़र्व्ड है"
जिसके भी कान में मेरा सवाल पड़ा वो चौंककर रह गई. सामने बैठी लड़की ने थोड़ा सोचा फिर ये जवाब दिया -
"अ ब बब... क्या पता. लेकिन पहला डिब्बा तो लेडीज़ ही होता है."
मैंने भी आस-पास देखा तो मेरे और नशे में टुन्न सज्जन के अलावा डिब्बे में कोई और पुरुष नहीं खड़ा था. कुछ जेंट्स लेडीज़ कंपार्टमेंट में तो थे लेकिन एकदम कोने में घुसके खड़े थे. सब मेरे खड़े किए सवाल का जवाब सोच ही रहे थे कि अनाउंसमेंट हुई - अगला स्टेशन सेक्टर-18 है. नशे में टुन्न सज्जन को अचानक याद आया -
"मुझे तो बोटेनिकल गार्डन पर उतरना था."
मैंने सुझाया कि सेक्टर-18 पर उतर कर वापस बोटेनिकल गार्डन के लिए ट्रेन पकड़ लेना. जैसे ही सेक्टर-18 आया, भाईसाहब बिना किसी जल्दबाजी के एकदम बेफ़िक्री के साथ ट्रेन से उतर गए.
सेक्टर-18 से और ज़्यादा सवारी चढ़ी. पूरी सीटें तो पहले ही भर चुकी थी, अब खड़े होने की जगह भी धीरे-धीरे भरने लगी थी. सेक्टर-18 से चढ़ीं और फ़िलहाल मेरे बगल में खड़ी मुझसे बड़ी उम्र की महिला ने मुझसे धीमी आवाज़ में कहा -
"भैया ये लेडीज़ कंपार्टमेंट है."
अब तक मुझे इतना तो क्लीअर हो चुका था कि ये लेडीज़ कंपार्टमेंट ही है. मैने भी उनको धीमी आवाज़ में जवाब दिया -
"मुझे पता नहीं था, मैं दिल्ली में नया हूं."
उन्होंने दूसरे डिब्बे की ओर इशारा करते हुए कहा -
"आप उस डिब्बे में चले जाइए, अगर यहां सिक्योरिटी गार्ड आ गया तो प्रॉबलम हो जाएगी."
मैंने दूसरे डिब्बे की ओर एक नज़र देखा. डरावना दृश्य था. डिब्बा ठसाठस भरा हुआ था. भारत की जनसंख्या का आंकड़ा मेरी आंखों के सामने नागिन डांस कर रहा था. उस डिब्बे में इतनी भीड़ थी कि भीड़ का कुछ हिस्सा न चाहते हुए भी छलक कर लेडीज़ कंपार्टमेंट में हिलोरे ले रहा था. मुझे लगा ये दीदी मेरे यहां खड़े रहने से अनकंफ़र्टेबल फ़ील कर रही हैं. मैंने विनती के स्वर में कहा -
"वहां तो जाने का रास्ता भी नहीं है, कैसे जाउंगा."
उन्होंने ने विनती को सिरे से ख़ारिज करते हुए अपनी बात दोहराई -
"चले जाइए. नहीं तो गार्ड आ गया तो फिर प्रॉबलम हो जाएगी."
मैं मुंह लटका कर वहां से चला गया. और अगले डिब्बे के पास भीड़ के पहले जाकर खड़ा हो गया. मैं खड़ा-खड़ा सोच ही रहा था कि ये लोग कितने खराब हैं कि तभी सेक्टर-15 स्टेशन पर ट्रेन रूकती है. जैसे ही मेरे पास वाला गेट खुला, गेट की तरफ़ से भारी सी आवाज़ आई -
"आप लोग सब बाहर निकल कर आइए."
पीछे पलट कर देखा, मिलीटरी टाइप की यूनिफॉर्म में एक हट्टा-कट्टा और लंबे कद का आदमी खड़ा था. उसका इशारा लेडीज़ कंपार्टमेंट की सीमा रेखा के अंदर खड़े पुरूषों की ओर था. सब अपनी जगह पर खड़े रहे, कोई नहीं हिला. गार्ड ने गुस्से भरी बुलंद आवाज़ में दोहराया -
"बाहर निकल कर आइए आप सब."
एक-दो आदमी जगह बना कर दूसरे डिब्बे में जाने लगे. जैसे ही गार्ड ने ये देखा, उसने लोगों को कॉलर पकड़ कर बाहर खींचना चालू कर दिया. ये देख कर और लोगों ने दूसरे डिब्बे की ओर छलांग लगा दी. मैं भी भीड़ को चीरते हुए दूसरे डिब्बे मे जा पहुंचा. इससे पहले की गार्ड और कुछ कर पाता, दरवाज़ा बंद हो गया. जैसे ही ट्रेन आगे बढ़ी, लेडीज़ कंपार्टमेंट के अवैध शरणार्थियों ने गहरी सांस ली.
अगला स्टेशन आया. इस बार दूसरी तरफ़ गेट खुला. शरणार्थियों ने जो गहरी सांस ली थी वो फेफड़ों में ही अटक कर रह गई. वही गार्ड इस दूसरे डिब्बे के पहले गेट पर खड़ा था. उसने फिर से लोगों को बेरहमी से बाहर घसीटना चालू कर दिया. शायद उसने अवैध शरणार्थियों के कपड़ों के रंग याद कर लिए थे. मैं इस बार स्पीड में भीड़ को चीरते हुए डिब्बे के बीच में जाकर खड़ा हो गया.
ट्रेन फिर से आगे बढ़ी. गार्ड तीसरी बार लौट कर नहीं आया. भीड़ चीरने के चक्कर में मेरे इयरफ़ोन का एक इयरबड शहीद हो गया. 10:30 से थोड़ा पहले पहुंचकर मैंने अमृतसर के लिए बस पकड़ ली.
बस में बैठा उन दीदी के बारे में सोचता रहा. जब भी मेट्रो में ये अनाउंसमेंट होती है - पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित है. पुरुष यात्रियों से अनुरोध है कि इसमें न चढ़ें. - मुझे मेरा भला चाहने वाली उन दीदी की ये बात याद आती है.
चले जाइए, नहीं तो गार्ड आ गया तो फिर प्रॉबलम हो जाएगी.
और इस बात के साथ अपना जजमेंटल होना भी याद आता है.
ये स्टोरी हमारे साथ इंटर्नशिप कर रहे आयुष ने की है.
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