स्त्री क्या चाहती है?
'स्त्री निर्मिति' किताब से एक अंश
स्त्री क्या चाहती है?
इसका कोई एकदम तैयार जवाब हो तो कहना चाहूंगी कि बच्चियाँ उसके हवाई जहाज़ बनाकर उड़ा दें. इसकी कोई किताब आती हो तो कहूंगी लड़कों को कि उसके पन्ने फाड़कर लिफाफे बनाएँ और मूंगफली के छिलके भर लें. कुछ भी करें लेकिन बने बनाए तैयार जवाब तलाशने की बजाए अपने जीवन के सवाल तलाशें. अपने जीवन के सवालों से अपरिचित एक लड़की की हालत क्लास में पीछे की बेंच पर बैठी उस बच्ची की तरह होती है जिसे अध्यापिका ने कक्षा की किसी ज़िम्मेदारी के लिए खड़ा होने का इशारा किया हो और वह मासूमियत से पीछे मुड़कर देखे कि क्या मुझसे ही बात की जा रही है! घरों में खाना पकाकर परिवार चलाने वाली अन्ना जो पंद्रह साल मे ब्याही गई थी उसकी एक बीस साल की बेटी है. बारहवीं पास हो गई है. पढ़ने में वह अच्छी नहीं है इसलिए जल्दी ही अन्ना उसकी शादी कर देने वाली है. पैंतीस की उम्र मे अन्ना अपने जीवन के जिस सवाल को पा नहीं सकीं उसी सवाल की तलाश से अभी बेटी वंचित होने वाली है. लेकिन जिस वक़्त कोई लड़की परिवार वालों के सामने अपनी अस्मिता के लिए असर्टिव होती है, अपने ही सबसे प्रियजनों के आगे उसे कटघरे मे खड़ा करके कहा जाता है - तू चाह्ती क्या है? जबकि होना यह चाहिए कि 'सयानी' हो गई लड़की से पूछना चाहिए कि - तू क्या चाहती है?
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो!
एक 19-20 साल की लड़की, चिढ़ी हुई और एकदम ख़फ़ा होकर कहना चाहती है कि मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो! इन सारे अस्मिता विमर्शों की ज़रूरत क्या है? क्यों बात करते हो हर वक़्त समानता की? होता जाता तो कुछ भी नहीं.
वह विमर्श से चिढ़ी इसलिए नहीं होती कि ये व्यर्थ हैं, बल्कि इसलिए कि इनसे कुछ भी बदल नहीं रहा है. हमारे 'कुछ लगने वाले' ही नहीं हमारे 'बहुत कुछ लगने वाले' भी प्यार-अफेक्शन के चक्कर में असुरक्षा के शिकार हो जाते हैं. अपने भोलेपन (मैं इस जेण्डर ट्रेनिंग को भोलापन ही कहूंगी क्योंकि यह इतना भीतर तक पैठी है कि ख़ुद हम आसानी से समझ नही सकते) में कब किसी की सांस ही घोट दे रहे हैं पता नहीं चलता.
उस युवती की चिंता है कि सड़क पर चलो तन कर या गुनगुनाते हुए तो मुड़ के देखने लगते हैं सब, बिना बांह के कपडे हो तो सुनने को मिलता है 'बस में क्यों चलती हो ऑटो से जाओ, यहाँ तो धक्का ही लगेगा', आइस्क्रीम खाएं खड़े होकर तो ताकते हैं, किसी लड़के के साथ सटकर खड़ी हूं तो भी घूरते हैं रुकते हैं मुड़ते हैं. लेकिन ठीक उलटा होता है तब जब बलात्कार होता है, तो दुनिया जैसे निर्जन वन हो जाती है. कोई नहीं है. छेड़खानी होती है तो जैसे आसपास लोग बसते ही नहीं.
यही तो सबसे मुश्किल चीज़ है कि उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाए. स्त्रियों को इतने संरक्षण की ज़रूरत क्यों है और इस दैनंदिन सर्विलांस या निगरानी से वे कैसे असहज को सहज की तरह जीवन में स्वीकराने लगती हैं इसकी वजहों की पड़ताल करते करते एक समूचा डिसिप्लिन तैयार हो गया और अनेक किताबें लिखीं जा चुकीं. अभी नियंत्रण की इतनी बुरी आदत है हमें कि किसी की आज़ादी को वायलेट किए बिना, उसमें ग़ैर ज़रूरी दखलंदाज़ी किए बिना, उसे विकृत किए बिना, उसका ख्याल रखना सीखने में वक़्त लगने वाला है. एक लड़की अगर मेट्रो ट्रेन में चढते ही अपनी चप्पल उतार कर बैग़ नीचे पटक कर कान में इयरप्लग ठूंस कर गाने सुनने लगती है बेखबर दुनिया से तो वह नज़ारा मर्दों और आण्टियों को हैरत में क्यों डाले!
मम्मी जब बच्ची थीं ...
मेरी बोनापार्ट से एकबार सिग्मण्ड फ्रॉयड ने कहा था कि अपने तीस साल के अनुभव के बाद भी वे जान नही सके हैं कि स्त्री क्या चाह्ती है! बीसवीं सदी का आरम्भ फ्रॉयड के मनोविश्लेषण का उत्कर्ष काल था. सहमतियां –असहमतियां –विरोध जो भी रहे लेकिन उसने आधुनिक जीवन के अनेक पहलुओं को प्रभावित किया. बाद मे चलकर स्त्रीवादियों ने फ्रॉयड के 'पेनिस एनवी' और 'इडीपस कॉम्प्लेक्स' को अपने नज़रिए से परखा. फ्रॉयड का मनोविश्लेषण सिद्धांत क्रांतिकारी था/ अब भी है; लेकिन फ्रॉयड ख़ुद अपने ही घेरे को तोड़ कर नहीं निकल पाए. अपने जीवन में आई गिनी चुनी स्त्रियों को देखते हुए उन्होंने मान लिया कि स्त्री का स्वभाव है शासित होना. 'स्त्री को दमित करो नहीं तो वह तुम्हे नष्ट कर देगी'– स्त्री के सम्बंध में मान्य की जाने वाली यह वाली ताकत की सैद्धांतिकी मनुस्मृति से लेकर कितनी दूर तक चली आती है न! स्त्री क्या चाहती है? यह सवाल फ्रॉयड के पूछने का है ही नहीं. यह स्त्री का ख़ुद से पूछा जाने वाला सवाल है. यह आसान सवाल नहीं है. लड़कियों के लिए तो एकदम भी नहीं. यूं हर बच्चा बड़ा होने तक जाने अपने लिए न जाने क्या-क्या सोचता है और चाहता है. बचपन में रूसी लेखक अलेक्सांद्र रस्किन की एक कहानी पढ़ी थी- पापा जब बच्चे थे. पापा रेल के डिब्बे की शण्टिंग करने वाले को देखते तो वही बनना चाह्ते, एक चौकीदार को देखते तो वही बनना चाह्ते, आईस्क्रीम के ठेकेवाले को देखते तो ठेला लगाना चाह्ते. यहां तक कि पापा ने कुत्ता भी बनना चाहा.
सोचती हूं कि लड़कियों के लिए आस पास वे कौन से दृश्य रहे जिन्हें देख उन्हें लगा हो कि उन्हें यही करना या बनना है! हमसे पिछली पीढ़ी तक भी ऐसे आदर्श सिर्फ घरेलू और पारिवारिक ही रहे. जर्मेन ग्रियर लिखती हैं - बचपन से ही स्त्री में जिन अभिलक्षणों को प्रशंसित और पुरस्कृत किया जाता है वे बधिया के हैं- डरपोकपना, गोलमटोलपना, नज़ाकत, क्लांति और सुकुमारता. ऐसे में, शादी और परिवार के अलावा भी औरत के जीवन में कुछ महत्वपूर्ण काम है? जबकि आधी उम्र गुज़ार चुकीं नौकरी करती, करियर बनाती औरतें बहुतायत में शहरों में मिल जाएंगी तब भी, यह हमारी मांओं तक को समझ आना मुश्किल है.
लड़कियों के आस-पास ऐसे आदर्श होना कितना ज़रूरी है जिन्हें देखकर वे अपने लिए कम से कम 20-22 की उम्र तक ही यह तय कर पाएं कि उन्हें सिर्फ शादी नहीं चाहिए. इंदिरा गांधी, मारग्रेट थैचर जैसे टोकनिज़्म का अपना महत्त्व है लेकिन उससे कुछ व्यापक बदलाव नही आता. एक साधारण से परिवार की लड़की को अपने आस-पास ऐसे उदाहरण चाहिए होते हैं जो उसे अपनी पहुंच में दिखाई दें. नानी-दादी न भी हो पढी-लिखीं तो कम से कम मां, बुआ, पड़ोस की आंटी, अपनी ख़ुद की टीचर, मां की सहेलियां, मोहल्ले की कोई स्त्री, कज़न कोई भी आस-पास महिला उसे दिखनी चाहिए जो अपने स्व के प्रति सचेत है. जिसने अपनी पहचान बनाई हो लिख-पढ़ कर, घूम-फिर कर, डॉक्टरी से, चित्रकारी से, कविता से, समाज सेवा से, थियेटर से, पॉलिटिक्स से, अपने प्रोफेशनलिज़्म से.
आखिर 40 की उम्र में यह सोचना कि 20 में मैंने शादी न की होती तो यह खालीपन मेरे भीतर न भरा होता. या काश उस वक़्त मुझे मालूम होता कि मेरे भीतर जो प्रतिभा है उसका शादी के अलावा भी अपना जीवन बनाने में कितना बड़ा महत्त्व है. अमरीकी स्त्रीवादी बेट्टी फ्रीडन ने अपने सर्वेक्षण में इसे समझा कि अपनी पहचान क्यों ज़रूरी है - इस सवाल की मुश्किल से बचने का सबसे आसान तरीका लड़कियों के लिए शादी है. आखिर हमारी पिछली सभी पीढ़ियों ने यही किया है और पिछलेसौसाल से ज़्यादा हमारे पास घर से बाहर निकल कर पहचान बनाती आम औरतों का कोई इतिहास नहीं है. इसलिए ‘मैं क्या चाहती हूं’लड़कियों के लिए ज़्यादा मुश्किल सवाल है जिनकी माओं ने अपना जीवन घर परिवार को बनाते-बांधते और गृहस्थन होने की ट्रेनिंग लेते-देते गुज़ार दिया.
औरतें मुड़ कर देखती हैं तो सौसाल पहले तक न डॉकटर थीं, न वैद्य थीं, न टीचर थी, न स्कॉलर, घर के कामों से फुर्सत पाकर भले खेत में हाथ बँटाती हों पर न किसान ही रहीं ढंग से, न मजदूर ही... वे सड़कों पर निकल कर काम करती औरतों को देखकर सोच नहीं सकीं कि उन्हें रेलवे प्लेट्फॉर्म के पास आईस्क्रीम का ठेला लगाना है या चौकीदार बनना है ताकि जब सारा संसार सोए वे अकेली शोर मचा सकें. यहां तक कि उन्होंने कुत्ता भी बनना नहीं चाहा कि पिछली टांग उठाकर कान खुजलाया जा सके. कितना अच्छा हो कि कोई भी लड़की इस मुश्किल सवाल से कन्नी काटने की बजाय इससे भिड़ जाए पूरी ताकत से... और फिर इस मंथन से निकलें घुम्क्कड़ लड़कियां, पेंटर लड़कियां, आर्टिस्ट लड़कियां, बहस और विमर्श करती, धाकड़ लड़कियां, मज़बूत लड़कियां, आत्म चेतस् लड़कियां, अपने प्रकाश से दीप्त अपना सहारा, कभी बोर न होने वाली और नित नया सोचने वालीं लड़कियां!
सपनों के राजकुमार वाली ट्रेन का एक्सीडेंट!
कॉलेज जाती या कॉलेज का अरमान सजाती लड़कियों से कोई पूछे कि ठीक-ठीक और ईमानदारी से अपना सपना बताओ तो दावा है कि पहला जवाब शादी तो नहीं ही होगा. शादी को सपने की तरह सजाना बचपन से शुरु हो जाता है. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की मां के घर में पलंग के बक्से में दहेज के बर्तन और लत्ते इकट्ठे होना उसी दिन शुरु हो जाता है जब लड़की का जन्म होता है. बड़ी होती लड़की माँ के हर कष्ट की साक्षी होती है लेकिन फिर भी शादी को लेकर उसके सपने कम नहीं होते. स्त्री की प्रेम ट्रेनिंग में स्वप्न का बहुत बड़ा रोल है. ड्रीम डेट भी होती है, ड्रीम लव भी ड्रीम शादी भी. इनका ड्रीम होना ज़्यादा ज़रूरी है ताकि पितृसत्तात्मक समाज जैसा बनाया गया है वैसा चलता रहे. बाज़ार एक तरफ उसे आज़ादी देता है तो दूसरी तरह उसकी सीमाएं भी तय करता है. घोड़े पर आते राजकुमार के सपने और शादी में पलकों पर बिठाए जाने के ख्वाब न हो तो कौन लड़की कहेगी - मुझे न बचपन से शादी का बड़ा शौक है! बचपन से ही सपनों के केंद्र में प्रेम विवाह और गृहस्थी बसती है तभी वे इतनी आसानी से अस्मिता के सवाल से बचकर निकल जाती हैं. लेकिन यह सपना भी सच नहीं होता और फिर यह भी एक बड़ी जमात की बाद में समस्या बनती है और 'ड्रीम सीक्वेंस' की ताकत यह है कि इसे कहना भी उनके लिए सरल नहीं रह जाता. जीवन में पहली बार शादी की तमाम रस्मों में ख़ुद को नायिका की तरह महसूस करने के बाद जब यथार्थ से आमना-सामना होता है तो वह कहती है- मैंने कभी नहीं सोचा था कि ये मुझे डाटेंगे! प्रेम और विवाह का स्वप्निल संसार ढहने के बाद भी यह व्यूह ख़त्म नहीं होता. यह पीढियों दर पीढ़ी चलता है और हम ज़रा-ज़रा समझौतों के साथ असली समस्या को आँख बचाकर ट्रेन की खिड़की से बाहर उड़ा देते हैं. यह असली समस्या अपने वजूद का सवाल है!
इतनी बड़ी ट्रेन में अपना एक डब्बा नहीं
इत्मीनान, मोहलत, फुर्सत या जिसे हम 'लेशर' कहते हैं, वजूद के सवाल में इसकी बड़ी भूमिका है. फुरसत का समय यानी वह समय जब स्त्री सिर्फ अपने घरेलू कार्यों से आज़ाद नहीं है बल्कि जब वह दिमाग से भी मुक्त है अपनी गृहस्थी की भूमिका से, जब वह उस खाली वक़्त का इस्तेमाल बेहतर तरीके से अपने लिए कर पा रही है और उस बेहतर तरीके को चुनने के लिए वह पूरी तरह आज़ाद है सामाजिक-सांस्कृतिक दबावों से; ऐसा फुरसत का समय श्रमजीवी स्त्री के पास तो नहीं ही आता. जिनके लिए आर्थिक संकट भी कोई संकट नहीं हैं आमतौर पर वे स्त्रियाँ भी फुरसत के पल किसी न किसी तरह घर परिवार गृहस्थी में अपनी उपयोगिता बढ़ाने के कौशल विकसित करने में ही लगा रही होती है जैसे सास-बहू सीरियल ही देख कर या दोपहर को उन धारावाहिकों को खबर की तरह देखकर. खाली वक़्त में अचार-पापड़-सिलाई-रफू-बुनाई मोहल्लागिरी या अगले भोजन के वक़्त की तैयारी करते हुए भी वह अपनी दी गई भूमिका को और पुष्ट कर रही होती हैं. एक स्वतंत्र सोच रखने वाले व्यक्ति के तौर पर अपना आत्मिक विकास कर पाने के अवसर या उनका दबावमुक्त चयन स्त्री के लिए एक बेहद मुश्किल बात है. क़स्बाई स्त्री का जीवन शहरी मध्यवर्गीय स्त्री से इस मायने में बहुत फर्क़ है. आखिर अपने खाली वक़्त में अख़बार और पत्रिकाएँ पढना, अपने प्रिय लेख पर सम्पादक या स्वयम लेखक को पत्र लिखना, मेल लिखना, फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल साइट्स पर वृहत्तर समाज से जुड़ना सिर्फ चुनाव का नहीं सुविधाओं की उपलब्धता का भी मामला है सामाजिक-सांस्कृतिक दबावों का भी और सबसे महत्वपूर्ण यह दिमागी कण्डीशनिंग का मामला है. सब काम निबट जाने के बाद, सबकी सब ज़रूरतें पूरी होने के बाद, सबका पेट भर जाने के बाद अपने लिए सोचना, सोना, खाना या ऐसा ही कुछ भी स्त्री को ख़ुद को प्राथमिकता पर रखने से रोकता है.
वर्जीनिया वूल्फ जब अपनी पुस्तक 'अपना एक कमरा' में स्त्री के साहित्यकार होने के लिए उसके अपने कमरे और अपनी ख़ुद की स्पेस की वक़ालत करती हैं तो उसमें यह निहित होता है कि यह स्पेस और वक़्त बाहरी डिमाण्डस से मुक्त हो जोकि अब तक स्त्री के जीवन चक्र में सम्भव ही न रहा. वे लिखती हैं - 'अगर मिसेज़ सेटन पैसे बना रही होतीं तो खेलों और झगड़ों से जुड़ी तुम्हारी यादें कैसी होतीं? लेकिन तुम तब शायद अस्तित्व में आई ही नहीं होतीं. पैसे बनाना और तेरह बच्चे करना - कोई इनसान इसे नही झेल सकता.'
सम्भवत: इसी द्वंद्व से बचने के लिए और अपने जीवन को बचाने के लिए स्त्री एक वृत्ताकार जीवन में चुन ली जाती है जहाँ उसे गोल गोल घूमना है भले ही वह भी पर्याप्त उकताहट भरा हो लेकिन अपेक्षाकृत सुरक्षित हो.
हमारे सवाल हम ही तलाशेंगे जवाब
तो स्त्री क्या चाहती है? यह आपका सवाल नहीं होना चाहिए. यह उसका अपना सवाल है. त्रिया के पास चरित्र ही नही दिमाग भी है. जर्मेन ग्रियर ने इस बात को रेखांकित किया ही कि शादी कोई नौकरी नहीं हो सकती लेकिन उसे बना दिया जाता है. जब केवल वही अभीष्ट रह जाता है तो 'चयन की स्वतंत्रता' के मायने एक गढी हुई औरत के लिए कुछ नहीं रह जाते. उसका चयन भी उसकी ट्रेनिंग का हिस्सा हो जाता है. वह यह जानती है कि वह क्या है, यह नहीं जानती कि क्या क्या हो सकती है.
स्त्री क्या चाहती है का सवाल की अपने आप में एक बेकार का सवाल है. एलीन मार्गन कहती हैं कि यह सवाल पुरुष के लिए भी वैसा ही सवाल है जैसा स्त्री के लिए. वे लिखती हैं – 'बहुत सारे लोगों के अवचेतन में यह विचारहोता है कि स्त्री कुल मिलाकर उतनी जटिल प्रजाति नहीं है, वह न्यूनाधिक सदाबहार झाड़ियों या फलियों की लताओं जैसी सहज है, हमारे पास सीधा-सादा उत्तर ही है कि उन्हें बहुत सारी फास्फेट और खाद ही चाहिए, और एक बार यह रहस्य समझ में आजाता है तो ज़िंदगी सरल हो जाएगी. स्त्री को वह दिया जा सकेगा जो वह चाह्ती थी.... कामोत्तेजक औषधि की खुराक की तरह यह विचार भी पुरुष की एक मृगतृष्णा है.'
वह उतनी ही मनुष्य है जितने पुरुष हैं, न उससे ज़्यादा और न ज़रा सा भी कम. उसके वही संकट हैं जो एक सचेतन जीव के होने चाहिए. 'वह भिन्न है लेकिन समान है'. अमरीकी राजनीतिज्ञ पट्रिशिया श्रोडर, अपनी वाकपटुता के लिए जो प्रसिद्ध रहीं, ने सदन में एक साथी के द्वारा पूछने पर कि वे मातृत्व और राजनीति कैसे सम्भालेंगी एक साथ, यह जवाब दिया था कि – 'मेरे पास दिमाग और गर्भ दोनो हैं और मैं दोनों का इस्तेमाल करती हूं.' आप अभिभावक हैं, पति हैं, भाई हैं, दोस्त हैं, परिचित हैं, अपरिचित हैं, मंगेतर हैं, अपने हैं इतर हैं जो भी हैं सुलझाने दीजिए उसे अपने जीवन की इस पहेली को, बने रहिए दूर पास जो भी, बिना हावी हुए. आप कैसे बाल बनाएंगे कैसी शर्ट पहनेंगे कौन सा इत्र लगाएंगे अपने माता पिता के साथ रहेंगे या उनसे अलग रहेंगे तो स्त्री खुश होगी तब तक निरर्थक है जब तक इस भूल-भुलैया में भटक के वह अपना रास्ता ख़ुद नही तलाश लेती. आप उनका साथ हो सकते हैं आप उनका जवाब नहीं हो सकते.
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