'उसकी सफ़ेद फ्रॉक और जांघिए पर किसी परी मां ने काढ़ दिए कत्थई गुलाब'
बर्थडे स्पेशल: अनामिका की कविता प्रथम स्राव और चंद कविताएं

अनामिका हमारे समय की मशहूर कवयित्री हैं. वो दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाती हैं. लेकिन वो जितनी अंग्रेज़ी की हैं, उससे कहीं ज़्यादा हिंदी की. अनामिका के व्यक्तित्व की तरह ही ‘सहजता’ उनकी कविताओं की भी खासियत है. औरत के बचपन से लेकर बुजुर्गियत तक के अनुभव और पीड़ा उनकी कविताओं में दर्ज हैं. मतलब औरत की ज़िंदगी का हर पहलू यहां दिखाई पड़ता है. उनका जन्मदिन है आज. यहां आपको पढ़वा रहे हैं उनकी कुछ कविताएं.
प्रथम स्राव
उसकी सफेद फ्रॉक
और जांघिए पर
किस परी मां ने काढ़ दिए हैं
कत्थई गुलाब रात-भर में ?
और कहानी के वे सात बौने
क्यों गुत्थम-गुत्थी
मचा रहे हैं
उसके पेट में ?
अनहद-सी बज रही है लड़की
कांपती हुई.
लगातार झंकृत हैं
उसकी जंघाओं में इकतारे
चक्रों सी नाच रही है वह
एक महीयसी मुद्रा में
गोद में छुपाए हुए
सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया
स्त्रियां
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है कागज
बच्चों की फटी कॉपियों का
'चनाजोरगरम' के लिफाफे के बनने से पहले !
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह

एक दिन हमने कहा -
हम भी इंसान हैं
हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन.
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग.
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियां उड़ीं और रंगीन अफवाहें
चींखती हुई चीं-चीं
'दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं -
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं !

खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शगल हैं ये कहानियां और कविताएं.
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं.'
(कनखियां इशारे, फिर कनखी)
बाकी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों -
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
बेजगह
‘अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाख़ून’ -
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर.
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियां अपनी जगह पर.
जगह? जगह क्या होती है?
यह वैसे जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही.
याद था हमें एक-एक क्षण
आरंभिक पाठों का–
राम, पाठशाला जा!
राधा, खाना पका!
राम, आ बताशा खा!
राधा, झाड़ू लगा!
भैया अब सोएगा
जाकर बिस्तर बिछा!
अहा, नया घर है!
राम, देख यह तेरा कमरा है!
‘और मेरा?’
‘ओ पगली,
लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता.’

जिनका कोई घर नहीं होता–
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है.
कटे हुए नाख़ूनों,
कंघी में फंस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली?
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें
लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में
फंसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूं–
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग.
सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुंची हूं
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊं
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अभंग!
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