'किस तरह मेरी ननद और सास ने परंपरा के नाम पर मेरी आजादी छीनी'

रीडर का ब्लॉग: वो कहती हैं मैं बहुत मॉडर्न हो गई हूं.

ब्लॉगर नारी ब्लॉगर नारी
जुलाई 02, 2018
औरतें ही सभी व्रत क्यों रखें? (सांकेतिक तस्वीर)

‘तुम खुशकिस्मत हो कि तुम्हें मेरे जैसा पति मिला. मेरे परिवार जैसा परिवार मिला. मेरी मां घर का काम करती हैं ताकि तुम्हें ऑफिस के बाद घर आकर काम न करना पड़े. मेरी बहन को देखो, उसने अपनी शादी में कितना संघर्ष किया. ये सब बहुत छोटी चीज़ें हैं, जैसा कहा जा रहा है वैसा करो.’ ये मेरे पति का कहना है. जब मैंने मेरे साथ हुए भेदभाव के बारे में मेरे पति से कहा तो उन्होंने मुझे ये जवाब दिया. मेरा नाम विनीता (बदला हुआ नाम) है और मैं बिहार से हूं. मैं मैथिली ब्राह्मण हूं. मुझे अपनी संस्कृति से प्यार है. लेकिन जब से मेरी शादी हुई है मुझे एहसास हुआ कि यह संस्कृति कितनी ज़्यादा पुरुषसत्तात्मक है.

मैं इंजीनियर हूं और आईबीएम प्राइवेट लिमिटेड में काम करती हूं. शादी के बाद मेरे जीवन में बहुत कुछ बदला. बहुत-सी घटनाएं हुईं जो मुझे ठीक नहीं लगीं. उन सब में से एक मैं यहां बताना चाहती हूं. मेरी शादी को चार महीने हो गए हैं. मुझे काले रंग के कपड़े पसंद है और मैं अक्सर उन्हें पहनती हूं. एक बार मेरे ऑफिस की पार्टी में मैं काले कपड़े पहन कर चली गई थी. मैंने काली ही नैलपेंट भी लगाई थी. पहले कभी मेरी सास ने मुझे काले कपड़े पहनने के लिए कुछ नहीं कहा था. पार्टी के बाद हम मेरी नंद से वीडियो कॉल पर बात कर रहे थे. उन्होंने मेरी नेल पेंट देख ली और मुझे डांटने लगीं. मेरी नंद कहने लगीं कि मैंने काली नेल पेंट क्यों लगाई? शादी के बाद काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए, कम-से-कम एक साल तक तो बिल्कुल नहीं.

इसके दो दिन बाद ही मेरी सास मुझे डांटने लगीं. वो मुझे ये कह कर डांटने लगीं कि मैं बहुत ज़्यादा मॉडर्न हूं, बहुत ज़्यादा स्टायलिश हो रही हूं. मुझे काले कपड़े नहीं पहनने चाहिए थे. शादी के बाद एक साल तक काले कपड़े नहीं पहनते. उन्होंने मुझे बहुत ज़्यादा आज़ादी दे दी है और भी बहुत कुछ. कुछ संस्कृति का भी ख्याल रखना चाहिए. सब लोग उन्हें ताने मार रहे हैं कि वो मुझे काले कपड़े कैसे पहनने दे सकती हैं. शादी के बाद मुझे सिर्फ उनके बेटे के बारे में सोचना चाहिए. काले कपड़े पहनने का मतलब है कि मैं उनके बेटे की जान को खतरे में डाल रही हूं. ये मेरे लिए बेहद बेतुका था. काले कपड़े पहनने से किसी की जान कैसे खतरे में आ सकती है? लड़कों के लिए इस तरह के बंधन क्यों नहीं होते? क्यों उन्हें काले कपड़े पहनने के लिए मना नहीं किया जाता? हमें अपने कपड़ों और उनके रंगों को तय करने की छूट भी नहीं है, ये कैसे नियम हैं?

जब मैंने बाकी लोगों से इस बारे में बात करने की कोशिश की तो सबने मुझे कहा कि सदियों से ये परंपराएं चली आ रही हैं. औरतों को ही व्रत रखना होता है, दूसरों की बातें सुनना पड़ती है, त्याग करना पड़ता है, टॉर्चर झेलना पड़ता है, अपने सपनों को छोड़ना पड़ता है, दूसरों के मन मुताबिक काम करना पड़ता है. ये सबकुछ लड़कों को नहीं करना होता.

हमारे समाज में बहुत से ऐसे रिवाज़ हैं जिन्हें लोग आंख पर पट्टी बांध कर मान रहे हैं. ये सभी रिवाज़ लड़कों की ज़िन्दगी में कोई बदलाव नहीं लाते. ये सिर्फ लड़कियों के जीवन पर प्रभाव डालते हैं. मैं चाहती हूं कि ये समाज महिलाओं को उनकी मर्ज़ी से जीने दे. किसी को हक़ नहीं है कि वो मेरे लिए निर्णय ले. मेरा जीवन मेरा है और इसके सारे फैसले भी मेरे हैं.


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