शीमा केरमानी: मौत के सर पर भरतनाट्यम करने वाली डांसर जो तानाशाही से लड़ गई
जब सारे क्लासिकल डांसर पाकिस्तान छोड़ गए, शीमा डटी रहीं

इकबाल बानो ने लाहौर स्टेडियम में जब ‘हम देखेंगे’ गाया था, उसे आज भी सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. ज़िया उल हक ने अपने राज में साड़ी पहनना बैन कर दिया था, और इकबाल बानो काले रंग की साड़ी में इन्कलाब का नारा लगाने आई थीं, फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म के ज़रिए.
जिया उल हक के कट्टरपंथ के खिलाफ खड़े कई लोग थे, जिन्होंने जम्हूरियत का दामन नहीं छोड़ा. आखिरी सांस तक लड़े. जब तक लड़ सके, लड़े. इन्हीं में से एक नाम है- शीमा केरमानी का.
भरतनाट्यम डांसर हैं. दूसरे कई क्लासिकल नृत्य भी सीख और सिखा चुकी हैं. कत्थक, ओडिसी. पिता लखनऊ के नवाबी घराने से थे. जड़ें ईरान के केरमान में थीं. विभाजन के समय उनके पिता पाकिस्तान चले गए थे. दो साल बाद वापस आए, और शादी की. मां हैदराबाद के दक्कनी क्षेत्र से थीं. इस तरह उनका ददिहाल पाकिस्तान, और ननिहाल हिंदुस्तान रहा. नानी के घर आते-जाते क्लासिकल नृत्य में शीमा की रुचि हुई. सीखा, और परफॉर्म करना शुरू किया. गुरु रहीं लीला सैमसन. ओडिसी उन्होंने आलोक पानिकर के निर्देशन में सीखा. पिता की वजह से वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक में इंटरेस्ट आया.
तस्वीर: फेसबुक
जिया उल हक ने 1977 में पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगा दिया था. ऑपरेशन फेयर प्ले के नाम से चलाया गया ये ऑपरेशन जिया उल हक के नेतृत्व में आगे बढ़ा था. नाच-गाना गैर इस्लामिक करार दे दिया गया. 1983 में क्लासिकल डांस बैन हो गया. शीमा ने फिर भी नाचना नहीं छोड़ा. एक इंटरव्यू में शीमा ने बताया,
‘मैं सज-धज कर निकलती थी परफॉर्म करने के लिए तो आस पास देखती थी. कहीं कोई मुझे शूट करने या मार डालने के लिए खड़ा तो नहीं है’.
तस्वीर: ट्विटर
’1983 में सारे डांसर पाकिस्तान छोड़ कर चले गए थे. मैं इकलौती डांसर बची थी जो डांस कर और सिखा रही थी. सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि पब्लिक परफॉरमेंस देने के लिए नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट लेना बहुत ज़रूरी है. इसे इशू करवाना बेहद मुश्किल और समय लेने वाला प्रोसेस है. सबसे पहले तो नौकरशाहों की झिक झिक झेलो, कई ऑफिसेज में जाओ और फिर उसके बाद ऐसा पेपर का टुकड़ा मिलता है जिसपे लिखा होता है
‘नाचना, नग्नता, अश्लीलता की इजाज़त नहीं है; सिर्फ इस्लामिक मूल वाले कपड़े पहनने होंगे, कोई भी ड्रेस इतनी टाईट नहीं होनी चाहिए कि पहनने वाली के शरीर का उभार दिखे; कुछ भी इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ नहीं जाना चाहिए’.
‘जिस होटल में मैं परफॉर्म कर रही थी, वहां पर बम ब्लास्ट की धमकियां दी गईं. अभी हाल में ही मैं एक पार्टी में मौजूद थी जहां मैंने एक महिला को दूसरी महिला से मेरे बारे में कहते सुना, ‘उसके पास मत बैठो, वो नाचने वाली है’.’
शीमा का मानना है कि मुस्लिम मर्द उनके स्टेज पर खड़े होने को एक चुनौती मानते हैं. ये एक औरत की स्वीकारोक्ति होती है, ‘देखो ये मैं हूं. मुझे अपने शरीर से प्यार है. मुझे अपनी कला से प्यार है. मैं इससे प्रेम करने के लिए स्वतंत्र हूं’. ये चीज़ मुस्लिम मर्दों से हज़म नहीं होती. शीमा खुद को मार्क्सिस्ट और फेमिनिस्ट कहती हैं. उनका मानना है कि दुनिया में कोई भी वर्गभेद नहीं होना चाहिए. पुरुषों और महिलाओं को एक समान अधिकार मिलें. फिलहाल वो कराची में तहरीक-ए-निस्वान नाम की संस्था चला रही हैं. ये औरतों के मुद्दों पर फोकस करती है और उन पर काम करती है.
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