किस तरह 'इंग्लिश-विंग्लिश' की 'शशि' भारतीय औरत की पहचान बन गई
बर्थडे स्पेशल: जब श्रीदेवी में हमने अपनी मांओं को देखा.
श्रीदेवी की फिल्म है- इंग्लिश विंग्लिश. गौरी शिंदे की भी है. गौरी ने इसे डिरेक्ट किया जरूर है लेकिन फिल्म को ख़ास बना देती हैं--श्रीदेवी. उनकी ऐक्टिंग. ये एक ऐसी औरत शशि गोडबोले की कहानी है जो अपने विल पावर, पक्के निश्चय के बल पर अपनी ‘सो कॉल्ड’ कमियों पर जीत हासिल करती है. ‘सो कॉल्ड’ इसलिए कि असल में वो कोई कमी है ही नहीं, उसे जबरदस्ती कमी कहकर बताया और दिखाया जा रहा है. लेकिन मॉडर्न हो चले इस समाज की एक जरूरी शर्त थी- अंग्रेज़ी बोलना. और इसलिए अंग्रेज़ी न बोलना कमज़ोरी ही थी. ताकत और वर्चस्व की भाषा को न बोलने वाला कितना कमजोर और बेचारा मान लिया जाता है, ये फिल्म बताती है. और वो भी तब जब उस कमजोरी का शिकार कोई औरत हो. यहीं पर ये सिर्फ स्त्री या किसी आम हाउस वाइफ या गृहणी की फिल्म नहीं रह जाती बल्कि औरत पर लादे गए बोझ और वर्चस्व को बताती फिल्म बन जाती है.
पुरुषवाद के साथ-साथ भाषा के भारी बोझ की भी कहानी. भाषा की, जेंडर की, क्लास की कहानी- इन सबके ताकत की कहानी. और इस ताकत को भुगतती हर औरत की कहानी. पुरुष और भाषा के मेल और उसी मेल की आड़ में एक पूरे वर्ग के खिलाफ साजिश की कहानी. साजिश कैसी? किसी भी बहाने से मर्द के आगे या हर तरह की ताकत के आगे उसे कमजोर दिखाने की. ये गौर करने वाली बात है कि शशि सिर्फ गृहणी नहीं थी वो घर से ही एक छोटा सा बिजनेस भी करती थी. लड्डुओं का. मोतीचूर के लड्डू बना वो सप्लाई किया करती. मतलब वो घर चलाने में पैसों से भी मदद करती थी. लेकिन उससे भी कहां फर्क पड़ना था. बल्कि उसके इस योगदान या गुण को भी पति उसकी कमजोरी ही मान रहा होता है. मज़ाक उड़ाते हुए शशि का परिचय इस तरह देता है- ‘My wife, she was born to make laddoos.’ इसे हिंदी में यूं समझिए कि ‘मेरी बीवी पैदा ही लड्डू बनाने के लिए हुई है.’ घर आए किसी मेहमान से ठहाके लगा कर पत्नी के लिए कही गई ये बात क्या आपको सिर्फ़ मजाक लगती है? अगर लगती है तो ठहर कर थोड़ा सोचिएगा- औरत हैं, तो अपने साथ हो रही चीजों को याद कीजिएगा और मर्द हैं तो अपनी कही गई बातों को याद कर शर्मिंदा हो जाइएगा. इस हंसी और मज़ाक का असल मकसद उसे किसी तरह खुद के आगे यानि मर्द के आगे नीचा दिखाना होता है.
औरत की आज़ादी को उसकी आर्थिक आज़ादी से जोड़ कर देखने वाले यहां गलत साबित होते नज़र आते हैं. क्योंकि उनके हिसाब से अपने पैरों पर खड़ी औरत हर तरह के शोषण से आज़ाद रह सकती है.
हम पाते हैं कि ‘इंग्लिश विंग्लिश’ औरत के शोषण के एक अलग और नए किस्म को सामने लेकर आती है. ऐसा तरीका जिसको हम समझ भी नहीं पाते शायद. इसमें शशि का पति उसे मारता-पीटता नहीं है, ना ही उसे गालियां देता है. बड़ी सफाई से शशि पर ऐसा मानसिक दबाव बनाता है जिससे वो खुद को उससे कम समझने लगती है. धीरे-धीरे उसमें एक ख़ास तरह का इन्फेरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स (जिसे हीनता बोध कहा जाता है, जिसकी वजह से इंसान अपना सारा आत्मविश्वास खो बैठता है) भरने लगता है. अब ये भी सोचने वाली बात है कि शशि का पति ऐसा जान बूझ कर करता है या सदियों से चला आ रहा पुरुषवाद अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ पाया है. वजह दोनों हो सकती है.
जो भी हो लेकिन शशि की बेटी अपने पिता के हर व्यवहार को देखती-समझती है. वो अभी इतनी बड़ी नहीं कि गलत-सही में फर्क कर सके. बच्ची है अभी. उसके दिमाग पर मां के साथ आए दिन हो रहे इस बर्ताव का दूसरा ही असर पड़ता है. वो अपनी मां के खिलाफ ही खड़ी होने लगती है. आए दिन मां का मज़ाक उड़ाती है, तंज कसती है. स्कूल वाले सीन में बेटी का व्यवहार देखा जा सकता है. जबकि बेटी के क्लास टीचर या इंग्लिश टीचर पर शशि के अंग्रेज़ी न आने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा होता. वो अपनी टूटी-फूटी हिंदी में ही शशि से बात करने लगता है. दोनों सिर्फ एक दूसरे की बात ही नहीं समझते बल्कि एक दूसरे के साथ कनेक्ट भी कर पाते हैं. लेकिन शशि की बेटी कतई कंफर्टेबल नहीं रहती. वो बेबात अपने दोस्त की मां या अपने टीचर के सामने शर्मिंदा होती रहती है. क्योंकि वो घर में रोज़ यही तो देखा करती थी. अगर उसके पिता घर में इस तरह की हरकतें नहीं कर रहे होते तो शायद उस बच्ची को इस बात का अहसास भी नही होता कि अंग्रेज़ी बोलना न आना कोई ऐसी बात नहीं जिसके लिए किसी पर तंज किया जाए.
खैर, शशि अंग्रेज़ी सीखना शुरू कर देती है. अंग्रेज़ी सीखने के बहाने वो खुद से प्यार करना शुरू करती है. अंग्रेज़ी की क्लास में उसके दोस्त भी बन जाते है. वो ऐसे दोस्त हैं जो शशि के भीतर के एक सुंदर इंसान से, उसके कुकिंग के शौक से प्यार करते हैं. उसके लड्डू बनाने की खासियत से प्यार करते हैं. वे शशि को उसके उसी रूप में अपनाते हैं जो वो असल में है. इन दोस्तों से मिलकर शशि को ये अहसास होता है कि वो कहीं से भी किसी से कम नहीं. और इसी वजह से उसका कॉन्फिडेंस धीरे-धीरे वापस आने लगता है. किसी भी इंसान की ज़िंदगी में दोस्तों के क्या मायने होते हैं ख़ास कर एक औरत की ज़िंदगी में. ये भी समझ में आता है. क्योंकि आमतौर पर भारतीय विवाह और परिवार संस्था या व्यवस्था में शादी होते ही सबसे पहले औरत के दोस्त उससे छीन लिए जाते हैं.
फिल्म की कहानी, इसका निर्देशन तो शानदार है ही लेकिन सबसे शानदार है- शशि का रोल. शशि यानि श्रीदेवी. तमाम परेशानियों से जूझते हुए भी वो रास्ते निकाल ही लेती है. एक आम सी भाषा को न जानने की वजह से जिस तरह लगातार उसका आत्मसम्मान घायल किया जा रहा था उसे वो महसूस कर रही थी, समझ भी रही थी. उसे खूब अहसास था कि पति और बेटी उसे कितना अपमानित कर रहे थे. अपने फ्रेंच दोस्त से एक जगह वो कहती भी है- ‘क्या हक़ बनता है बच्चों का अपने मां-बाप से इस तरह बात करने का?इज़्ज़त का मतलब तो जानते ही नहीं! क्या कचरे की पेटी हूं मैं? जो मन में आया फेंक दिया. ये कैसी मासूमियत है जो हर पल हमारी कमजोरियों का फायदा ही उठाती है. सब कुछ सिखाया जा सकता है पर किसी की भावनाओं का ख्याल रखना कैसे सिखाया जाए?’ वो झेल रही है तो समझ भी रही है. आखिर समझता भी और कौन. अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए जूझना भी उसे ही था, रास्ते भी उसे ही तलाशने थे. ना तो पति उसका साथ देने को राजी था और नई जेनेरेशन की बेटी तो अपने पिता के ही क़दमों पर चल पड़ी थी. उसे मां पिछड़ी हुई और जाहिल लगती थी. उसने अपने पिता से ही उसका मजाक उड़ाना भी सीख लिया था. तो आखिर लड़ना शशि को अकेले ही था. खुद से, पति से, बेटी से और उस हर हालत से जो ताकत के नाम पर औरत को कमजोर साबित करने पर तुली रहती है. असल में यहां औरत ही नहीं मर्द भी भाषा के वर्चस्व और ताकत का शिकार है. और उसे इस बात का अहसास भी नहीं है. वो जिस बात के लिए और जिस समय पत्नी को नीचा दिखा रहा होता है ठीक उसी वक्त वो खुद भी गुलाम करने वाली ताकत का शिकार बन रहा होता है. अंतर बस इतना है कि औरत पर दोहरा-तिहरा बोझ और दबाव है. लेकिन वो भी तभी तक जब तक वो खुद को सबसे कमजोर समझते हुए चुपचाप बैठी है. जैसे ही वो बाहर निकलती है, चीजों-बातों को समझना और अपनी समझ का इस्तेमाल करना शुरू करती है. आज़ाद हो जाती है. अपनी कैद से भी और उसे कमजोर करने वाली दूसरी ताकतों से भी.
उसका आत्मसम्मान, उम्र के इस मोड़ पर नया सीखने की कोशिश, अपनी हीनता बोध से बाहर निकलने की कोशिश और उसकी भरपूर इच्छाशक्ति उसे आधुनिक और ताकतवर महिला किरदार के रूप में हमारे सामने लाती है. हम उसके पूरे व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नही रह सकते. शशि ऐसी औरत नहीं कि वो सब कुछ चुपचाप सुनती रहे बल्कि वो एक ऐसी औरत है जो अपने तरीके से चीजों का विरोध करती है. पति के साथ सोने से इंकार भी करती है क्योंकि उसका मन नहीं होता. हां ये अलग बात है कि वो लड़ कर या साफ साफ़ बोल कर किसी बात का विरोध नहीं कर पाती लेकिन करती ज़रूर है. चुप रह कर हर बात मान नहीं लेती. कई जगहों पर हम साफ़-साफ़ देख पाते हैं कि उसे कोई ख़ास सुविधा नहीं दी गई. लड्डुओं के सप्लाई के लिए थोड़ी देर के लिए कार मांगने पर उसका पति उसे कार देने को भी तैयार नहीं होता. मतलब बिना किसी ख़ास सुविधा के वो अपना काम कर रही होती है. क्योंकि उसमें लगन थी, वो सचमुच कुछ करना चाहती थी. वो अपनी पहचान को लेके कॉन्शियस भी थी.
एक आम भारतीय औरत की तरह उसे भी परिवार की ताकत का अंदाज़ा था, परिवार की ज़रूरत का भी. फिल्म के आखिर में अपने परिवार और दोस्तों के सामने वो अपनी बात रखती है. अंग्रेज़ी में रखती है. पति और बच्चों को आईना दिखाती है. उसी बहाने इस समाज को भी जो बात तो आदर्शों की करता है लेकिन परिवार के भीतर रहकर परिवार के ही किसी सदस्य को हर वक़्त कमज़ोर और नीचा दिखाता रहता है. बेहद कोमल और अपने ही तरीके से शशि उन्हें सच दिखा देती है. ये भी बता जाती है कि परिवार के सही मायने क्या हैं. और परिवार को चलाना सिर्फ औरत की जिम्मेदारी नहीं बल्कि हरेक सदस्य की ड्यूटी है. उसकी सारी बातें हर भारतीय मां-पत्नी के दिल की बात है जो आए दिन अपने परिवार की ही ज्यादतियों का शिकार होती रहती हैं. और चुपचाप सब कुछ सह जाती हैं.
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