क्या है धारा 377 और क्यों इसपर बहस छिड़ी हुई है?
एक ऐसा कानून जो हम सब को अपराधी बनाता है. इसे डिटेल में समझिए.

समलैंगिकता उतनी ही सीमित है जितनी विषमलिंगता: आदर्श होना चाहिए किसी भी मर्द या औरत को प्रेम कर सकने के काबिल होना; बिना किसी डर, बंधन, या मजबूरी को महसूस किए.
-सिमोन दे बोउवा
होमोसेक्सुअलिटी. समलैंगिकता. मर्द का मर्द से प्यार करना. औरत का औरत से. प्लेटोनिक प्यार नहीं. वो प्यार जो सदियों से मेनस्ट्रीम में लोगों के बीच पैठ बनाता आया है. एक मर्द और औरत के बीच का प्यार. जिसे मान्यता मिल चुकी है. जिसे कानून गलत नहीं मानता. क्योंकि वो तथाकथित रूप से नेचुरल है. प्राकृतिक है. क्यों? क्योंकि इसमें मर्द और औरत के बीच के शारीरिक सम्बन्ध स्वीकार किए जा चुके हैं. समाज के द्वारा. कानून के द्वारा. लेकिन समाज क्या ये भी डिसाइड कर सकता है कि क्या प्राकृतिक है और क्या अप्राकृतिक? क्या इस चीज़ का निर्णय प्रकृति पर नहीं छोड़ देना चाहिए?
इसी पर बहस चल रही है अभी सुप्रीम कोर्ट में. आइए, आपको बताते हैं.
क्या है सेक्शन 377?
इंडियन पीनल कोड यानी भारतीय दंड संहिता में हर जुर्म के लिए सज़ा तय है. और सेक्शन 377 में साफ़-साफ़ यह लिखा गया है कि ‘अननैचरल सेक्स’ कानूनी रूप से दंडनीय है. कानून के अनुसार कोई भी सेक्सुअल एक्टिविटी जो नेचर यानी प्रकृति के विरुद्ध जाती हो, वो अननैचरल सेक्स है. इस कानून में लिखा है कि कोई भी अपनी मर्ज़ी से किसी भी मर्द, औरत, या जानवर के साथ सेक्सुअल एक्ट में इन्वॉल्व होगा जो नेचर के विरुद्ध जाता हो, तो उसे उम्रकैद की सजा, या दस साल तक की जेल और फाइन भी हो सकता है.
ये अननैचरल सेक्स क्या होता है?
पहले नैचरल सेक्स की परिभाषा देखनी होगी. इस कानून के हिसाब से प्राकृतिक या नैचरल सेक्स उसे कहते हैं जिसमें औरत और मर्द के बीच सेक्स हो, और पीनस का वजाइना में पेनेट्रेशन हो. इसके अलावा हर तरह का सेक्स अननैचरल है. इसमें सिर्फ सेम जेंडर के लोगों के सेक्स सम्बन्ध नहीं आते. अगर औरत और मर्द भी सेक्स में कुछ ऐसा करते हैं जिसमें नैचरल सेक्स की डेफिनिशन के अलावा कुछ हो, जैसे ओरल सेक्स या एनल सेक्स, तो वो भी अननैचरल सेक्स के अंडर ही आएगा. यानी कानून की नज़र में औरत और मर्द भी इसके दोषी हो जाएंगे.

1861 में बना था ये कानून. ब्रिटेन की रानी क्वीन विक्टोरिया के समय का. इस कानून से उस समय की ब्रिटिश पार्लियामेंट भी सहमत नहीं थी. ये एक दूसरे देश की मोरालिटी यानी नैतिकता का बोझ था जो कानून के रूप में भारत पर थोपा गया. वरना भारतीय संस्कृति इतनी संकीर्ण सोच वाली नहीं थी कि समलैंगिकता जैसे सब्जेक्ट को नकार दे. उस समय का ये कानून भारतीय पार्लियामेंट की स्वीकृति से नहीं बना था, इसलिए इस कानून को बदलने की पूरी आज़ादी थी आज़ाद भारत को.
2000 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में NDA की सरकार थी, तब भी यह सुझाव लॉ कमीशन की 172वीं रिपोर्ट में दिया गया था कि सेक्शन 377 को हटा दिया जाना चाहिए.
2008 में एडिशनल सोलिसिटर जनरल पीपी मल्होत्रा ने कहा था कि समलैन्गिकता एक व्यसन है. बुराई है.

2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने होमोसेक्सुअलिटी को अपराध मानने से इनकार कर दिया था. लेकिन 2013 में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलट दिया. कहा कि इस बाबत कोई भी जजमेंट देने का अधिकार प्पर्लियामेंट का है. आज़ादी से पहले बने कानूनों को लेकर अगर कोई मुश्किल या परेशानी है भी तो उसे हटाने के लिए पार्लियामेंट को खुद ही ये डिसीजन लेना पड़ेगा.

सुरेश कुमार कौशल वर्सेज नाज़ फाउंडेशन केस इस पूरे मामले में एक अहम मुद्दा है. इसी मामले में ये सवाल उठा था कि सेक्शन 377 संवैधानिक है या नहीं. 2013 में इसी मामले के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक बताया. इस तरह एक ही सेक्स (लिंग) के दो लोगों के बीच बनाया गया शारीरिक सम्बन्ध एक अपराध हो गया.
2016 में पांच लोगों ने मिलकर इस जजमेंट को चैलेन्ज किया. पेटिशन यानी याचिका दायर की. इस पूरे मामले में एक बहुत अहम मोड़ तब आया जब 24 अगस्त 2017 को पुत्तुस्वामी जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने राईट टु प्राइवेसी यानी निजता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी. इसके बाद ही ये बहस शुरू हो गई कि शारीरिक सम्बन्ध बनाना भी तो लोगों की निजी चॉइस है. इसमें कोई कैसे कुछ कह सकता है?

इस वक़्त ये पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. सुनवाई हो रही है. पांच जजों की टीम है:
1.चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा
2.जस्टिस इंदु मल्होत्रा
3.जस्टिस रोहिंतन फली नरीमन
4.जस्टिस ए एम खानविलकर
5.जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़
सीनियर एडवोकेट मुकुल रोहतगी केस की पैरवी कर रहे हैं. उनके ना मौजूद होने की स्थिति में अरविन्द दातार ये ज़िम्मेदारी उठा रहे हैं.
केस के समर्थन में पैरवी करते हुए सीनियर एडवोकेट मुकुल रोहतगी ने कुछ ऐसे बेहद अच्छे तर्क दिए. सोचने लायक हैं. आप भी देखिए.
- सेक्सुअल ओरिएन्टेशन और जेंडर दो अलग अलग मुद्दे हैं. इस केस का लेना देना सिर्फ सेक्सुअल ओरिएन्टेशन से है, जेंडर से नहीं. हमारा ये कहना है कि ये कोई चुनाव का मुद्दा नहीं है. ये हमारे भीतर ही होता है, हम इसके साथ ही पैदा होते हैं.
- सेक्शन 377 ‘ऑर्डर ऑफ नेचर’ का इस्तेमाल करता है? क्या है ये ऑर्डर? ये हैं 1860 के विक्टोरियन नैतिक मूल्य.
#Section377 : "Our order is much older", says Rohatgi and points to Shikhandi in Mahabharata."This order itself is natural, is that your point?", Justice Rohinton Nariman."Yes", Rohatgi. #SupremeCourt
— Bar & Bench (@barandbench) July 10, 2018 - ‘हमारा ऑर्डर इससे कहीं ज्यादा पुराना है’. रोहतगी इसी के साथ महाभारत में शिखंडी के किरदार की तरफ इशारा करते हैं. ‘तो क्या आप ये कह रहे हैं कि ये पूरा ऑर्डर अपने आप में नैचरल है?’ जस्टिस नरीमन ने पूछा. रोहतगी ने कहा, ‘हां’.
- ‘जैसे सोसायटी बदलती है, वैसे ही मूल्य बदलते हैं. आज से 160 साल पहले जो नैतिक रहा होगा, हो सकता है वो आज नैतिक न हो.’ – मुकुल रोहतगी
किसी की पहचान तय करने का हक सिर्फ उस व्यक्ति के पास होना चाहिए. फोटो: Getty Images
- ‘हम यहां जेंडर की बात नहीं कर रहे. गे मर्द और औरत खुद को कुछ और नहीं कहते, किसी और नाम से नहीं बुलाते. यहाँ मुद्दा ओरिएन्टेशन का है.’- रोहतगी.
- सेक्शन 377 सिर्फ एक सेक्सुअल एक्ट को अपराध नहीं मानता, ये लोगों के एक पूरे समूह को अपराधी बना देता है. एक एक्ट का अपराधीकरण करने वाला कानून लोगों का अपराधीकरण नहीं करता, ऐसा कहना गलत होगा.
अगर ये कानून बदला, तो ये इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण हूगा. फोटो: Getty Images
इस पर अभी भी हियरिंग चल रही है. सुप्रीम कोर्ट आज इस पर निर्णय दे सकता है. हो सकता है आज का दिन इतिहास में एक बहुत बड़े बदलाव के रूप में याद रखा जाए. ऑडनारी आपको अपडेट देती रहेगी.
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