हमारी महिला नेताएं कभी स्कर्ट, जींस और बैकलेस चोली क्यों नहीं पहन पाती हैं?
जिन नेताओं का पास्ट ग्लैमर से भरा होता है, वो क्यों बन जातीं हैं 'सती-सावित्री'?

ये आर्टिकल मूलतः अंग्रेजी वेबसाइट डेली ओ पर छपा था. जिसे श्रीमयी पिऊ कुंडू ने लिखा है.
आज सुबह मैं अपने शहर में थी, कोलकाता. हाथ में बिस्किट और सामने चाय का कप था. नजर पड़ी एक फेमस डेली अखबार के सप्लीमेंट पर.
मैं भौंचक्की रह गई.
पूरा पेज सिर्फ इन रिपोर्ट से भरा था कि इस चुनाव में किस स्टार प्रचारक ने क्या पहना. राजनीतिक प्रचारकों के फैशन स्टेटमेंट को फिल्मों से हाथों-हाथ लिया गया. 2009 से तृणमूल की सांसद रहीं दिग्गज अभिनेत्री शताब्दी रे कहती हैं, 'ये सिर्फ एक्टर के लिए ही नहीं है. जो भी राजनीति में आता है उसे एक डेकोरम मेंटेन करना होता है. जब मैं राजनीति में आई थी, कई लोगों ने मुझे लिपिस्टक नहीं लगाने, फीके रंग की साड़ियां पहनने और एसी कार में सफर नहीं करने जैसी सलाहें दी.'
उस इंटरव्यू के साथ लगी उनकी तस्वीर में वो लंबी आस्तीन वाला ब्लाउज और ट्रेडिशनल झुमके पहने थीं. जो उनकी कमर्शियल बंगाली सिनेमा की रानी वाली ग्लैमरस इमेज से बहुत दूर हैं.
ये 'साफ़-सुथरा' होने का ढोंग क्यों?
मुश्किल से एक हफ्ते पहले वेटरन एक्ट्रेस हेमा मालिनी की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही थी. वो साड़ी में खेत में खड़ी थीं. एक हाथ में फसल का गट्ठा पकड़ रखा था. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और नेशनल इलेक्शन वॉच (NEW) की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश की निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति निराशाजनक बनी हुई है. 2019 में देश भर में केवल 9% महिला विधायक और सांसद हैं.
सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी में सबसे ज्यादा करीब 150 महिला विधायक और सांसद हैं. इसके बाद कांग्रेस है, जिसमें 91 महिला विधायक और सांसद हैं. 44 के साथ तीसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस है. इसके बावजूद भी महिला राजनेता को सेक्सिस्ट कमेंट और भद्दे मजाक का सामना करना होता है. उनके काम को पारिवारिक कर्तव्य और वंशवादी राजनीति के विस्तार के रूप में देखा से जाता है.
जरा याद करें, बिहार के डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी के उस कमेंट का, जिसमें उन्होंने प्रियंका गांधी का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिए कि वो अपनी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तरह दिखती हैं. उन्होंने कहा, “किसी की तरह दिखने से अगर कोई उसके जैसा काबिल हो जाता तो हमारे पास कई अमिताभ बच्चन और कई विराट कोहली होते. प्रियंका गांधी भले ही इंदिरा गांधी की तरह दिखती हो, राजनीति में डुप्लीकेट नहीं चलता।”
इस तरह के बयानों का दौर यहीं खत्म नहीं होता. बिहार के मंत्री विनोद नारायण झा ने भी प्रियंका पर भद्दा कमेंट किया था. उन्होंने कहा, “वो बहुत खूबसूरत हैं, लेकिन इसके अलावा उनके पास कोई राजनीतिक उपलब्धि या टैलेंट नहीं है.”
कांग्रेस की जनरल सेकेट्री प्रियंका गांधी वाड्रा ने इस साल मार्च में ट्विटर पर साड़ी में देसी अवतार वाली तस्वीर हटाकर जींस पहने हुई तस्वीर लगाकर सोशल मीडिया पर हड़कंप मचा दिया.
प्रियंका और इंदिरा के दौर में इतना फर्क है, तो कपड़ों में क्यों नहीं?
प्रियंका गांधी ने करीब एक महीने पहले ट्विटर जॉइन किया था. अब उनके 3,54,879 फॉलोवर्स हैं. इस दौरान कई युवा महिलाओं से उन्हें सराहना मिली, लेकिन कई विरोधी महिलाएं भी चुप नहीं थीं.
उनपर जो टिप्पणी की गई-
“चुनाव अभियान के लिए प्रियंका गांधी का मेकअप, जीन्स बदलकर साड़ी पहनना, अंग्रजी छोड़कर हिंदी बोलना, ये सब लोगों को बेवकूफ बनाने की कोशिश है. घोटालों की कार्रवाई में पति शामिल है और पत्नी देश की बात कर रही है. सच में शर्मनाक, सभी रैलियों का बॉयकॉट करना चाहिए.”
एक भारतीय महिला के रूप में, जो आशा कर रही है कि 2019 में 'अच्छे दिन' आएंगे, उसके लिए सभी महिला नेताओं को सती-सावित्री बनते देखना दुखद है. इसलिए, क्योंकि ये उनका असली स्वरुप नहीं है. न सिर्फ ये एक बड़े और जनरल स्तर पर स्त्री विरोधी है, बल्कि औरतों के पॉलिटिक्स में उतरने के पूरे मकसद को ही ख़त्म कर देती है.
एक शहरी महिला वोटर के तौर पर मुझे ये समझ में नहीं आता. कि जब प्रियंका को डूबती हुई कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए पॉलिटिक्स में उतरा गया. या क्षेत्रीय एक्टर्स को हायर किया गया. या जब प्रियंका लिबरल शहरी वोटर के लिए जींस पहनी दिखती हैं. उसी लिबरल के लिए जो आजकल सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथ के खतरे बता रहा है (पर किराए पर अपने घर किसी मुसलमान को नहीं देगा), या फिर वे कलाकार जो मोदी सरकार के खिलाफ पेटीशन साइन करने में लगे हैं, ऐसे में हर महिला कैंडिडेट को खुद को बेढंगी साड़ियों से ढंकने और सर पर पल्लू रखने की क्या जरूरत है.
और इसमें क्या गलत है, कि आज की मॉडर्न महिला नेताएं अपनी पसंद के कपड़ों में चुनाव प्रचार करे? अगर वो तपती गर्मी में कैंपेन कर रही हैं, तो स्कर्ट या ड्रेस पहनने में क्या बुराई है? या फिर चलो देसी बनकर ही अगर वो एक बैकलेस चोली डाल लें? इसलिए नहीं कि 'अंग प्रदर्शन' से भीड़ आकर्षित हो. बल्कि खुद के लिए, खुद की आजादी के लिए.
क्या हमें एक ऐसी महिला नेता नहीं चाहिए जो आत्मविश्वास से भरी हो, अपनी पसंद से टिप-टॉप कपड़े पहले और इस तरह सर उठा के चले कि दुनिया को पता हो कि इस नेता को समाज की टिप्पणियों का डर नहीं है. उसे पता हो कि वो कैसी दिखती है और पॉलिटिक्स में कैसा परफॉर्म करती है, इन दोनों का कोई संबंध नहीं है.
पॉलिटिक्स भी किसी आम नौकरी की तरह है. एक आम नौकरी, जिसे हम रोज़ करते हैं.
जिस ग्लैमर के चलते अभिनेत्रियों को पार्टी में लाया जाता है, उसे ही ख़त्म कर दिया जाता है. (तस्वीर में: रूपा गांगुली)
ये नैतिकता का दबाव, ये औरत का चरित्र-चित्रण करने वाले अलिखित नियम हमारे दिमाग में भरते हैं कि जो महिला पश्चिमी कपड़े पहनती है, मेकप लगाती है या जूलरी पहनती है वो अपने देश की मिट्टी के करीब नहीं है. और इसलिए वो नेता बनने, देश-सेवा करने लायक नहीं है.
ये वैसा ही है, जैसे अखबार में शादी के विज्ञापन होते हैं. जो औरतों के आगे 'गोरी', 'सुंदर', 'दुबली' और 'कॉन्वेंट एजुकेटेड' लगाकर उन्हें याद दिलाते हैं कि पुरुषवादी समाज में उनकी जगह और भूमिका क्या है.
क्या इन्हीं होने वाली दुल्हनों की तरह हमारी महिला नेताएं भी डर से भरी हुई हैं कि वे अपने काम में फ़ेल हो जाएंगी?
क्या भारतीय पॉलिटिक्स भी महिला नेताओं के लिए 'विवाह' की तरह है? जिसमें उन्हें सख्त नियमों से बंधना पड़ेगा? और इलेक्शन सिस्टम पुरुषवाद से भरी उस सास की तरह जिसे अपने आज्ञाकारी बेटे के लिए 'पढ़ी-लिखी' मगर आज्ञाकारी लड़की ही चाहिए? वही लड़का जिसकी कल्पनाओं में तो सनी लियोनी है, मगर ह्रदय में सीता जैसी 'पवित्र' और 'घरेलू' औरत की चाह है.
क्या पॉलिटिक्स वही शादी है जिससे हम युवा लड़कियां इतना डरती हैं?
अगर हम पॉलिटिक्स की बात कर ही रहे हैं. तो यहां होने वाले दोहरेपन की बात भी करते हैं. इन स्टार्ट प्रचारकों को हायर ही इसीलिए किये जाता है कि वो अपने ग्लैमर का इस्तेमाल कर वोटर, खासकर ग्रामीण वोटर को आकर्षित करें. पर उसी स्टार से ये भी अपेक्षा रखते हैं कि वो इस प्रचार में घरेलू और 'साफ़-सुथरी' दिखे.
हम महिलाएं क्यों डरती हैं?
वे हमें विलेन कहेंगे, वेश्या, या 'टेक्स-तर्रार'?
हिरोइन कहेंगे?
आइए एक बार खुद से पूछें. कि अंततः हम क्या देखकर वोट कर रहे हैं.चरित्र या कौशल?चमड़ी या ताकत?पवित्रता या सत्ता?
इस बात का जवाब खोजिए. कि उन महिलाओं से हमें डर क्यों लगता है, उनसे परेशानी क्यों होती है जो 'देसी' स्टाइल के कपड़े नहीं पहनतीं?
क्या हमने ऐसी महिला नेताएं देखी भी हैं, जो प्रचार में साड़ी नहीं पहनतीं?
हमें इस अलिखित नियम को हर बार क्यों मानना है?
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