जिन पीरियड्स पर हम भारतीय नाक चढ़ाते हैं, उन पर बनी फिल्म ऑस्कर ले आई है
जानिए उस फिल्म के बारे में जिसका नाम हर किसी की ज़बान पर है
भारत की प्रड्यूसर गुनीत मोंगा की डॉक्यूमेंट्री ऑस्कर जीत लाई है.
25 तारीख को हॉलीवुड के एकेडमी अवार्ड्स की घोषणा हुई. हर साल ये अवार्ड दिए जाते हैं, बस इनका पॉपुलर नाम ऑस्कर है. इसी में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्म की कैटेगरी में जीतने वाली फिल्म है – पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस.
दिल्ली से 60 किलोमीटर दूर हापुड़ की औरतों की जिंदगी में पीरियड किस तरह फिगर करता है, वो इस शॉर्ट फिल्म में दिखाया गया है. सबसे पहले तो इस फिल्म के बारे में जान लीजिए.
अमेरिका में लॉस एंजेल्स नाम की जगह हैं. वहां है ओकवुड स्कूल. उसी स्कूल की लड़कियों को जब पता चला कि कई देशों में लड़कियां पीरियड आने की वजह से स्कूल जाना छोड़ देती हैं, तो उन्होंने इस पर कुछ करने की ठानी. केक बेचकर, योगा क्लासेज चला कर उन्होंने तीन हजार डॉलर इकट्ठा किए. उससे पैड बनाने वाली मशीन हापुड़ में एक NGO के जरिए भिजवा दी.
ये वहीं खत्म नहीं हुआ. डिसाइड किया गया कि इसके बारे में लोगों को और जानकारी दी जानी चाहिए. लड़कियां फिर से जुट गईं. इस बारी 40000 डॉलर इकट्ठा कर लिए. तय हुआ कि इन पैसों का इस्तेमाल करके फिल्म बनाई जाएगी. वो फिल्म, जो दिखाएगी पीरियड को लेकर कितना स्टिग्मा है समाज में. और पैड बनाने वाली मशीन से इसमें क्या बदलाव आया है. गुनीत मोंगा प्रड्यूसर बनीं, डिरेक्टर तय किया गया रेका ज़ेहताब्ची को. मंदाकिनी ने ग्राउंड पर जाकर शूट किया. स्नेहा, सुमन, सुषमा , प्रीति, रेखा जैसी कई लड़कियों ने अपनी कहानी सुनाई. बताया कि किस तरह पीरियड्स की वजह से किसी का स्कूल छूट गया. किसी ने शर्म के मारे बाहर निकलना छोड़ दिया. कईयों को तो पैड्स के बारे में मालूम भी नहीं था.
फिर शुरू हुआ गांव की औरतों को सिखाने का सफ़र. किस तरह एक ग्रुप बनाकर उन्हें पैड बनाने वाली मशीन चलानी सिखाई गई. उनके बनाए पैड्स को घर-घर, दुकान-दुकान जाकर बेचा गया. नाम रखा गया FLY. ताकि औरतें उड़ सकें. पीरियड से बंध कर ना रह जाएं. स्नेहा दिल्ली पुलिस में जाना चाहती है. शादी से बचना चाहती है. उसका सपना है कि अगके 5 साल में वो दिल्ली पुलिस में सब इंस्पेक्टर हो जाएगी. लेकिन जहां भी जाएगी उसे FLY पैड्स ज़रूर मिलेंगे. हर जगह मिलेंगे.
औरतों को इस पूरे बिजनेस से जुड़ते देख पुरुष भी कोशिश करते हैं अपनी शर्म छोड़ने की. उनको औरतें भी धीरे धीरे बताती हैं पूरे बिजनेस के बारे में. पहले उनको लगा कि बच्चों के डायपर बन रहे हैं यहां. फिर पता चला तो वो भी साथ काम करने में लग गए.
अजमेर के पास तिलोनिया में बेयरफुट कॉलेज है. वहां पर भी औरतें इसी य्तारह एक दूसरे को सपोर्ट करती हुई तकनीकी नॉलेज बांटती हैं, सोलर कुकर बनाना, सैनिटरी पैड बनाना, कपड़े बुनना, इलेक्ट्रिक सामान की मरम्मत इत्यादि जैसे काम वहां होते हैं. उस तरह का एफर्ट भी सिनेमा बनाने के लिए एक अच्छा बेस बन सकता है.
फिल्म आशा जगाती है. जैसे ही इसके ऑस्कर जीतने की खबर मिली, गुनीत मोंगा ने ट्वीट किया. अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा ने भी इसे बधाई दी. डॉक्यूमेंट्री के स्तर पर फिल्म कोई बहुत ख़ास नहीं है. जो तकनीक बाकी डॉक्यूमेंट्रीज में इस्तेमाल की जाती हैं, वही इसमें भी हैं. कई जगहों पर ट्रीटमेंट बेहतर हो सकता था. पीरियड को लेकर अरुणाचलम मुरुगनआनंदम पर भी काफी विडियो किये जा चुके हैं. लेकिन अच्छी बात ये है कि उम्मीद जगाने को लेकर ये फिल्म समझौता नहीं करती. इस मामले में इस फिल्म का जीतना एक अच्छा संकेत है.
इस फिल्म का नाम इस मायने में भी ज़रूरी है क्योंकि अंग्रेजी में पीरियड फुल स्टॉप को कहते हैं. यानी जहां वाक्य खत्म होने पर पूर्ण विराम लगा दिया जाए. ये किसी के लिए उसकी जिंदगी रोकने का सबब नहीं बनाना चाहिए. अंग्रेजी में सेंटेंस (Sentence) का एक मतलब सज़ा भी होता है. कई सुदूर गांवों में, छोटे शहरों में पीरियड आना अभी भी एक सजा से कम कुछ नहीं. इस तरह ये नाम उसे भी हाईलाईट करता है.
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