फौज़िया दास्तानगो: उनकी कहानी, जो कहानियां सुनाती हैं

भारत की पहली महिला दास्तानगो.

ऑडनारी ऑडनारी
जून 27, 2019

एक होता है किस्सा. एक होती है दास्तान. किस्सा होता है छोटा. दास्तान, लंबी कहानी. यही लंबी कहानी कहने का जो हुनर है, वो होता है दास्तानगोई. जैसे किस्सागोई होती है, वैसे ही. 

ईरान से हिंदुस्तान आया ये हुनर. करीब 13वीं शताब्दी में. अब कोई चीज़ हिन्दुस्तान आए और उस पर हिन्दुस्तानी रंग न चढ़े, ये तो हो ही नहीं सकता. तो बस दास्तानगोई भी रंग उठी हिन्दुस्तानी रंग में और मुक़म्मल तौर पर हिंदुस्तानी हो गई. अकबर के दौर में ये काफी लोकप्रिय हुई. बादशाह ने दास्तानगोई को ज़िंदा रखने के लिए बहुत काम करवाया, इस तरह शहर-ए-दिल्ली में दास्तानगोई बहुत फेमस हुई. पहले-पहल दास्तान दो तरीके की हुआ करती थी: रज्म यानी जिसमें शासकों की बड़ी लड़ाइयां बताई गई हों. और बज़्म यानी महफ़िलों के किस्से.

जब यह फ़न लखनऊ पहुंचा तो इसमें दो नई शाखें पनपीं. ‘तिलिस्म’ और ‘अय्यारी’ की. यानी बहरूपिए और जादूगरों की दास्तानें भी सुनाई जाने लगीं.  

दास्तानें तो बहुत-सी सुनाई गई, पर इनमें सबसे मशहूर हुई ‘दास्तान-ए-अमीर-हमज़ा’. इस दास्तान में क्या था?  इसमें हजरत मोहम्मद साहब के चचा ‘अमीर हमज़ा’ की जिन्दगी और उनके शानदार कारनामों का बयान था. कहते हैं हर तहज़ीब, हर शय फ़ना होती है, दिल्ली के आख़िरी पेशेवर दास्तानगो ‘मीर बाकर अली’ का इन्तक़ाल 1928 में हुआ और इसके साथ ही ये अज़ीम रवायत भी फ़ना हो गई. हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म की धारणा है जिसका किस्सागोई से कोई लेना देना नहीं है, इतना ज़रूर है कि किस्सागोई की कहानी 1928 में ही खत्म नहीं हुई. 2005 में मशहूर उर्दू नक़्क़ाद (आलोचक) ‘शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी’ साहब ने इस फ़न को दोबारा ज़िन्दा करने की कोशिश की. इस मुहीम में उनका साथ दिया उनके भतीजे ‘महमूद फारुकी’ ने.

meer-bakar-ali-750x500_062719060556.jpgमीर बाकर अली.

दास्तानगोई की इस नई शुरुआत में बहुत कुछ नया था, वक़्ती हालात के मुताबिक नये विषयों पर दास्तानें कही जाने लगीं. मंटो पर दास्तान  सुनाई गई ‘मन्टोइयत’, डॉ. विनायक सेन की गिरफ़्तारी पर ‘दास्तान-ए-सिडीशन’, भारत पकिस्तान के बंटवारे पर ‘दास्तान-ए-तक़सीम-ए-हिन्द’, विजयदान देथा की कहानी चौबोली पर ‘दास्तान-ए-चौबोली’, और भी बहुत सारी दास्तानें सुनाई गईं. इन्हें जश्न-ए-रेख़्ता जैसे कार्यक्रमों में सुना जाता रहा है.

मीर बाकर अली के इंतक़ाल तक जितनी भी महफिलों में दास्तानगोई हुई उसमें दास्तानगो पुरुष ही थे. उर्दू शायरी में तो फिर भी परवीन शाकिर, सारा शगुफ़्ता, मीना कुमारी, अदा जाफ़री जैसे नाम मिल जाते हैं. लेकिन दास्तानगोई में ऐसे नाम ढूंढने से भी नहीं मिलते. घर पर हमने किस्से सुने दादी, नानी और मां से, लेकिन महफिलों की किस्सागोई में वर्चस्व रहा पुरूषों का. जिन हिन्दुस्तानी घरों की हर छोटी-बड़ी रस्मों में किस्से, कथाएं, कहानियां सुनाई जाती हों. ऐसे गीत गाये जाते हों जो पूरी की पूरी कहानी कहते हों. सुनने और सुनाने वाली औरतें ही हों. भला उस हिन्दुस्तान की औरतों में दास्तानगोई का फ़न न रहा हो, इस पर यकीन नहीं होता.

2005 में जब दास्तानगोई की दोबारा शुरुआत हुई तो महिलाओं के लिए भी दास्तानगोई के दरवाज़े खुल गए. 2006 में हिन्दुस्तानी दास्तानगोई को फ़ौज़िया के रूप में पहली महिला दास्तानगो मिली. चलिए देखते हैं फ़ौज़िया का सफ़र.

fouzia-2-750x500_062719060633.jpgतस्वीर: ऑडनारी

पुरानी दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में पली-बढ़ी फ़ौज़िया एक मध्यवर्गीय परिवार से आती हैं. अपने बचपन को याद करते हुए फौज़िया कहती हैं-

"उन दिनों जिंदगी संघर्ष से भरी थी. मेरे पिता स्कूटर मकैनिक और मां हाउसवाइफ़ थीं. मैं परिवार पर निर्भर नहीं रहना चाहती थी, इसलिए सातवीं क्लास में मैंने अपनी जिम्मेदारी खुद उठाने का फ़ैसला किया और ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. घर का माहौल साहित्यिक नहीं था, इसके बावजूद कहानियों में मुझे दिलचस्पी होने लगी. कहानियां पढ़ने से मुझे सुकून मिलता था."

फ़ौज़िया की स्कूली शिक्षा तुर्कमान गेट इलाके के बुलबुली खाना नाम के सरकारी स्कूल से उर्दू मीडियम में हुई. स्कूल में ही वो उर्दू कहानियां याद करने और सुनाने लगीं. बारहवीं तक उर्दू मीडियम से पढ़ाई करने वाली फ़ौज़िया ने एम.ए. किया हिंदी साहित्य में. इस तरह उन्होंने दोनों भाषाओँ पर अपनी पकड़ बनाई.

हमेशा से किस्सों कहानियों को ले कर जज़्बाती रहीं फ़ौज़िया ने एक एन.जी.ओ. में प्रोजेक्ट मैनेजेर की नौकरी करनी शुरू की. लेकिन ज्यादा दिनों तक वो दास्तानों की दुनिया से दूर न रह सकी. 2006 में फ़ौज़िया के दोस्त ने उन्हें दास्तानगोई के बारे में बताया. इसके बाद उन्होंने महमूद फ़ारूक़ी और दानिश हुसैन द्वारा पेश की गई दास्तानगोई देखी. कार्यक्रम के बाद फ़ौज़िया उनके पास गई और कहा कि ‘मुझे दास्तानगोई सीखनी है’, कुछ इस क़दर शुरू हुआ फ़ौज़िया का दास्तानगोई का सफ़र. उन्होंने दानिश इक़बाल साहब से दास्तानगोई की तालीम ली. वो सारे हुनर जो दास्तानगो के लिए ज़रूरी थे. मसलन बुलंद आवाज़, दास्तानों को ज़बानी याद करना, एक ही मुद्रा में घंटों बैठना, रियाज़ से उन्होंने खुद में उतारे. 

अपनी पहली परफॉर्मेंस के बारे में बताते हुए फ़ौज़िया कहती हैं-

"2006 में पहली बार डिस्कवरी (गुरुग्राम) में मुझे दास्तानगोई करने का मौका मिला. इस परफॉर्मेंस को लेकर मैं नर्वस और घबराई हुई थी. इस बात को ले कर डर रही थी कि कहीं कोई लाइन भूल न जाऊं, पर ऐसा नहीं हुआ. मैंने अपने गुरु दानिश हुसैन जी के साथ ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ दास्तान सुनाई.

यह पहली बार था जब कोई औरत दास्तानगोई कर रही थी इसलिए लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि मैं यह कैसे कर रही हूं. कार्यक्रम के बाद कुछ लोगों ने मेरी तारीफ़ की और कुछ लोगों का कहना था कि आप यह कैसे कर पाएंगी, यह ‘मेल डॉमिनेटेड’ क्षेत्र है. यहां जगह बनाना बहुत मुश्किल है. लेकिन मैंने सिर्फ अपनी सुनी. मैंने फैसला कर लिया था कि मुझे दास्तानगोई ही करनी है."

फ़ौज़िया की जिंदगी में एक टर्निंग पॉइंट तब आया जब उन्होंने 2014 में अपनी लेक्चरर की नौकरी छोड़ पूरी तरह दास्तानगोई को ही अपनी जिंदगी समर्पित करने का फैसला किया. 2015 में उन्होंने लेखक, निर्देशक दानिश इक़बाल के साथ काम करना शुरू किया. आज फ़ौज़िया दास्तानगोई के सैकड़ों कार्यक्रम कर चुकी हैं और लगातार इस भुलाई जा चुकी कला को फिर से लोकप्रिय बनाने में लगी हैं.

fouzia-3-750x500_062719060700.jpgतस्वीर: ऑडनारी

दास्तानगोई में पुरुषों के आधिपत्य को तोड़ अपनी जगह बनाने वाली फ़ौज़िया अशोका यूनिवर्सिटी, जामिया यूनिवर्सिटी में गेस्ट लेक्चरर के तौर पर जाती हैं. साथ ही लेडी इरविन कॉलेज, कमला नेहरू कॉलेज सहित दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों में दास्तानगोई की वर्कशॉप कर चुकी हैं. फ़ौज़िया का कहना है-

"हमारी कोशिश है कि दास्तानगोई में औरतों की भी उतनी ही भागीदारी हो जितनी पुरुषों की है. यह फ़न जितना पुरुषों का है उतना ही महिलाओं का भी है. अगर मैं दास्तानगोई कर सकती हूं, तो कोई भी लड़की कर सकती है. बशर्ते वह इस फ़न में दिलचस्पी रखती हो और तालीम के लिए मेहनत करने से गुरेज़ न करे."

दास्तानगोई के भविष्य को ले कर फ़ौज़िया को बहुत उम्मीदें हैं. वो छोटे शहरों तक इस फ़न को पहुंचाना चाहती हैं. इसे उतना ही फेमस बनाना चाहती हैं जितना यह अक़बर के दौर में था. अपने बुलंद इरादे को वह अमीर क़ज़लबाश के एक शेर से बयान करती हैं-

      ‘मिरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा

      ‘इसी सियाह समुन्दर से नूर निकलेगा’ 

ऑडनारी के लिए ये स्टोरी हमारी इंटर्न यशस्वी पाठक ने की है.

 

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