पांच महिला किसानों की ऐसी कहानियां जो शायद आपको टीवी न्यूज पर कभी नहीं दिखेंगी
अपने ही लोकसभा क्षेत्र से आई लछमिनी और रामेसरी के सवालों का जवाब कब देंगे प्रधानमंत्री?
किसान शब्द सुनते ही आपके दिमाग में क्या आता है?
एक तस्वीर आती होगी, उसमें एक बूढ़ा सा आदमी सर पर पगड़ी बांधे दिखाई देता होगा. शायद बैठा होगा, या खेत में चल रहा होगा. कोई आदमी जो बैलों से हल जोत रहा होगा. वो तस्वीर कुछ ऐसी होती होगी.
तस्वीर: पीटीआई
अब कुछ किसानों के चेहरे हम आपको दिखाते हैं.
ये.
तस्वीर: ऑडनारी
ये भी.
तस्वीर: ऑडनारी
और ये.
तस्वीर: ऑडनारी
किसान शब्द सुनकर दिमाग में औरतों की तस्वीर नहीं आती. लेकिन ये महिलाएं मौजूद थीं, किसान मुक्ति मोर्चा में. 209 किसान संगठन अपनी मांगों का प्रदर्शन करने के लिए दिल्ली पहुंचे और रामलीला मैदान से संसद भवन तक मार्च किया. किसानों के हक और उनकी दिक्कतों के बारे में आपने कितनी रिपोर्टें पढ़ीं हैं, हम नहीं जानते. लेकिन उनकी तकलीफों का असर उनकी ज़िन्दगी पर कितना पड़ा है, ये आप उनसे बात कर के ही जान पाएंगी. टीवी या खबरें आपको बता सकते हैं कि फसल बीमा में क्या दिक्कतें हैं, या फिर मिनिमम सपोर्ट प्राइस (न्यूनतम समर्थन मूल्य- किसी भी फसल पर सरकार के द्वारा दी जाने वाली न्यूनतम राशि जो किसानों की लागत निकाल दे) में कितनी बढ़ोतरी हुई है और कितनी नहीं. लेकिन ऑडनारी ने वहां पहुंच कर बात की किसानों से उनके घर के बारे में. कैसे चलाती हैं वो अपनी गृहस्थी. क्या मतलब है महंगाई का. कहां फेल हुई है सरकार.
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सुभाउती: सर पे छत नहीं, इसलिए सड़ गया अनाज. जो बचा वो कुत्ते खा गए.
सुभाउती को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर बनाने के लिए समर्थन राशि मिलना चाहिए. लेकिन वो बताती हैं कि जिनके घर पहले से बने हुए हैं, उनको राशि मिलने में आसानी होती है. जिनकी मड़ई (कच्चा घर) बना हुआ है, उनको नहीं मिलता कुछ. लोग कनेक्शन का फायदा उठाकर अपने पहले से बने पक्के घरों को बढ़ा लेते हैं. और बनवा लेते हैं. जिनको असल में ज़रूरत है उनको फायदा नहीं मिलता. सुभाउती के छोटे से खेत में जितनी फसल हुई, उसे रखने के लिए उनके सर पर छत नहीं थी. उसे बाहर रखना पड़ा. बारिश में सारा अनाज सड़ गया. बचा-खुचा जो ठीक था, उसे कुत्ते खा गए. अब इसकी कीमत उन्हें कौन देगा, ये सवाल हम सरकार से पूछेंगे तो भी जवाब मिलने की संभावना कम ही है.
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रामेसरी देवी*: राशन कम कर दिया, गैस महंगी. बच्चे भूखे सो जाते हैं
पहले पांच किलो मिलता था अनाज, अब तीन किलो. बच्चे घर में अक्सर भूखे सो जाते हैं. प्रति व्यक्ति आमदनी अगर 250 रुपए है, तो इतना महंगा सिलिंडर कैसे भरवाएंगे. बच्चे खाना मांगते हैं तो दस बीस रुपए की लकड़ी मंगवा कर उस पर कुछ कुछ बना देते हैं. वो भी नहीं होता तो भूखे सोते हैं. ये शिकायत वहां से आई है जहां से नरेंद्र मोदी ने अपना लोकसभा चुनाव लड़ा था.
लछमिनी*: खम्भा गाड़ दिया है, लाइन नहीं आती. बिल तीन चार हज़ार रुपए आता है.
गांव-गांव में बिजली पहुंचाने की अपनी सफलता को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खूब गुणगान किया अपनी बीजेपी सरकार का. लेकिन गांव वालों से बात करके एक बार सच्चाई पता कर के देखना शायद ज़रूरी नहीं समझा. मन की बात रेडियो पर करते हैं तो उन्हें देश सुनता है. एक बार किसानों के मन की बात सुनने के लिए समय निकाल लेते तो शायद इतनी दिक्कतें नहीं होतीं. वाराणसी तहसील के परमानंदपुर गांव से आईं लछमिनी बताती हैं कि महीने का दो-तीन हजार रुपए बिजली बिल आना आम है. जबकि वहां सिर्फ खम्भे गड़े हुए हैं, उनका फायदा कुछ नहीं. बारगढ़ में पदमपुर गांव से भी यही शिकायत आई है.
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जोगंती देवी*: विधवा पेंशन नहीं मिलती, मनरेगा का भी कोई पैसा नहीं मिला
ये शिकायत वहां मौजूद कई औरतों की थी. किसानी में हाल जोतने से लेकर बाहर बिकाई करने तक का काम घर के मर्द करते हैं. घर औरतें संभालती हैं. जिनके पति मर गए, उनको विधवा पेंशन मिलती है. ताकि वो अपना गुज़ारा कर सकें. यहां कई औरतें ऐसी हैं जिनको अपनी विधवा पेंशन नहीं मिली है. इस बारे में कोई शिकायत करने पर कोई सुनता भी नहीं. एक दो ब्लाक ऊपर तक शिकायत जाती है, फिर फाइलों में दब कर रह जाती है. जितने दिन मनरेगा में काम किया, उसके भी पैसे नहीं मिले. अब वो अपना खर्च कैसे चलाएंगी, इस पर प्रधानमंत्री को एक बार अपने मन की बात ज़रूर करनी चाहिए. हम सुनना चाहेंगे.
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देउकी*: स्कूल में मास्टर नहीं हैं, बच्चे कैसे पढ़ेंगे
सरकारी स्कूलों में मास्टर नहीं हैं. सरकार चाहती है कि बच्चे पढ़ें लिखें तो उनके लिए स्कूल की व्यवस्था कौन करेगा. पेपर पर स्कूल बन गए हैं. असल में उनकी हालत जर्जर है. कोई पढ़ाने आता है कोई नहीं. पढ़ाई जो होती भी है उसका भी क्या ही स्तर है वो रामभरोसे चल रहा है. प्राइवेट स्कूल दूर हैं, उनकी फीस भरने की औकात नहीं है. बच्चे हारकर मेहनत मजूरी में लग जाते हैं ताकि घर में कुछ पैसे आएं. अगर इस पर सवाल पूछे जाएं तो यकीनन सरकार आपके सामने आंकड़े प्रस्तुत करके कहेगी कि फलां तहसील के फलां गांव में फलां स्कूल है जिसमें फलां मास्टर पढ़ाते हैं और फलां तनख्वाह लेते हैं. पिछले फलां साल से ले रहे हैं, और अगले फलां साल तक लेते रहेंगे. लेकिन वो पढ़ा कितना रहे हैं और असल में स्कूल जाते हैं या नहीं, इस पर सच आपको खुद जाकर जानना होगा.
महिलाओं का ये समूह एक साथ बैठकर जब अपनी तकलीफें बयान करता है, तब लगता है कि भारत के ‘गांवों का देश’ होने के दावे कितने खोखले हैं. हाथों में नरमुंड लिए वो किसान अपने साथियों की आत्महत्या का मातम मनाते हुए, शायद कुछ लोगों को किसी प्रोपगैंडा का हिस्सा लग सकते हैं. लेकिन कैमरे के पीछे उनके घर की हालत जानने की कोशिश करने पर खुद पर शर्म ही आएगी. आप इन किसानों के साथ बैठकर एक दिन गुज़ारिए. इनकी बातें सुनिए. दिल्ली में बैठे-बैठे दिल्ली आपसे कितनी दूर लगेगी, इसका अंदाजा हम आपको बता भी नहीं सकते.
*पहचान छुपाने के लिए कुछ नाम बदल दिए गए हैं
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