'टिकली एंड लक्ष्मी बम' के डायरेक्टर आदित्य कृपलानी का मस्त वाला इंटरव्यू

कई अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्ड जीत चुकी फिल्म को बनाने वाले आदित्य अब नया क्या ला रहे हैं.

आपात प्रज्ञा आपात प्रज्ञा
नवंबर 28, 2018
आदित्य लैंगिक समानता को बहुत अहम मानते हैं. फोटो क्रेडिट- ट्विटर

कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी फिल्म 'टिकली एंड लक्ष्मी बम' के डायरेक्टर आदित्य कृपलानी एक नई फिल्म पर्दे पर ला रहे हैं. फिल्म का नाम है- 'टोटा, पटाखा, आइटम, माल'. परिदृश्य फिर एक बार महिलाओं के जीवन पर ही आधिरित है. एक बार फिर आदित्य महिलाओं के जीवन और उसकी परेशानियों, कशमकश, उलझनों को खोजने का प्रयास करते नज़र आते हैं. आदित्य पहले बता चुके हैं कि लिखना उनके लिए बिल्कुल सहज अभिव्यक्ति है. फिल्म 'टिकली एंड लक्ष्मी बम' के ही नाम से वो किताब लिख चुके हैं. इस ही उपन्यास पर आधारित थी उनकी फिल्म. इसके साथ ही वो 'बैक सीट' और 'फ्रंट सीट' नाम के उपन्यास भी लिख चुके हैं. उनकी दूसरी फिल्म और औरतों की परिस्थितियों पर हमने उनसे बात की. प्रस्तुत हैं इस बातचीत के अंश-   

प्रश्न- आपने दोनों फिल्में महिला केन्द्रित बनाईं. 'टिकली एंड लक्ष्मी बम' और अभी नई आने वाली 'टोटा, पटाखा, आइटम, माल.' आप ऐसा चाहते थे कि फिल्में महिलाओं से संबंधित ही बनाएं या ये बस नैचुरली हो गया. आपको इस ही तरह की फिल्में मिलीं, कहानियां इस तरह की सामने आईं.

जवाब- मैं ये कहूंगा कि ये समानता की तरफ एक कदम है. जब मैं पढ़ रहा था मेरे प्रोफेसर ने एक बार कहा कि जो लोग कह नहीं पाते हैं उसे आवाज़ दी जानी चाहिए. ये बात मुझे बहुत प्रभावित कर गई. कहीं बहुत अंदर मेरे ज़हन में बैठ गई. मैं हमेशा समानता ढूंढने की कोशिश करता हूं. आजकल ऐसा दौर है कि महिलाएं बराबरी पर नहीं हैं. उनका शोषण हो रहा है, इसलिए मैं ऐसी कहानियां बोल रहा हूं. इसी राह पर चलने के लिए आगे मुझे मर्दों की कंडीशनिंग के बारे में भी लिखना पड़ेगा. मेरे हिसाब से दोनों ही फिल्मों में हम ये ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं कि मर्दों की कंडीशनिंग कैसी है और औरत और मर्द एक कैसे हैं. मेरे हिसाब से जेंडर के नीचे मानवता है. जहां हम सब एक जैसे हैं.

dtetetiwkaayngt_112818090610.jpgआदित्य डायरेक्टर होने के साथ-साथ एक लेखक भी हैं. फोटो क्रेडिट- ट्विटर

जब मैं अफ्रीका गया था तो वहां मैंने देखा कि जानवरों का व्यवहार बिल्कुल बराबरी का है. जानवर भेदभाव नहीं करते. ये मेरी सीख थी वहां जाने के बाद. मुझे लगता है कि ये ही खोजने की कोशिश मैं फिल्मों में करता हूं. कितनी समानता हमारे समाज में है. हमको कहां जाना चाहिए.

ऐसा लगता है कि मैं औरतों की कहानियां बता रहा हूं पर असल में मैं समानता की बात करता हूं. खास तौर पर जेंडर इक्वेलिटी.

हम कैसे वहां पहुंचेंगे? हमें अगर बराबरी का समाज बनाना है तो मर्दों की कंडीशनिंग को भी समझना होगा. ये एक कोशिश है कि औरतों की वो जो सोच है, कशमकश है कि हम करें भी या न करें. अगर हम कोई ठोस कदम उठाते हैं तो हम कहां जाएंगे. क्या हम भी उन्हीं की तरह बन जाएंगे. अगर नहीं उठाते हैं तो ये लोग हम पर जुल्म ढाते ही रहेंगे. ये जो पूरी कशमकश है इस बारे में 'टोटा, पटाखा, आइटम, माल' बात करती है.

प्रश्न- 'टोटा, पटाखा, आइटम, माल' फिल्म का ट्रेलर हमने देखा. इसमें एक जगह औरत कहती है कि तुम वो सब करोगे जो लोग उम्मीद करते हैं कि महिलाएं करें. अगर जो शोषण आदमी कर रहे हैं जवाब- वही औरतें करने लगेंगी तो क्या एक झटके में उनके प्रति संवेदना खत्म नहीं हो जाएगी?  

जवाब- मेरे हिसाब से वो खत्म नहीं होगी. यहां पर ये अप्रासंगिक है. जो मर्द करते हैं वो औरतें करेंगी तो उनको जो महसूस होगा वो मर्दों को जो महसूस होता है उससे अलग होगा. यही खोजने की हम कोशिश कर रहे हैं. जैसे अशोक ने लड़ाई जीत ली पर उन्हें जीत नहीं कुछ और ही महसूस हुआ. वो ही हम ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे लगता है कि संवेदना की बात ही नहीं आएगी यहां पर क्योंकि इस जगह में महिलाएं पुरुषों से अलग होती हैं. जो बदले की भावना है वो कुछ और है. वहां आप एक मोटिव के साथ गए हो.

doljapovsaearep-750x400_112818090740.jpg'टोटा, पटाखा, आइटम, माल' फिल्म की शूटिंग से. फोटो क्रेडिट- ट्विटर

प्रश्न-  ऐसा नहीं होगा कि पूरे समाज का बदला एक ही पुरुष से लिया जा रहा है?

जवाब- नहीं, ऐसा नहीं है. वो औरतें किसी ऐसे इन्सान को नहीं पकड़तीं जिसने उनके साथ कुछ गलत किया है. वो दिखाना चाहती हैं कि जो मर्द कर सकते हैं वो औरतें भी कर सकती हैं. वो नहीं करतीं क्योंकि वो करना नहीं चाहतीं. वो बस एक उदाहरण बनाने की कोशिश करती हैं. महात्मा गांधी को हम क्यों याद करते हैं, क्योंकि वो एक उदाहरण बने.

फिल्म ये ढूंढने का प्रयास है कि एक मर्द को हम ये महसूस करा पाएं कि 8 बजे के बाद औरतों को किस किस्म का डर लगता है, दिल्ली में या आसपास के इलाकों में. एक चीज़ है रेप होना. बहुत ही भयानक है. एक है इसका डर. हर रोज़ इस डर में जीना. कोई घटना और उसका डर. मैं मुंबई में पला बड़ा हूं. मैंने यहां नहीं देखा कि शाम होते ही औरतें सड़कों से गायब होने लगें. पर दिल्ली जैसे शहरों में ऐसा नहीं है. रात में बहुत ही कम औरतें आपको पब्लिक प्लेस में दिखाई देती हैं. ये मेरे लिए बहुत ही अजीब बात थी.

हम फिल्म में इस चीज़ को एक्सप्लोर करने की कोशिश कर रहे हैं कि जो घटना का डर है न. हर रोज़ उस डर के साथ जीना कैसा होता है वो आदमियों को भी पता चले. आदमी वो नहीं समझ पाएंगे क्योंकि जब फिल्म शुरू होती है तो आदमी कहता है मेरा गेंगरेप कर रहे हो, चलो मैं मदद कर देता हूं. वो बहुत ही सहज टिप्पणी है क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि ये क्या है. रेप होना कैसा होता है. एक आदमी अगर समझ पाएगा कि ये डर क्या होता है तो सबके लिए ये उदाहरण होगा.

dy72ugqwaaayh9s-750x400_112818090757.jpgएक अवॉर्ड फंक्शन के दौरान की तस्वीर. फोटो क्रेडिट- ट्विटर

औरतों के अंदर भी वो निर्दयता है पर वो बहुत संवेदनशील भी हैं इसलिए कोई ऐसा कदम नहीं उठाती हैं. अगर औरतें निर्दयी होती हैं तो उनकी संवेदनशीलता का क्या होगा. कैसा होगा जब बदले की भावना और संवेदनशीलता औरतें एक साथ महसूस करेंगी? ये ही सब खोजने का प्रयास हम कर रहे हैं. जो फिल्म में चल रहा है. जो वो लड़कियां महसूस करती हैं आप भी वो महसूस कर सकें बिना असल में वो सबकुछ किए हुए जो वो करती हैं. आप समझ सकें कि अगर आप वो करते हैं तो आपको कैसा लगेगा. ये ही फिक्शन की ताकत है कि आप भी वो महसूस कर सकेंगे जो फिल्म के किरदार महसूस करते हैं.

प्रश्न- 'टिकली एंड लक्ष्मी बम' में आप एक महत्वपूर्ण मुद्दा सामने रखते हैं कि भले ही औरतें काम कर रही हों पर जो सत्ता है वो आदमियों के हाथ में है. इस परिस्थिति को बदलने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए?

जवाब- मेरे लिए समानता को समझने के लिए हमें दोनों पक्षों की कंडीशनिंग को गहराई से समझना पड़ेगा. एक प्ले है जिसमें कहा जाता है कि वजाइना के बारे में बात ही नहीं की जाती पर पीनस के बारे में भी कहां ही बात की जाती है? आदमी ही कहां इस बारे में बात करते हैं? ये जो मुद्दा है वो कंडीशनिंग का है. कौन सा समय है जब आदमी ये सोचने लगता है कि औरतें उससे अलग हैं. आदमियों के काम अलग हैं. औरतों के काम अलग हैं. ये बात कहां से आती है. मर्द अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर कहां बात करते हैं? वो कितना सहज हैं इस बारे में बात करने में. कोई पैदा होते ही तो नहीं सोचता कि मैं ऊपर हूं औरतें नीचे. ये तो सिखाया जाता है न.

'जैसे मर्दों को औरतों की कंडीशनिंग समझ के उसे तोड़ने में मदद करनी होगी. वैसे ही औरतों को भी मर्दों की कंडीशनिंग समझ के उसे खत्म करने में मदद करनी होगी.

dllmbhfuyae9b_j-750x400_112818090702.jpgफिल्म 'टिकली एंड लक्ष्मी बम' का एक दृश्य. फोटो क्रेडिट- ट्विटर

प्रश्न- आप आगे भी इस ही तरह की महिला केंद्रित फिल्म बनाएंगे?

जवाब- अगली फरवरी में हम एक फिल्म कर रहे हैं, 'काली एंड सरस्वती'. वो भी इस ही मुद्दे पर है. इसमें भी हम औरतों और मर्दों की कंडीशनिंग के बारे में समझने की कोशिश कर रहे हैं.

प्रश्न- आपके जीवन में कोई ऑडनारी है?

जवाब- मेरी पत्नी, जो कि इस फिल्म की प्रोड्यूसर भी हैं. मेरी चीफ एसिस्टेंट डायरेक्टर, अनुराधा पांडे. तीसरी हैं, मेरी फिल्म की डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रॉफी, अदिति शर्मा. मेरी एडिटर, रचिता सिंह. इस समय मेरे जीवन ये चार औरतें ऑडनारी हैं.

 

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