डियर आयुषी, जो बच्चों के लिए सेंसिटिव नहीं है वो दुनिया की किसी चीज के लिए नहीं हो सकता

'सज़ा से मैंने कभी किसी बच्चे को अनुशासित होते हुए नहीं देखा'

आप पढ़ रहे हैं हमारी सीरीज- 'डियर आयुषी'. रिलेशनशिप की इस सीरीज में हम हर हफ्ते 'चचा' की एक चिट्ठी पब्लिश करेंगे. वो चिट्ठी, जिसे वह अपनी बेटी आयुषी के लिए लिखते हैं. इन चिट्ठियों से आपको ये जानने को मिलेगा कि एक पिता अपनी बेटी के लिए क्या चाहता है. ये चिट्ठियां हर उस पिता की कहानी बयान करेंगी, जिनके लिए उनकी बेटी किसी 'परी' से कम नहीं होती, जिनके लिए उनकी बेटी कुदरत की सबसे प्यारी रचना होती हैं. 

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डियर आयुषी,

तुमको जितनी जल्दी फिल्मी गाने याद होते हैं उससे मुझे लगता है कि तुम मेरी ही बेटी हो. न याद होते तब भी मेरी ही रहती लेकिन इससे पक्का वाला लगने लगा है. मैं भी बाकी चीजें याद करने में फिसड्डी था, लेकिन गाने एक बार में जुबान पर चढ़ जाते थे. कल पता है क्या हुआ. एक के बाद एक बुरा और अच्छा अनुभव. एक दोस्त ने वीडियो भेजा था. जिसमें कोई एक नन्हें से बच्चे को थप्पड़ मार रहा था/रही थी. वो रोने न पाए उसके लिए मुंह भी बंद कर रहा था/रही थी. मैंने उसे बताया कि ऐसे वीडियोज मैं देख नहीं पाता. मुझसे तो बच्चों की आंखों में आंसू भी नहीं देखे जाते. पता नहीं कैसे लोग बच्चों को इतनी बुरी तरह पीट देते हैं. वैसे तो किसी को भी दर्द से गुजरते देखना मेरे लिए असहनीय है लेकिन बच्चों पर क्रूरता करने वाले तो सच्चे शैतान होंगे. जरा सा भी संवेदनशील इंसान ऐसा नहीं कर सकता. 

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फिर एक दोस्त ने बताया कि वो टीचर है. उसने पढ़ाने का तरीका बदल दिया है. उसकी क्लास में बच्चे नाचते हैं और गाते हैं. सीखना उन बच्चों के लिए होमवर्क या क्लास वर्क नहीं फ़न है. मुझे लगा कि उसके जैसी टीचर ने मुझे पढ़ाया होता तो मैं भी रोज स्कूल जाता. घर में बहाने न बनाता. जैसे तुम नहीं बनाती हो. अच्छी बच्ची की तरह रोज स्कूल जाने को तैयार रहती हो. मुझे तो लगता है आजकल बच्चों की घर से ज्यादा मौज स्कूल में रहती है. टीचर्स भी कूल रहते हैं.

लेकिन अब भी कभी कभी खबरों में देखते पढ़ते हैं कि टीचर ने कंटाप मारकर स्टूडेंट का कान उड़ा दिया. कहीं मुर्गा बना दिया. कहीं कुछ और यूनीक सज़ा दे दी. फिर सोचता हूं यार ये तो हमारे समय में होता था. टीचर्स नए अनोखे पीड़ादायी तरीके निकालते थे मारने के लिए. उंगलियों के बीच पेंसिल फंसाकर. मुर्गा बनाकर ऊपर ईंट रख देते थे. या सारा दिन एक पैर पर खड़ा रखते थे. इस सज़ा को वो अनुशासन के लिए जरूरी बताते थे. लेकिन मैंने ऐसी सज़ाओं से किसी को अनुशासित होते हुए नहीं देखा. वो कहते थे बिना मार के बच्चा सुधरेगा नहीं. और मां बाप भी बताते थे कि 'इसको कायदे से कूटो.' फिर तो उनको खुली छूट मिल जाती अनुशासित करने की. छोटी छोटी कोमल हथेलियों पर दनादन डंडे बरसाते थे. 

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मुझे इसके पीछे का मनोविज्ञान कभी समझ नहीं आया. मेरी दादी अक्सर हमारे पिटकर आने पर बिफर जाती थीं. एक सुर में गरियाते हुए कहती थीं कि निरबसिया(बिना बच्चों वाला) है इसलिए छुई मुई से बच्चों को मारता है. उस टाइम तो उनकी बातें हमारे लिए मरहम का काम करती थीं लेकिन आगे चलकर पता चला कि ये एक गाली है. बहुत ज्यादा असंवेदनशील है. हां, ये जरूर देखा कि वाकई बच्चों को पढ़ाने के टाइम बहुत पीटने वाले टीचर्स के जब खुद बच्चे हुए तो वो उनको सिर पर बिठा के रखते थे. लेकिन फिर भी ये समझ में नहीं आता कि बच्चों की तकलीफ समझने के लिए खुद के बच्चे होना जरूरी है. उसके लिए तो नॉर्मल इंसानी संवेदनशीलता ही काफी है. जो इंसान बच्चों के लिए ईमानदार और सेंसिटिव नहीं है वो दुनिया की किसी चीज के लिए नहीं हो सकता.

 

 

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