फिल्म रिव्यू: धड़क

ईमानदारी की एक बात: धड़क सैराट जैसी नहीं है, क्योंकि वो सैराट नहीं है

कुछ टाइम पहले एक फिल्म आई थी. सोनू के टीटू की स्वीटी. उसमें एक डायलॉग था- सही खेल गई लड़की. कल सिनेमा हॉल से निकलते हुए सबसे पहले यही लाइन आई दिमाग में. इसको एक्सप्लेन करने से पहले बता दूं कि अगर आप एक ‘सैराट’ फिल्म के फैन को उसकी रीमेक दिखाने की बात कह बिठा देंगे, तो आपको एक ऐसा फ्रस्ट्रेटेड इंसान मिलेगा जिससे आपको दूर भाग जाना चाहिए.

मैं वही इन्सान थी कल तक.

फिर मैंने धड़क सचमुच देख ली.

इस फिल्म को देखने वाले लोग मन में सैराट से तुलना करते हुए पहुंचे थे. इस फिल्म को देखने वाले लोग मन में सैराट से तुलना करते हुए पहुंचे थे.

इस फिल्म के ट्रेलर के आते ही ये बातें शुरू हो गई थीं कि कैसे ये फिल्म सैराट के सामने कहीं नहीं टिकती. सैराट, वो मराठी फिल्म, जिसने नागराज मंजुले का लोहा पूरे देश में मनवा दिया. जिसके किरदार आर्ची और परश्या लोगों के दिलों में बस गए. जो लोग मराठी जानते थे उनके भी, जो नहीं जानते थे, उनके भी. महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव के कट्टर जातिवाद के बीच फलता फूलता उनका प्यार किन हालात से जूझकर आगे बढ़ता है, और उसका अंत कैसा होता है, ये सैराट ने बेहद खूबसूरती से दिखाया. उसी की ऑफिशियल रीमेक बनी धड़क.

इस फिल्म के कंधों पर काफी उम्मीदों का बोझ था. इस फिल्म के कंधों पर काफी उम्मीदों का बोझ था.

इससे डेब्यू कर रही हैं जाह्नवी कपूर, और ईशान खट्टर. ईशान खट्टर को लोग पहले भी देख चुके हैं स्क्रीन पर. फिल्म उड़ता पंजाब में उन्होंने एक ब्लिंक एंड मिस अपीयरेंस दिया था. उसके उन्हें क्रेडिट नहीं मिले थे. उसके बाद ईरानी फिल्ममेकर माजिद मजीदी की फिल्म ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ में उन्होंने लीड रोल किया था. उनकी एक्टिंग को लेकर लोगों के बीच कन्फ्यूजन नहीं थी. उनकी एक्टिंग लोगों ने देख रखी थी, इसलिए बात भी उनके बारे में कम हो रही थी. जिस पर फोकस था, वो थी जाह्नवी कपूर. पहली फिल्म. एक बेहद सक्सेसफुल और बेमिसाल फिल्म की इमेज का कन्धों पर बोझ. आर्ची का किरदार निभाने वाली रिंकू राजगुरु की एक्टिंग के सामने एक याद रख सकने वाली परफॉरमेंस देने की चुनौती.

सैराट के लीड कैरेक्टर्स की तुलना में  ईशान और जान्हवी नहीं टिकते. लेकिन इस वजह से धड़क बुरी फिल्म नहीं है. सैराट के लीड कैरेक्टर्स की तुलना में ईशान और जान्हवी नहीं टिकते. लेकिन इस वजह से धड़क बुरी फिल्म नहीं है.

इसीलिए फिल्म देखने के बाद जो सबसे पहले सोचा, वो यही सोचा- सही खेल गई लड़की.  

2 घंटे 17 मिनट और 54 सेकन्ड की ये फिल्म, शुरू के आधे घंटे में उसी रफ़्तार से चलती है जिस रफ़्तार से मुगलसराय आने के बाद पैसेंजर ट्रेन्स. जाह्नवी के साथ साथ ईशान भी अपनी ज़मीन ढूंढते नज़र आते हैं. रोमांटिक क्षणों में एक झिझक साफ़ दिखाई देती है. इंटरवल आते आते फिल्म पासा पलट देती है. हमारे लिए. मधुकर (ईशान खट्टर) के लिए. पार्थवी (जाह्नवी कपूर ) के लिए.

डिरेक्टर शशांक खेतान के पास कहानी थी. ढांचा था. अच्छा बजट था. ये ऐसा हुआ मानो किसी ने ड्राइंग बना कर रख दी हो. आपको उसमें रंग भरने हों. ड्राइंग अच्छी है. लकीरें साफ़ हैं. बनावट सुन्दर है. उस पर उंगली नहीं उठा सकते आप. तो  जहां जहां रंग फ़ैल गया है, उस की तरफ नज़र जाती है. धड़क में भी खटकने वाली जो चीज़ें हैं वो कहानी या नैरेशन के स्तर पर नहीं हैं. बॉलीवुड के हिसाब से तोड़ने मरोड़ने में हुई गलतियों के स्तर पर हैं. जैसे मारवाड़ी का थोपा हुआ लगना. कुछ कुछ सीन्स में लीड जोड़ी का एक दूसरे के साथ ही असहज लगना. ओरिजिनल फिल्म सैराट में जातिवाद एक करैत सांप की तरह था. काटे और मौत तय. धड़क का जातिवाद उसकी केंचुल जैसा है पूरी फिल्म में. दूर से दिखने में सांप का भ्रम होगा. पास जाने पर दिखेगा कि सब कुछ खोखला है. बस एक आभास देने भर के लिए रखा गया है. जातिवाद वाले एंगल को निभा नहीं पाए हैं शशांक खेतान.  कहीं कहीं पर फिल्म अपनी मूल कहानी से भटकती नज़र आती है.

धड़क के किनारे घिस दिए गए हैं. फिल्म नुकीली नहीं, इसलिए वैसी धंसती नहीं. धड़क के किनारे घिस दिए गए हैं. फिल्म नुकीली नहीं, इसलिए वैसी धंसती नहीं.
   

क्यों देखें ?

सैराट के फैन हैं, तो थोड़ी देर के लिए उसके लेवल को परे रखें. इसे एक स्वतंत्र फिल्म मान कर देखें. ईशान खट्टर की एक्टिंग अच्छी है. देखकर लगता है कि डिरेक्टर ने जितना कहा उतना निभा ले गए हैं. लेकिन अगर देखना है इसे तो जाह्नवी कपूर के ट्रांस्फोर्मेशन के लिए देखिए. आशुतोष राणा का किरदार डराता कम कन्फ्यूज ज्यादा करता है. गोकुल के किरदार में अंकित बिष्ट जंचे हैं, काफी नैचरल लगते हैं. फिल्म के अंत तक आते आते आपको यकीन हो जाएगा कि ट्रेलर में  दिखाए गए वो सीन जिनको देखकर आपको ये लगा था कि ये फिल्म बकवास होने वाली है, करीब करीब उतने ही सीन हैं पूरी फिल्म में जो कमजोर हैं. बाकी फिल्म ठीक बन पड़ी है.

डिरेक्टर शशांक खेतान के साथ ईशान और जान्हवी. फोटो: इन्स्टाग्राम डिरेक्टर शशांक खेतान के साथ ईशान और जान्हवी. फोटो: इन्स्टाग्राम

क्यों ना देखें?

अगर आपको ये उम्मीद है कि शशांक खेतान बॉलीवुड की एक कमर्शियल फिल्म में सैराट का खुरदुरापन और बेबाक ईमानदारी उतार लाएंगे, तो ये फिल्म ना देखें. अगर आप सिर्फ सैराट से तुलना करने के लिए ये फिल्म देखना चाहते हैं तो उम्मीदें ना पालें, फिल्म निराश करेगी. शुरू के आधे घंटे में फिल्म शायद बोरिंग लग सकती है, अगर उसके ख़त्म होने तक टिक लिए आप तो फिल्म से खुश होकर लौटेंगे.

ईमानदारी की एक बात: फिल्म सैराट जैसी नहीं है, क्योंकि ये सैराट नहीं है. ईमानदारी की एक बात: फिल्म सैराट जैसी नहीं है, क्योंकि ये सैराट नहीं है.

एक चीज़ और. सैराट के अंत में जो हुआ था, अगर आप ये सोच रहे हैं कि इस फिल्म के अंत में भी वही होगा. तो रुक जाइए. फिल्म आपको चौंकाएगी. बुरी तरह से चौंकाएगी.

 

 

 

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