डियर मम्मी, मैं शादी नहीं करना चाहती
और रिलैक्स, इसमें दिक्कत की कोई बात नहीं है
छुट्टी वाले दिन सुबह-सुबह फोन बजा. इतनी सुबह तो कोई करता नहीं कॉल. नींद खुली भी नहीं थी ढंग से. फोन देखा, तो मम्मी का नंबर फ्लैश हो रहा था.
उनको पता है मैं सो रही होऊंगी. ऐसे तो फोन नहीं करतीं. कुछ गड़बड़ तो है. हलकी घबराहट हुई. फोन उठाया. उधर से मम्मी की आवाज़ आई.
न हेलो. न हाल चाल. सीधे,
‘वो गुदरी वाले मौसा जी याद हैं? उनकी भाभी का बेटा मुंबई में है. लॉयर है किसी एमएनसी में. चिंटू भैया ने कहा कि बच्चे लोग मिल लें तो ठीक रहेगा’.
आंख ऐसी खुली कि आस-पास के साथ अपने पिछले सात जनम भी सामने घूम गए. हड़बड़ा कर मम्मी को गोली दी कि उन मौसा जी की बातों पर ध्यान न दें. उठ कर बैठ तो पहले ही गई थी, बिस्तर से उठी तो लगा पैरों के नीचे से जमीन खिसकते-खिसकते बची हो. वैसे तो मम्मी पिछले कुछ समय से शादी के लिए घुमा-फिरा कर बातें कर रही थीं. लेकिन इस बार वो कहते हैं न, तीर कान को छू कर निकल गया था.
एक उम्र थी, जब मम्मी कहती थीं, लड़कों पर ध्यान न दो. पढ़ाई पर दो. चुपचाप बिना कान-पूंछ हिलाए वही किया. अब अचानक से माताजी का गियर शिफ्ट हो गया है. और शादी वाले हाइवे पर एकदम फरारी चला दी है उन्होंने. ऐसा लगता है लौटेंगी तो गाड़ी में होने वाला दामाद ही बैठा होगा.
मैंने पूछा कि ऐसा क्या हो गया है कि मेरी शादी की इतनी हड़बड़ी हो गई है उन्हें. उम्र अभी मुश्किल से 25 हुई है. नौकरी लगे हुए तीन चार साल हुए हैं. अभी करियर बन रहा है. फिर ऐसी क्या जल्दी है. माता जी ने जवाब दिया,
‘इसी बहाने लोगों से मिलना-जुलना होगा. घर में रौनक आएगी. थोड़ा मुझे भी सजने-संवरने का मौका मिल जाएगा. बड़े -बूढ़ों का आशीर्वाद मिल जाएगा.’
यही सब करना है तो माता का जगराता रखवा लो. शादी करवाने की क्या ज़रूरत है. जवाब यही था मेरा. गनीमत है फोन पर था, वरना कान के नीचे दो झापड़ रसीद होते देर नहीं लगती.
लेकिन सचमुच. शादी नहीं करनी मुझे. पर ये बात मम्मी नहीं समझतीं.
उनको लगता है. पढ़ाई कर ली. नौकरी लग गई. अब क्या ही करना है जिन्दगी में आगे. गलती उनकी नहीं है. उन्होंने खुद ही ये बात कही. कहा-
‘हमारी पढ़ाई तो इसलिए हुई ताकि शादी अच्छी जगह हो सके’. उस पीढ़ी की मजबूरी यही रही होगी.
लेकिन उसी जिम्मेदारी को मेरे कन्धों पर डालने के लिए आतुर मेरी मां और उनकी मां के बीच कोई फर्क नज़र नहीं आता मुझे. आधी चीज़ें तो हमारे यहां होती ही इसलिए हैं क्योंकि ‘ऐसा ही होता आया है’.
शादी हो जाती है क्योंकि ‘उम्र हो गई है’.
बच्चा हो जाता है क्योंकि ‘अब तो शादी हो गई है’.
एक कहानी याद आती है. छोटी सी है. एक आदमी को चोट लग गई. पैर में. दर्द के मारे आंखें भर आईं. डॉक्टर के पास गया. पेनकिलर दिए. कोई फायदा नहीं हुआ. हमें नहीं पता कैसे नहीं हुआ. हमने कहानी न बनाई. हमसे न पूछो. खैर. तो उस आदमी को दर्द हुए जा रहा था. तीन चार लोगों को दिखाया. कहीं कोई हाल न मिला. अंत में एक आदमी ने कहा. फलाने बाबा के पास चले जाओ. वो तुम्हारे दर्द की दवा कर देंगे. मरता क्या न करता. फलाने बाबा के पास गया. कहा, बाबा बहुत दर्द में हूं. मेरा दर्द कम कर दो. बाबा ने कहा, दर्द कहां है. आदमी ने कहा, पैर में. बाबा ने कहा, कर दूंगा. इधर आ.
आदमी गया. बाबा ने उसकी आंखों में लाल मिर्ची झोंक दी.
आदमी दर्द से बिलबिला गया. चीखा, ये क्या किया महाराज.
बाबा ने कहा, कहा था दर्द कम कर दूंगा. पैर का दर्द अब आंखों से कम है कि नहीं?
मोरल ऑफ द स्टोरी ये है कि अपन भी यही करते हैं. एक चीज़ से पक गए, तो दूसरी आफत मोल ले लेते हैं, भले ही उसके लिए तैयार हों या न हों. केस इन पॉइंट- बच्चे. किसने कहा है कि करने ज़रूरी ही हैं. शादी हो गई तो बच्चे करो ही करो. किसने तय किया? महंगाई इतनी है कि आदमी अपने लिए ही दो रोटी न जुगाड़ पा रहा लेकिन बच्चा पैदा करना ज़रूरी है. क्यों? क्योंकि ‘ऐसा ही होता है’.
शादी हुई नहीं कि बस बच्चे बच्चे बच्चे की रट.
मुझे नहीं लगता मैं शादी के लिए रेडी हूं. मुझे ये भी नहीं लगता कि मजबूरी में किसी के साथ भी खुद को बांध लेना सिर्फ़ इसलिए क्योंकि ‘उम्र निकली जा रही है’, कोई उपाय है. मुझे नहीं लगता कि शादी के नाम पर किसी को बुढ़ापे का सहारा बनने की गारंटी मान लेना सही कदम है. मजबूरी के नाम पर मैं लौकी-तोरई खा सकती हूं. शादी जैसा बड़ा स्टेप नहीं ले सकती.
अगर वैसा कोई मिला जिससे मन मिल जाए, तो देखेंगे. लोड लेना वाशिंग मशीनों का काम है. मैं क्यों फंसूं?
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