बेगम समरू: वो तवायफ़ जो सिपाही के प्यार में सिपाही बन गई

और ऐसी सिपाही, कि दुश्मन उसे देखते तो कहते डायन आ गई. और भाग खड़े होते.

ये जेबुन्निसा की कहानी है.

संदर्भ

मुगलों का दरख्त घुन खा चुका है. मगर इसके गिरने में अभी वक्त है. दिल्ली की गद्दी पर शाह आलम द्वितीय बैठा है. उसका बस चले तो बस आफताब के नाम से फारसी में कविताएं लिखे. मगर वो जिस कोख से पैदा हुआ है, जिस बाप के बीज से पैदा हुआ है, उसके चलते फुटबॉल बना है. दिल्ली और मुल्क अभी पानीपत की तीसरी लड़ाई (साल 1761) भूला नहीं है.

अहमद शाह अब्दाली के हाथों हुई मुगलों की बेइज्जती. फिर ईस्ट इंडिया कंपनी वाले मुगल बादशाह को बंधक की तरह इलाहाबाद के किले ले गए. भला हो मराठों का जो बादशाह शाह को वापस दिल्ली लाए. इसके पीछे मराठा सरदार महादजी सिंधिया का दिमाग था. महादजी को पता था कि दिल्ली में बैठा बादशाह सुरक्षित नहीं है. इसीलिए उसने मराठों की एक परमानेंट छावनी भी बना दी. और आसपास की रियासतों को भी ताकीद कर दी. जब भी बादशाह को जरूरत हो, हाजिर हो जाओ.

ये वो वक्त था, जब बादशाह के लिए नए मुहावरे बन रहे थे. और ये तंज से भरे हुए थे. मसलन ये कहावत कि सल्तनत-ए-शाह-आलम-अज दिल्ली ता पालम. यानी कि शाह आलम का राज्य दिल्ली से पालम (जी वही गांव, जो तब दिल्ली के बाहर था और अब एयरपोर्ट के अंदर है) तक ही है. फिर भी कभी-कभी शाह की बाजुएं फड़फड़ाने लगती हैं. या फिर उसके ताबेदार ही जोश भर देते हैं. कि बादशाह को छोटी-मोटी कुमुक लेकर जब तब अपना जलवा दिखाते रहना चाहिए. ऐसे ही एक ताव में शाह आलम दूसरा दिल्ली छोड़ गया. क्योंकि पास के रेवाड़ी रियासत में बलवे की खबर थी. नजफ कुली खान सर झुकाना भूल गया था. ये सब इतना करीब हो रहा था कि मुगल बादशाह चाहकर भी अनदेखी नहीं कर सकते थे. फौज तैयार हुई और कूच हुई.

अब आगे की कहानीजगह- गोकुलगढ़ ( रेवाड़ी रियासत का हिस्सा)

साल- 1788

मंजर

तलवार हैं. खून है. मांस है. जो गिरता है तो धूल है. उससे भी ज्यादा धूल घोड़ों की है. मगर धूल में धूल नहीं बारूद की गंध है. क्योंकि भरवां बंदूक भी हैं. और तोपें भी. ये जंग है. छोटी मगर तेज. और इसमें पस्त हो रहा है. शाह आलम द्वितीय. जिसकी रगों में मुगलों का खून है, मगर अकबर-सी चुस्ती नहीं. नजफ कुली खान सैनिकों के साथ मुगल खेमे की तरफ बढ़ रहा है. इरादा शाह आलम को बंदी बनाने का है. मगर तभी कुछ होता है. एक पालकी तेजी से आगे बढ़ती है. नजफ ठिठकता है. हरम तो साथ नहीं लाया था बादशाह. फिर ये पालकी.

पालकी का पर्दा हटता है और पर्दा गिरता है नजफ की बढ़त पर. पालकी से एक औरत निकली. और चीखी. फिर उसके इशारे पर टेंट के पीछे से कई जवान निकले. घोड़े पर सवार और बंदूक से लैस. उन्होंने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी. नजफ को पीछे हटना पड़ा. बादशाह भी तब तक बौखला चुका था. मगर उसके टेंट के पास सरगर्मियां तेज थीं. समझ नहीं आया कि निकले या रहे. तब उसे समझाने पहुंची. वही औरत जो कुछ देर पहले पालकी में थी. वो बोली,

‘बादशाह, आप जल्द से जल्द पालकी में सवार हो दिल्ली कूच करें.’ बादशाह, पालकी में बैठे और पर्दा गिराने से पहले बोले,

‘एक बरस में दूसरी बार तुमने मेरी जान बचाई है, जेबुन्निसा’.

बादशाह चला गया. जेबुन्निसा भी चली गई. पीछे रह गई हवा. और ये फ़साना. कि एक औरत आती है. सरधना की तरफ से. जंग के मैदान में. चादर बिछाती है. और बाजी पलट जाती है. क्योंकि वो डायन है.

मगर वो डायन नहीं थी. लड़ाका भी नहीं. वो एक तवायफ थी. जो एक सिपाही से प्यार के फेर में सिपाही बन गई. सिपाही बनने से भी पहले आशिक बनी. बीवी बनी. फिर बेवा हुई तो जागीरदार बनी. अंत आते आते मजहब छोड़ ईसाई बन गई. मगर एक चीज थी जो हमेशा कायम रही. उसका बेखौफ़पन.

ये जेबुन्निसा की कहानी है.

बेगम समरू की ये पेंटिंग उनके चर्च में भी है. फोटो: विकिमीडिया बेगम समरू की ये पेंटिंग उनके चर्च में भी है. फोटो: विकिमीडिया

साल 1767. यूरोप का एक लड़ाका वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे दिल्ली में था. उसे 'बुचर ऑफ़ पटना' यानी पटना का कसाई कहा जाता था क्योंकि उसने वहां पर अंग्रेजों का क़त्ल किया था. इस चक्कर में उसे हमेशा अंग्रेजों से भागना पड़ता था और अंग्रेजों के दुश्मनों की तरफ से लड़ना पड़ता था. इसी समय वॉल्टर एक दिन चावड़ी बाज़ार से गुज़र रहा था. रह रह कर पीछे मुड़ने की आदत बन गई थी उसकी. दिल्ली के चावड़ी बाज़ार में तवायफों का मोहल्ला था.पूरे दिन थक कर लोग वहां शाम को अक्सर थकान मिटाने जाते थे. एंटरटेन करते थे खुद को. उस समय वॉल्टर भी वहां आया था. एक कोठे में घुसा. हर तरफ खुशबू उड़ रही थी. कोने में बैठ गया. कुछ नज़रें उठीं उसकी तरफ, फिर चुप-चाप झुक गईं. तबले पर थाप पड़ी. घुंघरू की आवाज़ आई. वॉल्टर की नज़र उठी. फिर वापस नहीं झुकी. उसके सामने नाचती लड़की का झक सफ़ेद चेहरा और नाज़ुक कद काठी उसके सामने बंध कर रह गए. उस दिन के बाद वॉल्टर उस लड़की से कभी अलग नहीं हुआ. नहीं हो पाया.

उस लड़की का नाम फरज़ाना था. लेकिन उसे अभी कई और नाम मिलने बाकी थे. क्योंकि उसने जो भौकाल मचाया था, वो आज सोच कर भी लोगों की रूह कांप जाएगी. दिल्ली से निकल कर फरज़ाना का नाम पूरे उत्तर भारत में फैला. लेकिन शायद वो नाम लोगों को अब याद नहीं होगा. क्योंकि वो नाम बदलकर कुछ और हो गया था.

बेगम जोआना सौम्ब्रे या समरू. आज़ादी से पहले के भारत की पहली और इकलौती कैथोलिक जागीरदार.

वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे का जन्म जर्मनी में हुआ था, ऐसा कहीं-कहीं लिखा गया है. लेकिन जब वो भारत आया तब वो फ्रांस की तरफ से लड़ रहा था. जब फरज़ाना उसके प्यार में पड़ी, तो उसने वॉल्टर का साथ देने की ठान ली. जहां भी वॉल्टर जाता था, फरजाना उसके साथ जाती थी. वॉल्टर लड़ाकों का एक समूह लीड करता था. ये लोग कमीशन के हिसाब से औरों के लिए भी लड़ते थे. मर्दों वाले कपड़े पहन कर फरजाना वॉल्टर के लड़ाकों के साथ जंग पर निकल जाती थी. लखनऊ, आगरा, भरतपुर, हर तरफ फरजाना गई. सौम्ब्रे के साथ उसकी पार्टनर की तरह रहती हुई फरजाना को लोग सौम्ब्रे के अपभ्रंश समरू/सुमरू से बुलाने लगे. बेगम तो उसके नाम के साथ था ही. उस समय के मुग़ल राजा शाह आलम II ने वॉल्टर को उत्तर प्रदेश के सरधना का जागीरदार बना दिया. लेकिन ये ज्यादा समय तक नहीं चल पाया क्योंकि 1778 में वॉल्टर की मौत हो गई.

शाह आलम चिंता में डूब गया.

वॉल्टर की मौत अचानक हुई थी. कोई और दूसरा इंसान शाह की नज़र में नहीं था जो सरधना का ध्यान रख सके. शाह को समझ नहीं आ रहा था. ऐसे मुश्किल समय में किसपर भरोसा किया जाए. शाह चुपचाप इसी सोच में डूबे थे. बाहर से आकर किसी ने उनको बताया, कुछ लोग उनसे मिलने आए हैं. इस समय शाह को किसी से मिलने का मन नहीं था. पर हां कर दी. अन्दर कुछ लोग आये. ये लोग वॉल्टर के लड़ाकों और अफसरों में से चुन कर आये कुछ लोग थे. उन्होंने कुछ कहा नहीं. एक कागज़ का टुकड़ा सामने रख दिया. शाह ने बेमन से वो कागज़ उठाया. पढ़ा, और आंखें चमक उठीं. शाह को अपनी परेशानी का हल मिल गया था.

शाह आलम द्वितीय ने जेबुन्निसा को मौका दे दिया जिसने उसे इतिहास में दर्ज किया. फोटो : विकिमीडिया शाह आलम द्वितीय ने जेबुन्निसा को मौका दे दिया जिसने उसे इतिहास में दर्ज किया. फोटो : विकिमीडिया

वो कागज़ का टुकड़ा एक पेटिशन थी. जिसपर वॉल्टर के 82 यूरोपियन अफसरों और 4000 सैनिकों ने साइन किया था. वो चाहते थे बेगम समरू उनको लीड करें.

चार हज़ार से ज्यादा लड़ाकों को लीड करती हुई जेबुन्निसा सरधना की जागीरदार बन गई. इसके तीन साल बाद उसने कैथोलिक ईसाई धर्म अपना लिया. यानी क्रिश्चियनिटी को अपना कर कन्वर्ट हो गई. अपना नाम जोआना (लोकल भाषा में योहाना) रख लिया. फरजाना खुद मुस्लिम थी, जिस शाह आलम के लिए वो काम कर रही थी वो मुस्लिम था. उसके पति की मौत हो चुकी थी. इसके बाद उसने अचानक से ईसाई धर्म क्यों चुना, वो भी कैथोलिक वाला जो काफी कट्टर होते हैं, ये कहीं नहीं बताया गया. हो सकता है उसे धर्म पसंद आया हो, या वो अपने गुज़रे पति को श्रद्धांजलि देना चाहती हो. इसका कोई पक्का जवाब नहीं है. खैर, फरजाना योहाना बन गई. शाह आलम की तब भी दुलारी बनी रही.

एक किस्सा तब का पढ़ने को मिलता है जब शाह आलम के राज में मुगलों की ताकत कम होती जा रही थी. ब्रिटिश ताकत धीरे धीरे बढ़ रही थी. तो शाह आलम के सबसे बड़े बेटे मिर्ज़ा ने सोचा कि क्यों ना बेगम से बातचीत करके साथ में लड़ाई लड़ी जाए. हो सकता है शायद इससे मुगलों का राज बच जाए. लेकिन जब उसका मेसेंजर मिर्ज़ा का सन्देश लेकर बेगम के पास पहुंचा तो बेगम ने उससे पूछा, “ कैसा है तुम्हारा राजा, उसमें कोई मर्दाना खूबी है भी या नहीं?”

मेसेंजर ने मुस्कुरा कर कहा, 'देखने में बहुत अच्छे हैं, जितना हो सकता है उतने अच्छे हैं'. 

बेगम का चेहरा गुस्से से लाल. मेसेंजर की मुस्कान गायब. बेगम ने झन्नाट तमाचे की तरह सवाल उसके मुंह पर फेंक कर मारा, ‘क्या मजाक है ये? मैंने पूछा तलवार चलाना और राज जीतना आता भी है उसको या सिर्फ गाने बजाने में लगा रहता है?’

मिर्ज़ा के ख्याली पुलाव वहीं फिस्स हो गए.

बेगम की लाइफ में भी एक रोमियो जूलियट वाला कांड हुआ था. जब वॉल्टर की मौत हो गई और बेगम जागीरदारी देखने लगी, तब उस बीच कई ऐसे यूरोपी लोग आये जिनको बेगम बहुत पसंद आई, उन सबने कोशिश भी की कि बेगम उनको पसंद कर ले. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक दिन फाइनली बेगम को पसंद आया एक फ्रेंच आदमी. ले वैसो. बेगम ने उसके चक्कर में अपना राज काज सब छोड़ दिया. 1793 में उससे शादी कर ली. उसके साथ भाग निकली. उनका पीछा हुआ. दोनों ने वादा किया. एक मरा तो दूसरा भी मर जाएगा. दोनों अपने अपने घोड़े पर भागे. वैसो को पीछे से चीखने चिल्लाने की आवाज़ आई. उसने मुड़ कर देखा तो बेगम ने खुद को छुरा भोंक लिया था. ये देख कर उसने भी अपने माथे पर तमंचा रखा और गोली चला दी. वैसो तो मर गया. बेगम को लगी छुरी पसली से टकरा के फिसल गई थी. तो वो मरी नहीं. संदेसा भिजवाया. यूरोपी लड़ाकों ने उसका साथ दिया. वापस राज करने लौटी बेगम ने प्यार से तौबा कर ली.

बेगम समरू के घर के अन्दर का सीन. फोटो: विकिमीडिया बेगम समरू के घर के अन्दर का सीन. फोटो: विकिमीडिया

उसके बाद जब अंग्रेज यहां दबंग हो गए तो बेगम ने अंग्रेजों के साथ संधि कर ली. अपने पैसों और सेना का इस्तेमाल अपननी जागीर सरधना का ख्याल रखने में किया. जब भरतपुर के राजा के साथ अंग्रेजों का सामना हुआ, तो वो लोग अपने साथ किसी देसी लीडर को लेकर नहीं जाना चाहते थे. बेगम नाराज़ होकर बोली, ‘अगर मैं आज लड़ाई में नहीं गई तो सब कहेंगे बुढ़ापे में आकर डर गई हूं मैं.’ बेगम अंग्रेजों के साथ लड़ी. उस समय उसकी उम्र 73 साल थी. सरधना का ख्याल रखने में बेगम काफी अलर्ट रहती थी. जो भी मिलने आता था उसे कोई न कोई गिफ्ट देकर वापस भेजती थी. बेगम ने सरधना में एक बहुत बड़ा चर्च बनवाया. उस चर्च का नाम सरधना चर्च है- बेसिलिका ऑफ आवर लेडी ऑफ ग्रेसेज. आज भी है. जा सकते हैं वहां. मेरठ के पास ही है.

बेगम समरू के चांदनी चौक वाले महल का पिछला हिस्सा पेंटिंग में. फोटो: pinterest बेगम समरू के चांदनी चौक वाले महल का पिछला हिस्सा पेंटिंग में. फोटो: pinterest

बेगम समरू को अकबर शाह ने चांदनी चौक में एक बड़ी सी हवेली दी थी. वो हवेली आज भी है. उसे भागीरथ पैलेस मार्केट कहा जाता है.

बेगम का चांदनी चौक का महल 1857 के ग़दर के समय इस हाल में था. फोटो: pinterest बेगम का चांदनी चौक का महल 1857 के ग़दर के समय इस हाल में था. फोटो: pinterest

इलेक्ट्रॉनिक चीज़ों का बहुत बड़ा बाज़ार है वहां पर. उसके साइड में सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया का ऑफिस भी है.आज उसे देखकर कोई यकीन नहीं कर सकता कि कभी ये हवेली आधे चांदनी चौक में फैली हुआ करती होगी. बेगम का एक महल और भी था. गुरुग्राम में. झारसा गाँव के पास. अभी उसके पुर्जे भी सलामत नहीं हैं. लेकिन बेगम समरू का नाम अभी भी कहीं कहीं उभर आता है.

सरधना चर्च का सामने का हिस्सा. फोटो: विकिपीडिया सरधना चर्च का सामने का हिस्सा. फोटो: विकिपीडिया

इस लेख की शुरुआत में आपने पढ़ा होगा कि शाह ने फरजाना को कहा था,

‘एक बरस में दूसरी बार तुमने मेरी जान बचाई है, जेबुन्निसा’

पहली बार का वो किस्सा पढ़िए, जिसने फरजाना को जेबुन्निसा बना दिया:

जब शाह आलम को ग़ुलाम कादिर नाम के एक बगावती ने उनके ही महल में घुसकर बंदी बना लिया था, तब बेगम समरू पानीपत के पास एक लड़ाई को लीड करने में लगी हुई थी. उसने ये खबर सुनते ही वो लड़ाई छोड़कर महल पर हमला किया. ये 1787 की बात है. बेगम ने इतने खतरे में से शाह को बचा लिया. तब शाह ने बेगम को जेबुन्निसा का नाम दिया. इसका मतलब औरतों में सबसे बेस्ट. ताज का हीरा टाइप.

 

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