एक हिजड़े की आपबीती, जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं
'दूसरों के लिए खुशियां मांगती हूं, अपने लिए नहीं. क्योंकि भगवान ने मुझे उसके लिए बनाया ही नहीं है.

मेरा नाम मनीषा महंत है जो कि मेरे गुरुओं ने दिया है. वैसे मेरा असली नाम मन्नू महंत है और मैं हरियाणा राज्य के करनाल शहर की रहने वाली हूं, मेरे परिवार में तीन भाई और एक छोटी बहन है जो कि अब शादीशुदा है, मम्मी-पापा दोनों ही इस दुनिया में नहीं है. मैंने करनाल शहर में ही अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी की थी और मैं बहुत ही कम पढ़ी-लिखी हूं, मैंने सिर्फ 10 तक ही पढ़ाई की है. वर्तमान समय में मैं अपने परिवार के साथ कभी नहीं मिलती हूं और शायद वो भी हमसे मिलना नहीं चाहते हैं. शायद ये सब इसलिए क्योंकि मैं किन्नर (महंत) हूं.
किन्नर होना अपने आप में एक बहुत ही दर्दनाक और उलझनों से भरा हुआ जीवन होता है, बहुत कुछ होने के बावजूद हमारे पास कुछ नहीं होता. कहने को तो हम परिवार में जन्म लेते हैं और परिवार होता भी है, लेकिन उस परिवार के होने न होने से क्या फर्क पड़ता है जो परिवार हमें अपना मानता ही नहीं. शायद ही कोई रात ऐसी जाती होगी, जब मेरी आंखों में आंसू न आते हों. मैं बहुत ही छोटी-सी उम्र की थी, जब मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरे बच्चों से बहुत अलग हूं. हुआ यूं कि एक बार मेरे ही परिवार के सदस्य ने मेरी बहुत बुरी तरह पिटाई की, वो भी इसलिए कि मैं लड़कियों की तरह क्यों रहती हूं, जबकि उस उम्र में मुझे ये एहसास ही नहीं था कि लड़का क्या होता है, लड़की क्या होती है और किन्नर क्या होते हैं. मुझे इन सबके बीच के भेद का बिल्कुल भी अन्दाजा नहीं था.

मेरे परिवार ने मेरे व्यवहार में बदलाव लाने के लिए बहुत प्रयास किए और बहुत बार मुझे मारा-पीटा भी गया, लेकिन मैं क्या करती. मैं चाहकर भी अपने आप को नहीं बदल पायी. क्योंकि मेरा जैसा भी व्यवहार था, वो तब से वैसा ही था जबसे मैंने होश सम्भाला है. धीरे-धीरे सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे, घर वाले भी और बाहर वाले भी. कोई भी इंसान ऐसा नहीं था जो कि मुझे समझ पाता. मैं अपने आप को बहुत अकेला महसूस करती थी और जब भी अकेली होती तो रोने बैठ जाती, ये सोचकर कि आखिर भगवान ने मुझे ही ऐसा क्यों बनाया है और फिर जब मैं रो-रो कर थक जाती तो खुद ही अपने आंसू पोंछकर अपने आपको तसल्ली देकर चुप हो जाती.
तब मैं सोचती थी कि काश कोई एक इंसान तो ऐसा होता जो मुझे समझ सकता, जो मेरे दर्द को बांट सकता, जो मुझे रोती हुई को चुप करवा सकता! लेकिन मेरी बदकिस्मती थी कि ऐसा कोई नहीं था. न घर परिवार में, न बाहर, न कोई स्कूल में, कहीं भी नहीं. मैं स्कूल जाती जरूर थी, लेकिन न किसी के साथ बोलती थी, न किसी से बात करती थी, बस अकेली ही बैठी रहती थी और तो और आधी छुट्टी में सभी बच्चे खेलते थे, लेकिन मैं तब भी क्लास रूम में ही बैठी रहती थी और अपने आपमें ही खोई रहती थी.

मैं बिल्कुल अकेली थी. फिर मेरी क्लास में दो और बच्चों ने एडमिशन लिया और फिर मेरी उनसे दोस्ती हो गई और कुछ हद तक वो बहुत अच्छे थे. लेकिन उनके और मेरे विचार कभी आपस में मिलते नहीं थे, क्योंकि मैं बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की और हर बात के लिए भगवान को धन्यवाद देना या दोष देना मेरी आदत-सी हो गई थी, जबकि वो बिल्कुल इसके विपरीत थे. लेकिन फिर भी मैं न जाने क्यों अपने आप को अकेला ही महसूस करती थी. मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को मुझसे बात करना अच्छा नहीं लगता था.
फिर एक दिन मैं अपने ही वहीं किसी कार्यक्रम में गई और मुझे वहाँ एक व्यक्ति दिखाई दिया और मैं सारे कार्यक्रम को भूलकर बस उसको ही देखती रही और न जाने क्यों मैं चाहकर भी उस व्यक्ति से अपनी नज़रों को नहीं हटा पायी और न ही नज़रअंदाज कर सकी. वहां से आने के बाद भी मेरे दिल और दिमाग में बस उसका ही ख़्याल आता रहा. फिर मैं हर रोज सिर्फ उसको देखने के लिए उस जगह पर चली जाती थी और अब तो जैसे मुझे इसकी आदत-सी हो चुकी थी. फिर धीरे-धीरे उस व्यक्ति को भी ये एहसास हो चुका था कि आखिर मैं उसको क्यों देखती रहती हूं, अब मैं मेरे साथ हो रहे मेरे परिवार और लोगों के व्यवहार को तकरीबन भूल- सी जाती थी, मानों जैसे उसको देखते ही मेरे सारे दर्द मिट जाते थे.
लेकिन जब मैंने उस व्यक्ति को बताया कि मैं आपसे प्रेम करती हूं तो उस व्यक्ति ने मेरा बहुत मज़ाक उड़ाया और शायद उसके मज़ाक उड़ाने का कारण था, मेरा अधूरापन. जिसको शायद मैं चाहकर भी पूरा नहीं कर सकती थी. उसके ऐसे व्यवहार के चलते मुझे बहुत दर्द और तकलीफ हुई और मैं हमेशा रोती रहती थी अपनी किस्मत को. फिर मैंने सोचा कि चलो प्रेम न सही, कम से कम अगर वो मेरा मित्रा बनकर भी रहेगा तो भी बहुत बड़ी बात होगी, कम से कम मैं उसको हर रोज देख तो पाऊंगी, उससे मिल तो पाऊंगी, उससे बात तो कर पाऊंगी, लेकिन शायद मैं उसकी मित्रता के भी लायक नहीं थी. फिर जब मुझे पता लगा कि उसको किसी ओैर से प्रेम हो गया है तो मानों मुझसे सबकुछ ही छिन गया हो. तब मुझे अपने आप से ही नफरत होने लगी थी. क्योंकि आज मुझे फिर से एहसास हो चुका था कि मैं न तो परिवार के लायक हूं, न किसी कि मित्रता और न ही प्रेम के लायक.

तब मेरा ऐसा दिल करता था कि मैं आत्महत्या कर लूं और मैंने कोशिश भी की, लेकिन शायद मौत भी मुझे अपने आगोश में लेना नहीं चाहती थी. फिर मैंने फैसला किया कि जब मैं इन लोगों में रहने लायक हूं ही नहीं तो क्यों न मैं किसी ऐसी जगह पर जाऊं, जहां कोई मेरा मज़ाक उड़ाने वाला न हो, जहां हर कोई मेरे दर्द को समझे. और फिर मैं चली आई उस दुनिया में जहां कोई मेरा मज़ाक उड़ाने वाला नहीं था, जहां हर कोई मेरे दर्द को समझ सकता था. यानी किन्नरों की दुनिया में.
और फिर मैं आ गई उस दुनिया में जिसके लिए शायद मैं बनी थी. क्या बीती होगी मेरे दिल पर उस समय जब मेरा ही परिवार जिसमें मैं पैदा हुई, जब वो ही मुझे नहीं समझ पाया और जब वो ही मेरा मज़ाक उड़ाता होगा. क्या बीती होगी मेरे दिल पर उस टाइम जब मेरे परिवार के लोग मुझे मेरे व्यवहार के लिए पीटते थे, जिसको की मैं चाहकर भी बदल नहीं पा रही थी, क्योंकि वो आदते या वो व्यवहार मेरे अन्दर जन्म से थे, न कि मैंने खुद बनाये थे.

क्या बीती होगी मेरे दिल पर उस समय जब एक इंसान ने मुझसे प्यार करना तो दूर, दोस्ती तक नहीं की, क्योंकि मैं दूसरों से बहुत अलग थी. मैं जैसी भी थी लेकिन थी तो इंसान ! लेकिन अफसोस मुझे किसी ने भी इंसान तक नहीं समझा, उन्हें कभी ये एहसास ही नहीं हुआ कि मैं भी इंसान हूं, मुझे भी दर्द और तकलीफ होती है. आज मैं जैसी भी हूं! ठीक हूं! लेकिन खुश नहीं हूं. मैं दूसरों के लिए खुशियां मांगती हूं लेकिन कभी अपने लिए नहीं. क्योंकि मुझे पता है कि भगवान ने मुझे उस लायक बनाया ही नहीं.

ये कहानी किन्नर मनीषा महंत के एक इंटरव्यू का हिस्सा है. ये इंटरव्यू फ़िरोज़ खान ने लिया है. उनकी अनुमति से हम इसके कुछ हिस्से यहां प्रकाशित कर रहे हैं. इस कहानी का अगला भाग आपको कल पढ़वाएंगे.
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