हम लड़कियों के कपड़ों में जेबें क्यों नहीं देते सरकार, हममें क्या कांटे लगे हैं?
कपड़ों का इतिहास हमें बताता है कि औरत को जरूरत नहीं, पुरुष की वासना के लिए कपड़े पहनाए गए.
आप घर से निकलने के लिए तैयार हो रहीं हैं. कल ही आपने नई ब्रांडेड जीन्स ख़रीदी है जो पहनने को आप बेताब हैं. जीन्स की फ़िटिंग पर्फ़ेक्ट है और आप पर ख़ूब जंचती है. बस एक समस्या है. आप उसके पॉकेट में अपना 5.5 इंच का फ़ोन रखने जातीं हैं तो पता चलता है कि यह पॉकेट नहीं, मजाक है. फ़ोन तो छोड़ो, इस ‘पॉकेट’ में आपका लिप बाम भी फ़िट आ जाए तो बहुत है.
या हो सकता है आप अपना वॉलेट रखना चाहतीं हों मगर महंगी, सेक्सी मिनीस्कर्ट पर पॉकेट का नामोनिशान नहीं. सिर्फ़ वॉलेट के लिए आपको या तो अलग से पर्स कैरी करना पड़ता है या सौ चीज़ों के साथ बैग में रखना पड़ता है. अपने आसपास देख आप अंदाज़ा लगातीं हैं कि पॉकेट वाली यह समस्या सिर्फ़ लड़कियों के कपड़ों में है. मर्द आराम से अपना फ़ोन और बटुआ पैंट की जेब में लिए घूम रहे हैं मगर स्कर्ट्स, स्किनी जीन्स, चूड़ीदारों में या तो जेब हैं ही नहीं या इतनी छोटी हैं कि मच्छर भी न घुस पाए.
विमेन्स फ़ैशन की मुख्य आलोचना शायद यही है कि औरतों के लिए कपड़े सिर्फ़ सुंदर दिखने के लिए बनाए जाते हैं, न कि पहननेवाले की सुविधा के लिए. हाई-हील्ज़ पहनने से हम और आकर्षक दिखते हैं ज़रूर, मगर इनको पहनकर ठीक से चला नहीं जाता, ऊपर से पैरों का स्ट्रक्चर भी बिगड़ सकता है. वैसे ही हैं कुछ ब्राज़ जो दिखने में जितने सुंदर हैं, उतने ही महंगे हैं और पहनो तो जान निकल जाती है.
सालोंसाल से औरतें फ़ैशन की यह बेरहमी सहती आ रहीं हैं. मध्यकालीन युरोप में ‘कोरसेट’ का चलन था. यह टाइट वस्त्र कपड़ों के नीचे पहना जाता था और लकड़ी या हाथी के दांट से बने मोटे मोटे पुर्ज़ों से बंधता था. यह इसलिए पहना जाता था ताकि स्तन उभर आएं और कमर पतली लगे मगर सेहत के लिए बहुत हानिकारक था. इससे ब्लड सर्क्यलेशन रुक जाता था जिसकी वजह से लड़कियां बेहोश होतीं रहतीं थीं और कुछ तो काम उम्र में ही मर जातीं थीं.
कपड़ों में पॉकेट न होना शायद एक पुराने ज़माने के कोरसेट जितना ख़तरनाक न हो, मगर फ़ैशन के नाम पर महिलाओं के लिए एक और झंझट ज़रूर है. कौन लड़की हर जगह पर्स या बैग लेकर घूमना पसंद करेगी जबकि इससे ज़्यादा सहज विकल्प भी है जो उसे दिया नहीं जा रहा?
फ़ैशन का इतिहास पलटकर देखा जा सकता है कि लड़कियों के कपड़ों में पॉकेट न रहना महज़ संयोग नहीं है. एक ज़माना था जब मर्द और औरत दोनों अपने कपड़ों पर छोटे, रंग-बिरंगे ‘फ़ैनी बैग’ सिलवाया करते थे, जिनमें पैसे और सामान रखे जाते थे. बाद में जेबक़तरों के डर से इन बैग्ज़ को कपड़ों के ऊपर नहीं, अंदर सिलवाया जाने लगा. फ़्रांसीसी विद्रोह के बाद, नए दौर की शुरुआत के साथ, लोगों के कपड़ों में नए बदलाव भी आने लगे.
मर्दों की पैंट में पॉकेट सिलवाए जाने लगे. मगर औरतों की स्कर्टें उनकी कमर और स्तनों को दर्शाने के लिए पतली और टाइट होतीं गईं. पॉकेट से स्कर्ट का लुक ख़राब हो जाता और टाइट स्कर्टों के अंदर बैग सिलवाना नामुमकिन था. औरतों को अपना सामान ‘रेटिक्यूल’ नाम के छोटे पाउचों में रखना पड़ता था जिन्हें हाथ में कैरी करना पड़ता था. औरतों को अपनी पर्सनल चीज़ें अब हाथ में डिस्प्ले करके रखना पड़ता था. सिर्फ़ इसलिए कि उस दौर के फ़ैशन ने उनकी सुविधा से ज़्यादा उनकी कमर की नाप और स्तनों के आकार को ज़रूरी समझा.
1954 में मशहूर फ़ैशन डिज़ाइनर क्रिस्चन डीऑर ने कहा था, ‘मर्दों के पॉकेट्स सामान रखने के लिए होते हैं और औरतों के पॉकेट्स सजावट के लिए’. किसी भी लड़की ने कभी स्किनी जीन्स या मिनीस्कर्ट पहनी हो तो इस बात से सहमत होगी. अपनी फ़ैशन कम्पनी की क्रीएटिव डिरेक्टर कैमिला ओल्सन कहतीं हैं,
‘हमारी फ़ैशन इंडस्ट्री औरतों को आगे बढ़ने नहीं दे रही. औरतों के लिए प्रैक्टिकल डिज़ाइंज़ की कमी इसका उदाहरण है. पॉकेट की ज़रूरत हर किसी को होती है. फ़ोन और पैसे रखने के लिए औरतों से पर्स रखने की उम्मीद की जाती है मगर हर जगह पर्स या बैग ले जाना सम्भव नहीं है. कपड़ों में एक पॉकेट तो होना ही चाहिए.’
अमेरिका के काउन्सिल आफ़ फ़ैशन डिज़ाइनर्ज़ की सारा कोज़लोस्की का मानना है कि डिज़ाइनर्ज़ आम जनता की ज़रूरतों को नहीं बल्कि ब्यूटी कॉन्टेस्ट की मॉडल्ज़ को दिमाग़ में रखते हुए कपड़े बनाते हैं.
औरतों के प्रति समाज का ऐटिट्यूड हर चीज़ में नज़र आता है, चाहे भाषा हो, रिवाज़, या पहनावा. फ़ैशन इंडस्ट्री के लिए औरतें महज़ गुड़ियां हैं जिनका काम है ख़ूबसूरत दिखना. वे पैसे नहीं कमातीं कि संभालकर रख सकें, कार नहीं चलातीं की चाबी के लिए जगह की ज़रूरत हो. जब तक कपड़ों में भी मर्द और औरत का भेदभाव रखेगा, हम पूरी तरह से समानता नहीं ला पाएंगे.
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