वीरांगना भाग 6: अगस्त क्रांति की हिरोइन, जिसने तिरंगा फहराकर देश में जंग का ऐलान किया था
बंगाली औरत जिसने मुसलमान से शादी की, घर वालों ने कहा 'हमने इसका श्राद्ध कर दिया'.
आप पढ़ रहे हैं हमारी स्पेशल सीरीज- वीरांगना. ये सीरीज हम ख़ास तौर पर लेकर आए हैं भारत की आज़ादी का 72वां साल पूरा होने पर. इस सीरीज में हम उन सभी औरतों और लड़कियों के बारे में बताएंगे जिन्होंने भारत की आज़ादी में कभी न भुलाया जा सकने वाला किरदार निभाया.15 अगस्त तक चलने वाली हमारी ये सीरीज उन सभी कहानियों से आपको रू-ब-रू कराएगी जो हमें अक्सर किताबों में पढ़ने को नहीं मिलीं. वीरांगना सीरीज में आज जानिए अरुणा आसफ़ अली के बारे में.
एक बंगाली परिवार में जन्मीं अरुणा गांगुली का परिवार किसी भी आम अपर मिडिल क्लास बंगाली परिवार जैसा था. लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट स्कूल से पढ़ाई पूरी करके नैनीताल के ऑल सेंट्स कॉलेज में पढ़ने गईं. वहां से ग्रेजुएशन पूरी करके कलकत्ता के एक स्कूल में पढ़ाने चली गईं. वहीं पर उनकी मुलाकात हुई आसफ़ अली से. मशहूर वकील, और भारत की आज़ादी में जी जान से लगे हुए स्वतंत्रता सेनानी. लाहौर कॉन्स्पीरेसी केस में उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के लिए केस लड़ा था. भगत सिंह की भी मदद की थी उन्होंने.
अरुणा से वो 23 साल बड़े थे, तिस पर मुस्लिम थे. अरुणा के घरवाले राजी ना हुए. उनके पिता की मौत हो चुकी थी जब उन्होंने आसफ़ अली से शादी की. लेकिन उनके चाचा ज़िंदा थे. नागेन्द्रनाथ गांगुली. जब अरुणा ने आसफ़ से शादी की, उनके चाचा ने कहा,
‘वो हमारे लिए मर गई. हमने उसका श्राद्ध कर दिया’.
आसफ़ के कांग्रेस में होने की वजह से अरुणा भी कांग्रेस के संपर्क में आईं. उनका रुझान आज़ादी की जंग की तरफ बढ़ा. उनकी शादी के दो साल बाद यानी 1930 में ही नमक सत्याग्रह हुआ. इसी में दांडी मार्च हुआ था और गांधी जी ने नमक बनाकर ब्रिटिशरों का कानून तोड़ा था. इस आन्दोलन में भाग लेने की वजह से अरुणा को जेल में डाल दिया गया. 1931 में गांधी इरविन पैक्ट हुआ था जिसमें अविनय अवज्ञा आन्दोलन (सिविल डिसओबेडियेंस मूवमेंट) के तहत विरोध कर रहे जो लोग जेल में डाले गए थे उनको रिहा कर दिया जाए. अरुणा से ब्रिटिश सरकार इतना चिंतित थी कि उनको जेल से रिहा ही नहीं किया.
उस जेल की किसी भी औरत ने रिहा होने से मना कर दिया.
महात्मा गांधी ने काफी कोशिश की उनको समझाने बुझाने की, और इस बात पर जनता में भी भारी असंतोष हुआ. इसके बाद अरुणा को छोड़ दिया गया.
जब भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू होने वाला था, उसके ठीक पहले सभी नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था. 8 अगस्त 1942 को ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी ने कांग्रेस के बॉम्बे अधिवेशन में क्विट इंडिया रिजोल्यूशन पास किया, और उसी दिन सभी बड़े नेता और कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य हिरासत में ले लिए गए. अगले दिन यानी 9 अगस्त को अरुणा आसफ़ अली गोवलिया टैंक मैदान पहुंचीं, और वहां से झंडा फहराकर भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरुआत की.
इसके बाद उनके नाम का वारंट निकल आया. वो अंडरग्राउंड चली गईं. उनकी प्रॉपर्टी ज़ब्त करके बेच दी गई. ब्रिटिश सरकार ने उनके नाम पर 5000 का ईनाम भी रखा. खुद गांधी जी ने उनको चिट्ठी लिखी किवो सरेंडर कर दें. लेकिन अरुणा तभी वापस लौटीं जब उनके नाम का वारंट वापस ले लिया गया 1946 में.
अरुणा को उनके गुज़र जाने के बाद 1997 में भारत रत्न सम्मान दिया गया. दिल्ली में उनके नाम से अरुणा आसफ अली मार्ग है. लेकिन उनकी विरासत इससे कहीं आगे की है, जिसे याद करने वाले हमेशा बने रहेंगे.
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