1962 की जंग के शहीद की बॉडी नहीं मिली थी, पत्नी 57 साल तक सुहागन की तरह रहती रही
शहीद पति को अमर मानकर सुहागन की तरह रही. अब जाकर उतारी सुहाग की निशानी.
राजस्थान के जोधपुर में पीपाड़ तहसील है. वहां एक गांव है खांगटा. खांगटा गांव में रहती हैं गट्टू देवी. उनके पति भीकाराम ताडा भारतीय सेना में थे. 1962 में हुई भारत-चीन जंग में वो शहीद हो गए थे. गट्टू देवी ने पति के शहीद होने के 57 साल बाद सुहाग की निशानी उतारी है. उन्होंने 27 फरवरी 2019 के दिन ऐसा किया.
खांगटा गांव में 27 फरवरी के दिन भीकाराम की एक मूर्ति का अनावरण हुआ. गट्टू देवी ने ही अनावरण किया. गट्टू देवी जब अपने पति की मूर्ति के पास पहुंची, उनकी आंखों में आंसू आ गए. फिर उन्होंने खुद को संभाला, और सिर का बोर (मांग टीका) उतारकर पति के चरणों में रख दिया. इतने साल तक वो अपने पति को जिंदा मानती रही थीं. और सुहागन की तरह रह रही थीं.
इसके पीछे दो कारण हैं. पहला ये कहा जाता है कि शहीद अमर हो जाते हैं. दूसरा उस समय में, यानी 50-60 साल पहले कई बार तो शहीदों का पार्थिव शरीर उनके घर तक पहुंचता ही नहीं था. भीकाराम का शरीर भी उनके घर तक नहीं पहुंचा था. ऐसे में जब पति का पार्थिव शरीर कभी देखा ही नहीं, तो ये कैसे मान लेती कि उनके पति शहीद हो गए.
प्रतीकात्मक तस्वीर. रॉयटर्स
गट्टू देवी अब बहुत बूढ़ी हो चुकी हैं. बहुत छोटी थीं, तब उनकी शादी भीकाराम से हो गई थी. दैनिक भास्कर में छपि एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1 जुलाई 1943 के दिन गट्टू और भीकाराम की शादी हुई थी. 1961 में वो आर्मी के पायरनियर कोर बेंगलुरू में भर्ती हो गए थे. 1962 में जब चीन से जंग हुई, तब वो भी लड़ने गए. लेकिन 8 सितंबर 1962 के दिन वो शहीद हो गए. उनका शरीर घर नहीं आया. गट्टू देवी ने कहा कि जब उनके पति का शरीर घर आया ही नहीं, तो वो ये कैसे मान लें कि उनके पति अब जिंदा नहीं हैं. इसलिए वो इतने साल तक सुहागन की तरह रहती रहीं.
उन्होंने अपने बच्चों को उनके पिता के वीरता के किस्से सुनाए. बच्चों को अच्छे से पढ़ाया-लिखाया. और देश की सेवा में भेज दिया. उनका एक बेटे ने आर्मी जॉइन की, तो दूसरे ने नेवी. पोता भी बड़ा हो गया है, और भारतीय सेना में है.
प्रतीकात्मक तस्वीर. रॉयटर्स
अपना फर्ज बखूबी निभाया. अब जब उन्हें लगा कि उन्होंने अपने सारे फर्ज निभा लिए हैं, तब अपने पति को शहीद मानते हुए उनकी मूर्ति गांव में लगवाने का फैसला किया. 57 साल पहले जब गट्टू देवी ने सुहागन की तरह रहने का फैसला किया, तब गांव वालों ने उन्हें कई बार ताने मारे. लेकिन उन्होंने सबकुछ सहन किया. सुहागन की तरह हिम्मत से रहीं. उन्होंने बच्चों को पढ़ाया. बच्चों को उनके पिता के किस्से सुनाकर देशभक्ति की भावना मन में जगाई. और दोनों ही बेटों को देश की सेवा में भेज दिया.
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