खाना खाने उतरीं, कार में बम फटा, बच गईं क्योंकि दिल्ली पर 15 साल राज करना लिखा था

शीला दीक्षित, जिनके पति ने शादी के लिए चलती हुई बस में प्रपोज किया था

साल 1958.

दिल्ली की सड़कों पर एक बस दौड़ रही थी. दिन खुला-खुला था. फिरोजशाह रोड जाने वाली बस नंबर 10 में लड़का, एक लड़की चुपचाप बैठे हुए थे. बस चांदनी चौक से गुजर रही थी. तभी उस लड़के ने लड़की से कहा, ‘मैं घर जाकर अपनी मां से कहूंगा. जिस लड़की से मुझे शादी करनी है, वो मिल गई है’.

लड़की ने कहा, ‘उस लड़की से पूछा है तुमने?’

‘नहीं, लेकिन वो मेरे बगल में बैठी है’.

लड़की थी शीला कपूर. लड़का, विनोद दीक्षित. लड़की पंजाबी घर की अंग्रेजीदां. लड़का कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के परिवार में पला-बढ़ा. लड़की के घर वालों को मनाने में समय नहीं लगा. लड़के के घरवाले दो साल तक इंतज़ार कराते रहे. सादे तरीके से शादी हुई. ये बात और थी कि उस शादी के रिसेप्शन में लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी से लेकर जाकिर हुसैन तक मौजूद थे. कैसे? उनके ससुर उमाशंकर दीक्षित कांग्रेस के भोकाली लीडर थे. गजब दबदबे वाले.

uma-shankar-750x500_011719055426.jpgउमा शंकर दीक्षित. तस्वीर: विकिमीडिया

ये कहानी है शीला कपूर की. जो शादी के बाद शीला दीक्षित हुईं. दिल्ली में कांग्रेस का सिक्का जमाया. किस्से भारत की उस मुख्यमंत्री के, जिसे जर्नलिस्ट असोसिएशन ऑफ इंडिया ने 2008 में बेस्ट चीफ मिनिस्टर ऑफ इंडिया का खिताब दिया था. किस्से उस मुख्यमंत्री के पीछे की लड़की के. शीला कपूर के. मिरांडा हाउस से पास आउट हुई एक आजाद ख्याल लड़की के.

एक

जब शीला और विनोद की शादी हुई, तो सबसे ज्यादा चिंता लोगों को उनकी ददिया सास की तरफ से थी. ददिया सास यानी विनोद की दादी. सब लोग उन्हें मम्मू बुलाते थे. इंटरकास्ट शादी में सबसे ज्यादा नाराजगी उन्हीं की झेली गई थी. लेकिन शीला ने ठान लिया था, इम्प्रेस तो करके रहेंगी सबको. घुल-मिलकर रहेंगी. शादी के बाद तीन दिन तक विनोद के लखनऊ वाले घर में कमर तक लंबा घूंघट काढ़े औरतों के पैर छूती रहीं. खाना बनाती रहीं. स्टोर रूम में बर्तन साइड करके सोती रहीं. तीन दिन तक उनको ऑब्जरवेशन में रखा उनकी ददिया सास ने. इम्प्रेस हो गईं. अपना लिया अपनी बहू के रूप में. सबको बतातीं, ‘पढ़ी-लिखी है, दिल्ली की लड़की है, एक मरांडा से आई है’. सबको सुकून मिला. 

sheila-pti-750x500_011719055450.jpgतस्वीर: पीटीआई

दो 

उसी साल की सर्दियों में शीला ने अपनी मम्मू के लिए स्वेटर बुना. स्वेटर तो बुन लिया, लेकिन बाहें छोटी रह गईं. उनको लगा, अब तो बेइज्जती हो जाएगी. लेकिन मम्मू ने सबको चुप करा दिया एक झटके में. कहा, बहूरानी बड़ी सयानी है. इसको पता है मैं रोज़ दिया जलाती हूं. इसने जान-बूझकर छोटा रखा बाजुओं को. कहीं तेल न लग जाए या आग न पकड़ ले इसलिए’. साल भर के भीतर शीला घर भर की बेटी बन चुकी थीं.

तीन 

15 साल की शीला एक दिन अपने कजिन्स के साथ घूमते-घूमते तीन मूर्ति हाउस चली गई थीं. उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू का घर. वहां जाकर गेट के पास खड़ी हुईं तो गार्ड ने पूछा यहां क्या कर रही हो. उन्होंने कहा, हमें पंडित जी से मिलने जाना है. गार्ड ने उनको जाने दिया. जैसे वो लोग अन्दर गए, नेहरू अपनी सफ़ेद एम्बैसडर में गेट की तरफ आते हुए दिखाई दिए. इन्होंने हाथ हिलाया. नेहरू ने वापस हाथ हिलाकर उनका अभिवादन किया. सालों बाद शीला ने अपनी बायोग्राफी में लिखा, क्या आजकल के टाइम में ऐसा कुछ होना सम्भव है?

sheila-into-750x500_011719055550.jpgतस्वीर: इंडिया टुडे

चार 

साल 1985 की एक दोपहर शीला दीक्षित का किस्सा खत्म हो गया होता. भला हो किसी की भूख का. एक लंच ने उन्हें बचा लिया. जुलाई 1985. राजीव गांधी और संत हरचरण सिंह लोंगोवाल के बीच पंजाब पीस अकॉर्ड हुआ. लोगों को उम्मीद थी कि अब हालात ठीक हो जाएंगे. मगर फिर अगस्त में लोंगोवाल की हत्या कर दी गई. इसी माहौल में 25 सितंबर को विधानसभा चुनाव होने थे. शीला दीक्षित पहले भी कई इलेक्शन कैंपेन में शिरकत कर चुकी थीं. पंजाब भी भेजा गया उनको. चुनाव प्रचार के आखिरी दिन की बात है. अंतिम रैली खत्म हुई. बिहार के एक सांसद की कार में बैठकर शीला दीक्षित बटाला से अमृतसर के लिए रवाना हुईं. कार में शीला थीं, वो सांसद थे, एक सुरक्षाकर्मी और एक ड्राइवर था.

sheila-reuters750x500_011719055620.jpgतस्वीर: रायटर्स

दिन के करीब एक बजे थे. ड्राइवर ने दोपहर के खाने के लिए एक रेस्तरां पर कार रोकी. कहा, अभी खाना खा लेते हैं. वरना अमृतसर पहुंचते-पहुंचते बहुत देर हो जाएगी. शीला अंदर कुर्सी पर बैठकर सॉफ्ट ड्रिंक का पहला घूंट गले में भरने ही जा रही थीं. कि तभी एक जोर की आवाज़ आई. एक धमाका हुआ था. उसी कार के अंदर, जिसमें कुछ मिनटों पहले शीला दीक्षित बैठी हुई थीं. कार टुकड़े-टुकड़े होकर उड़ गई. अगर ड्राइवर ने लंच के लिए गाड़ी नहीं रोकी होती, या कुछ मिनटों बाद रोकी होती, तो शीला धमाके के वक़्त कार के अंदर ही होतीं. ऐसा होता, तो शीला समेत बाकी तीनों लोग भी चिथड़ा-चिथड़ा होकर उड़ गए होते. ये लोग तो बच गए, मगर कार के पास मौजूद दो बच्चे मारे गए. बाद में पुलिस ने बताया. कार के अंदर टाइम बम फिट था. इस धमाके का डर, ब्लास्ट की आवाज़, गाड़ी के परखच्चे उड़ने का फ्रेम, शीला को ये सब याद रहा. मगर उन्होंने कैंपेन में अपने हिस्से आई जिम्मेदारियां नहीं छोड़ीं. इस घटना के 13 साल और तीन महीने बाद शीला दीक्षित ने पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

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सोर्स: शीला दीक्षित की लिखी किताब- सिटिजन देल्ही, माय टाइम्स माय लाइफ (ब्लूम्सबरी पब्लिकेशन्स)

 

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