फिल्म रिव्यू: संजू

ऊंची दुकान, कितना सही था पकवान?

राजकुमार हीरानी की फिल्में फील गुड होती है. वैसी जैसी आप कभी भी देख लो, अच्छी ही लगती है. हंसना, रोना, सब इंटेंस होता है. यानी पैसा वसूल. मुन्नाभाई एमबीबीएस जैसी कॉमेडी फिल्म्स कम ही बनी हैं बॉलीवुड में. उसमें भी रुलाई ऐसी आती है मानो बरसों से रोए नहीं, और सभी मौतों की गमी अभी मना लेंगे.  

आज रिलीज़ हुई फिल्म संजू में भी आपको ये सब कुछ मिलेगा. जल्दी जल्दी से आपको बता देते हैं कि आखिर फिल्म कैसी है, और इससे क्या एक्स्पेक्ट कर सकते हैं.

ये फिल्म कमाई बहुत करने वाली है, ये तय है. ये फिल्म कमाई बहुत करने वाली है, ये तय है.

बेसिक बातें सबसे पहले: संजय दत्त पर बनी बायोपिक है . राजकुमार हिरानी ने डायरेक्ट की है. अभिजात जोशी ने लिखी है राजकुमार के साथ मिलकर. संजय दत्त का किरदार निभा रहे हैं रणबीर कपूर. उनके पापा सुनील दत्त का किरदार निभा रहे हैं परेश रावल, मां हैं मनीषा कोइराला जो प्ले कर रही हैं नरगिस को. विकी कौशल संजय के बेस्ट फ्रेंड बने हैं, अनुष्का शर्मा बायोग्राफर बनी हैं जो संजय पर किताब लिखती हैं.

फिल्म काफी रंग बिरंगी है. फिल्म काफी रंग बिरंगी है.

इससे ज्यादा जानकारी देने का कोई पॉइंट नहीं है, ये डीटेल तो आप विकिपीडिया पेज पे भी पढ़ ही लेंगी. यहां क्यों आएंगी.

फिल्म खुश करेगी. रुलाएगी. संजय दत्त की लाइफ के बारे में ऐसा कुछ नहीं बताएगी जो आप पहले से नहीं जानती हों. एक काम ज़रूर करेगी, संजय दत्त को एक स्टेज पर चढ़ा कर लाइमलाइट डाल देगी. उसमें आपको एक परफेक्ट संजय दत्त दिखेंगे. स्टेज पर अगर उनका कोई फ्लॉ या कमी दिखती भी है तो वो परफॉरमेंस का हिस्सा है.

कहीं कहीं संजय का किरदार अटपटा बन गया है. इसमें रणबीर की एक्टिंग की कमी नहीं है. कहीं कहीं संजय का किरदार अटपटा बन गया है. इसमें रणबीर की एक्टिंग की कमी नहीं है.

एक इंसान को भगवान् दिखाने की कोशिश है, लेकिन भगवान बनने के चक्कर में उसकी इंसानियत बचाए भी रखनी है. तो कुछ कमियां मैन्युफैक्चर की जाती हैं. बनाई जाती हैं. जैसे सांवली सलोनी सूरत पर काजल का धब्बा लगा दिया जाए. लोग मन लेते हैं कि ये कमी है. पर उसका कमी होना तब तक स्वीकार्य है जब तक लोगों को पता हो कि उसके नीचे एक खूबसूरत, बेदाग़ त्वचा है. संजय का किरदार भी इस फिल्म कुछ ऐसा ही है.

एक पॉइंट पर ये फिल्म एक पीआर एक्सरसाइज की तरह लगने लग जाती है. एक पॉइंट पर ये फिल्म एक पीआर एक्सरसाइज की तरह लगने लग जाती है.

उसका ड्रग्स लेना, कई कई लड़कियों के साथ सोना, निजी ज़िन्दगी में ऊटपटांग निर्णय लेना जिससे पब्लिक इमेज की धज्जियां उड़ जाएं- सब कुछ माफ़ है जब तक देखने वाले को ये मालूम चल रहा है फिल्म में कि ये सब करते हुए भी संजू एक प्यार करने वाला बेटा था. एक हीरो था जो हारने के बाद  लौट कर आया.

नरगिस का किरदार थोड़ा और गहराई से दिखाया जा सकता था. नरगिस का किरदार थोड़ा और गहराई से दिखाया जा सकता था.

बाकी के किरदार ऐसे हैं जिनका होना ना होना संजू के आस पास रिवॉल्व करता है. बायोपिक्स में ये एक बहुत बड़ी सिनेमाई लिमिटेशन हो जाती है. दूसरे किरदार बस वहीं तक जा सकते हैं जहाँ तक फिल्म का मुख्य किरदार उन्हें जाने दे. इस सीमा को कहीं कहीं तोड़ते नज़र आते हैं विकी कौशल. संजू के बेस्ट फ्रेंड.

विकी कौशल को इस फिल्म में देखकर आप सोचेंगे, काश आपका भी ऐसा कोई दोस्त होता. विकी कौशल को इस फिल्म में देखकर आप सोचेंगे, काश आपका भी ऐसा कोई दोस्त होता.

परेश रावल ने पूरी फिल्म में बेहतरीन काम किया है.  

महिला किरदार में सिर्फ नरगिस हैं जिनका किरदार सिग्निफिकेंस रखता है. वो भी इसलिए क्योंकि वो एक कड़ी है जो संजय को ड्रग्स की दुनिया से लौटा कर असल दुनिया से जोड़े रखती है.

अनुष्का शर्मा का किरदार कहां से आया है कुछ समझ नहीं आता. अनुष्का शर्मा का किरदार कहां से आया है कुछ समझ नहीं आता.

बाकी के सभी फीमेल किरदार बस होने के लिए हैं. अनुष्का शर्मा की जगह कोई और लड़की भी हो सकती थी और फर्क नहीं पड़ता. मान्यता दत्त के किरदार में दीया मिर्ज़ा एक सपोर्टिव किरदार हैं बस. वो पत्नी नहीं भी होतीं, तो भी इस फिल्म पर कोई असर नहीं पड़ता. संजय दत्त की दोनों बहनों के कोई डायलॉग नहीं हैं पूरी फिल्म में.

मान्यता से पहले की सभी रिलेशनशिप्स को एक सोनम कपूर में लपेट कर इति श्री कर ली है हीरानी ने. मान्यता से पहले की सभी रिलेशनशिप्स को एक सोनम कपूर में लपेट कर इति श्री कर ली है हीरानी ने.

फिल्म रंग बिरंगी है. स्क्रीनप्ले पर हीरानी ने हर बार की तरह इस बार भी काफी अच्छा काम किया है. फिल्म नॉन-लीनियर है यानी एक कहानी की तरह सीधे आगे नहीं बढ़ती. आगे जाती है, पीछे आती है. बीच में अनुष्का शर्मा थाली के बैंगन की तरह कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ जाती हैं, किताब लिखनी है या नहीं लिखनी. पर नहीं लिखेंगी तो संजय दत्त इस फिल्म में कहानी क्यों सुनाएंगे अपनी. इसलिए उनको किताब तो लिखनी ही है. कहानी को बस खींच लिया है थोड़ा, और कुछ नहीं. वैसे ज़रुरत नहीं थी. 161 मिनट की फिल्म वैसे ही बहुत लम्बी हो जाती है.

परेश रावल ने हर सीन में कमाल का काम किया है. परेश रावल ने हर सीन में कमाल का काम किया है.

फिल्म में सटायर अच्छे हैं. उन लोगों को नए लगेंगे जो लोग किसी भी तरह के पोएट्री सर्कल में नहीं हैं. माने कविताएं लिखते पढ़ते नहीं हैं. वरना जिस तरह से इस फिल्म में पत्रकारिता और पत्रकारों पर सवाल उठाये गए हैं, दिल्ली के हौज़ खास में शाम को किसी भी कैफे में बैठ जाइए, रोज़ सैकड़ों लोग इसी तरह गरियाते हैं मेनस्ट्रीम मीडिया को. वो भी चुटकियां बजाकर. स्लैम पोएट्री करते हुए. अंग्रेजी में ज्यादा है. अब हिंदी में भी शोशेबाजी शुरू हो गई है.

‘द न्यूज़पेपर पुट ए क्वेश्चन मार्क, राईट अगेंस्ट माई नेम

व्हाट आई हैड ऑल दैट आई लॉस्ट, लव, माई फ्रेंड्स, एंड फेम’  

कविता का हिस्सा है. पर संजू फिल्म की आधी स्क्रिप्ट भी है. फिर भी, देखिए. परिवार थोड़े भी खुले विचार वाला है तो फैमिली फिल्म है ये. लेकिन लड़कियों के बिना घूंघट बाहर निकलने पर नाक भौं सिकोड़ने वाले दादा-दादी हैं घर पर तो उन्हें ना ही लायें तो बेहतर.

संजय का पता नहीं, ये रिव्यू पक्का यहां फिनिश हो जाएगा. संजय का पता नहीं, ये रिव्यू पक्का यहां फिनिश हो जाएगा.

 

 

 

लगातार ऑडनारी खबरों की सप्लाई के लिए फेसबुक पर लाइक करे      

Copyright © 2024 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today. India Today Group