कैसी है फिल्म 'राज़ी'?

एक लड़की, एक बेटी, एक पत्नी और एक देशभक्त

फोटो क्रडिट - फेसबुक

भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर बनी फिल्मों में एक और नाम जोड़ लीजिए. एक बेहतरीन फिल्म का नाम - 'राज़ी'. यह फिल्म आपमें देशभक्ति का भाव नहीं भरती. न ही आपका मन करता है कि बॉर्डर पर खड़े होकर दो-चार पाकिस्तानियों को मार आएं. जैसा कि 'बॉर्डर', या 'एलओसी कारगिल' देखने पर होता है. फिर यह फिल्म बेहतरीन कैसे? बेहतरीन ऐसे कि यह फिल्म आपको मानवीय संवेदनाओं से जोड़ती है. यह फिल्म किसी को सही-गलत नहीं ठहराती. आपको कोई निर्णय नहीं सुनाती. आपकी सोच नहीं बनाती. यह फिल्म बस एक कहानी दिखाती है. जो कि फिल्मों का असल काम है. जैसा हो रहा है, बिलकुल वैसा. सिनेमा से निकलकर आप खुद तय कर सकते हैं कि आपको किस तरफ खड़े होना है.  

सहमत की हिम्मत ही उसे हर जगह बचाती है. सहमत की हिम्मत ही उसे हर जगह बचाती है.

'राज़ी' सहमत (आलिया भट्ट) नाम की एक लड़की और उसकी हिम्मत की कहानी है. एक हम जैसी लड़की, जो कॉलेज में पढ़ती है. उसकी ज़िन्दगी एक सूचना से बदल जाती है. उसे पता चलता है कि उसकी शादी तय कर दी गई है. जैसा पीढ़ियों से लड़कियों के साथ होता आया है, आज भी हो जाता है. आप अपनी धुन में होती हैं, और आपकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा फैसला आपके लिए कोई और ले चुका होता है. खैर, शादी सभी की ज़िन्दगी में बदलाव लाती है. फिर सहमत की ज़िन्दगी खास कैसे? ऐसे, कि उसकी शादी सिर्फ शादी के लिए नहीं होती. उसकी शादी के पीछे एक बहुत बड़ा मकसद होता है - देश के लिए पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की खुफिया जानकारी जुटाना.

तो उसका ब्याह होता है पाकिस्तान के एक आर्मी ऑफिसर के बेटे इक़बाल (विक्की कौशल) से. इक़बाल भी पाकिस्तान आर्मी के लिए ही काम करते हैं. सहमत पाकिस्तान में रहकर कैसे अपने देश के लिए काम करती है, इसी के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म बुनी गई है. फिल्म हरिंदर एस. सिक्का के उपन्यास ‘कॉलिंग सहमत’ पर आधारित है. 

सहमत का जूनन उसे हिम्मत देता है सहमत का जूनन उसे हिम्मत देता है

'बेटी है तुम्हारी हिदायत!

एक हिन्दुस्तानी पहले है.'

दहलीज़ ऊंची है ये पार करा दे, 'दिलबरो' दहलीज़ ऊंची है ये पार करा दे, 'दिलबरो'

यह डायलॉग फिल्म 'राज़ी' की जान है. इस एक पंक्ति से पूरी फिल्म को समझा जा सकता है. लेकिन पूरी फिल्म देखने के लिए आपको सिनेमाघर ही जाना होगा. यह फिल्म देशभक्ति का नायाब नमूना पेश करती है. पूरी फिल्म में हमें यह महसूस होता है. कुछ सीन्स हमें वहां ले जाते हैं, जहां हममें और किरदार में कोई फर्क ही नहीं बचता. हमें फिल्म हमारी अपनी कहानी लगने लगती है. जैसे, जब आलिया भट्ट का किरदार बंदूक ताने खड़ा है और कहता है – ‘वतन के आगे कुछ नहीं.’ यह डायलॉग हमने ट्रेलर में भी सुना. पर जब आप फिल्म में इसे देखते हैं तो पूरी तरह खुद को उससे जोड़ पाते हैं.

'राज़ी' पूरी तरह से आलिया की फिल्म है. एक सीन, जिसमें आलिया गाड़ी चला रही होती हैं (ये ट्रेलर में भी है). इस सीन में उनके चेहरे पर डर और हिम्मत दोनों भाव हैं. यहां आप खुद को आलिया की एक्टिंग की तारीफ करने से रोक नहीं पाएंगे. और ये सीन अकेला नहीं है, आलिया सीन दर सीन आपको प्रभावित करती चलती हैं.

एक मज़बूत महिला पात्र दिखाती फिल्में कई बार उनकी एक 'माचो' छवि गढ़ देती हैं. 'राज़ी' इससे बचती है. पात्र की मज़बूती दिखाने का फिल्म का अपना तरीका है. एक सीन में सहमत कब्रिस्तान में खड़ी नज़र आती हैं. फिल्म सत्तर के दशक में एक लड़की को किसी के जनाज़े के साथ न सिर्फ कब्रिस्तान जाते दिखाती है, बल्कि हम उसे मिट्टी देते भी देखते हैं. एक दृश्य बिना कुछ बोले सहमत की हिम्मत का सबूत दे देता है. 

जैसे कविताएं लिखे गए शब्दों से ज़्यादा उन शब्दों के बीच छोड़े गए अंतराल में होती हैं. वैसे ही यह फिल्म शब्दों और दृश्यों से ज़्यादा उनके बीच के अंतराल में है. बस उन संकेतों को समझिए और फिल्म पूरी तरह आपकी. सहमत की कहानी क्या है? उसने क्या ज़रूरी जानकारी भारत को दी? और कैसे एक आम लड़की महान बन गई? सबके जवाब आपको फिल्म देखने पर मिलेंगे. हम तो बस यही कहेंगे कि आलिया भट्ट, विक्की कौशल, सोनी राज़दान, शिशिर शर्मा, जयदीप एहलावत की बढ़िया एक्टिंग देखना चाहते हैं, तो देखिए यह फिल्म. मेघना गुलज़ार ने फिल्म नहीं आर्ट रचा है. जिसे और खूबसूरत बनाया है जय पटेल की सिनेमैटोग्राफी ने. फिल्म में बनाए गए फ्रेम देखने लायक हैं.

आखिर में बस यह गाने की लाइन ही कहना चाहेंगे –

'लगा दे दांव पर दिल, अगर दिल राज़ी है'

ट्रेलर नहीं देखा है तो यहां देखिए –

 

 

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