पेट्रोल के दाम घटते बढ़ते क्यों रहते हैं?
दूसरे देशों में सस्ता कैसे है पेट्रोल ?
‘पेट्रोल-डीजल के दामों में लगी आग’
ऐसी हेडलाइन आपने न जाने कितनी बार न्यूजपेपर्स में और चैनलों पर देखी होगी. अगर आप गाड़ी या दोपहिया का इस्तेमाल करती हैं तो आपको पता होगा कि पेट्रोल डीजल का दाम बढ़ना अपने आप में एक सिरदर्द है. और घटने का नाम तो ये कभी लेता ही नहीं. हर बार बढ़ ही जाता है. अगर आप गाड़ी या दोपहिये का इस्तेमाल नहीं भी करतीं तो भी आपको इनकी कीमत बढ़ने का असर दिखेगा. बस-ऑटो-टैक्सी का किराया बढ़ेगा. और भी बहुत कुछ. आखिर ये होता कैसे है. क्या है पेट्रोल की कीमतों में. कौन तय करता है. कैसे बढ़ती-घटती हैं कीमतें. अगर ईरान की अमेरिका से झड़प हो गई है तो उससे हमारी बस के टिकट की कीमत पर क्या असर पड़ेगा. आइये समझते हैं.
पेट्रोल क्या है? कैसे बनता है? क्या फर्क है पेट्रोल और डीजल में?
इसके लिए टाइम में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा. लेकिन एक बार आप ये इंट्रो जान जाएंगी तो फिर कभी भूलेंगी नहीं. जब धरती बनी थी, तब से लेकर अब तक इसमें काफी बदलाव आ चुके हैं. इन्हीं बदलावों यानी चेंजेस में से एक है पृथ्वी की लेयर्स यानी परतों के बीच जानवरों, पेड़ों इत्यादि का दबते जाना. भूकंप, ज्वालामुखी फटना, कई ऐसी चीज़ें हैं जिनके होने से धरती की अलग-अलग परतों के बीच जानवर और पेड़ इत्यादि दब जाते हैं. जैसे कई लाख साल पहले जब डायनासौर हुआ करते थे, तब अन्तरिक्ष से एक उल्कापिंड आकर टकराया था धरती से. उसकी वजह से ही डायनासौर खत्म हुए. खत्म तो हुए, पर उनकी लाशें तो धरती पर ही रहीं. वो परत दर परत के भीतर दबती गईं. नीचे चली गईं, तो ढेर सारा प्रेशर पड़ा उनपर. प्रेशर यानी दबाव. जैसे प्रेशर कुकर में कुछ डाल कर सीटी लगवा दीजिये तो वो गल जाता है. वैसा ही कुछ हुआ. कुछ हिस्सा कोयला बना, कुछ हिस्सा और भी ज्यादा प्रेशर झेल कर हीरे में बदल गया. जो बचा वो बन गया फॉसिल फ्यूल. यानी मरे हुए जीवों का ईंधन. वो तेल जिसको क्रूड ऑइल (Crude Oil ) कहते हैं. क्रूड यानी जिसको रिफाइन नहीं किया गया है. जिसमें से अशुद्धियां निकाली नहीं गई हैं. टेक्निकल वाली हिंदी में पढ़ेंगे तो इसको अपरिष्कृत तेल कहा जाएगा. इसी क्रूड ऑइल में से निकलता है पेट्रोल, डीजल, किरासन का तेल (इसे मिट्टी का तेल भी कहते हैं), गैस, और वैसलीन. वही वैसलीन जो आप हाथ पैरों और होठों पर लगाती हैं. इसीलिए उसको पेट्रोलियम जेली भी कहते हैं. क्योंकि वो पेट्रोल वगैरह निकल जाने के बाद बचती है.
पेट्रोल और डीजल में फर्क उनकी डेंसिटी का है. यानी डीजल थोड़ा ज्यादा गाढ़ा होता है. उसमें एनर्जी भी ज्यादा होती है. पर उसमें वातावरण को हानि पहुंचाने वाले एलिमेंट भी काफी ज्यादा होते हैं. इसी वजह से उसको और ज्यादा रिफाइन करना पड़ता है. कोई भी एलिमेंट (तत्व या पदार्थ) मॉलिक्यूल्स से बना होता है. ये क्रूड ऑइल हाइड्रोकार्बंस से बना होता है. मोटा मोटी ये समझ लीजिये कि उन्हीं मोलिक्यूल्स के डिजाइन में थोड़ा बहुत अंतर होता है जिससे पेट्रोल और डीजल अलग बनते हैं. इनको समझने बैठेंगे तो दसवीं ग्यारहवीं की साइंस बुक उठानी पड़ेगी. उतने की ज़रुरत नहीं है. बेसिक बात यही है. जैसे आटे से ही मैदा भी निकलता है, चोकर भी. वैसा ही.
कैसे तय होते हैं पेट्रोल-डीजल के दाम? कौन करता है इनको तय?
उसको समझने से पहले इकॉनमिक्स का एक छोटा सा कांसेप्ट समझ लीजिये. डिमांड और सप्लाई. डिमांड यानी किसी चीज़ की मांग. सप्लाई यानी उस चीज़ की आपूर्ति. अवेलबल करवाना. जो चीज़ बाज़ार में आसानी से और काफी मिल जाती है, उसकी कीमत भी कम होती है. जैसे सीजनल सब्जियों के दाम मौसम आने पर कम हो जाते हैं. सस्ती मिलती हैं. क्योंकि वो उस सीजन में काफी मिलती हैं. वहीं जो चीज़ मिलनी मुश्किल होती है, उसकी कीमत बढ़ जाती है. मांग ज्यादा होगी, तो कीमत बढ़ेगी. मांग कम होगी, तो कीमत घटेगी.
अब आते हैं पेट्रोल पर.
यहाँ आकर मामला थोड़ा कॉम्प्लेक्स हो जाता है. यहाँ पेट्रोल का बाज़ार सिर्फ डिमांड सप्लाई पर नहीं चलता. और भी कई चीज़ें इसमें इनवॉल्व हो जाती हैं. इनको एक एक कर के समझते हैं. क्रूड ऑइल को ज़मीन के अन्दर से निकालने के लिए ड्रिलिंग करनी पड़ती है. ये ड्रिलिंग ज़मीन पर और समंदर के अन्दर भी होती है. वैसे तो क्रूड ऑइल पूरी दुनिया में फैला है, लेकिन कुछ ऐसी जगहें हैं जहां पर इसको निकालना आसान है. और जहाँ इनका भण्डार भी थोड़ा ज्यादा है. ये जगहें अधिकतर मिडल ईस्ट यानी मध्य पूर्व के देशों में हैं. यहीं से सबसे ज्यादा तेल पूरी दुनिया को भेजा जाता है. वो तेल क्रूड ऑइल के बैरल में भर कर शिप किया जाता है.
ये क्रूड ऑइल भी अलग अलग क्वॉलिटी का होता है. जिसको रिफाइन करना जितना मुश्किल है वो उतना सस्ता होता है. जो अच्छी क्वॉलिटी का होता है उसको ऊंचे दाम पर बेचने में आसानी होती है. ये डिसाइड होता है उसमें सल्फर की मात्रा और बाकी की अशुद्धियों के आधार पर. अब पेट्रोल तो एक ऐसी चीज़ है जिसका इस्तेमाल लोग करते ही हैं. फिर इसके दाम गिरते बढ़ते क्यों रहते हैं? ये सब कंट्रोल करते हैं वो मिडल ईस्ट के देश जो मिलकर बनाते हैं OPEC. यानी ऑगनाईजेशन ऑफ द पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज.
इनमें ये सारे देश हैं:अल्जीरिया, अंगोला, इक्वाडोर, सऊदी अरेबिया, इक्विटोरियल गिनी, नाईजीरिया, कतर, ईरान, कुवैत, ईराक, वेनेज़ुएला,यूनाइटेड अरब एमिरेट्स, गैबोन, और लीबिया.
ये देश पेट्रोल की सप्लाई अपने मुताबिक़ डिसाइड करते हैं. और जितना तेल ये मार्केट में अवेलेबल कराएंगे उसके हिसाब से ही बाकी जगहों पर उसकी कीमत तय होगी. जैसे मोहल्ले के चार दादा लोग मिलकर डिसाइड कर लें कि उनके मोहल्ले में कौन कितने खोमचे लगाएगा. कितना बेचेगा. कितने का बेचेगा. वैसा ही. इनकी अपनी लिमिटेशन है, लेकिन हर देश के पास अपने तेल के कुएं बनाने के लायक पैसे या रिसोर्सेज नहीं हैं. तो इस वजह से अभी भी OPEC की पकड़ हलकी नहीं हुई है. अभी भी वो पेट्रोल के दाम कंट्रोल वैसे ही कर सकता है जैसा वो चाहता है. अमेरिका के पास भी तेल है. भारत के पास भी है. लेकिन जिस लेवल पर इन देशों के पास है उस लेवल तक का नहीं है. तो सीधी सीधी बात ये समझिये कि अभी फोकस हम इस बात पर रखेंगे कि OPEC कैसे दाम तय करता है. किन देशों में क्या दाम हैं. भारत में दाम कैसे अफेक्ट हो रहे हैं. दाम कम किस बेसिस पर होते हैं.
पेट्रोल के दाम रोज़-रोज़ के हिसाब से घटते बढ़ते हैं. उसकी कीमत तय होना भी अपने आप में एक सट्टा बाज़ार है. जैसे इन्वेस्टमेंट के बाज़ार में पता नहीं होता कि कल शेयर किस दाम पर खुलेंगे, वैसे ही तेल के दामों में कई चीज़ों की वजह से असर आता है. मान लीजिये कल को कुवैत में भूकंप आ गया, बम फट गया, या कोई भी ऐसी चीज़ हो गई जिसकी वजह से तेल के प्रोडक्शन पर असर पड़ गया. तो तेल के दाम बढ़ जायेंगे. क्योंकि कुवैत से आने वाला तेल कम हो जाएगा. तो जो बड़े बड़े तेल खरीदने वाले समूह हैं वो तेल निकालने वाले समूहों के साथ ‘फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट’ कर लेते हैं.
फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में होता ये है कि किसी भी आने वाली तारीख को तेल की एक तय अमाउंट एक तय कीमत पर खरीदने की बात हो जाती है. जैसे मान लीजिये कि मेरी अपनी एक तेल बेचने वाली कम्पनी है. अभी मई का महीना चल रहा है. मुझे ढाई लाख क्रूड ऑइल के बैरल खरीदने हैं. लेकिन मुझे वो दिसंबर में चाहिए. मैं तेल निकालने वाली कम्पनी के पास जाऊंगी. उसको बताऊंगी कि मुझे दिसंबर तक इतने बैरल चाहिए. अब या तो वो मुझे बेचने से मना कर दे. या फिर देख ले कि कितने पैसों पर मुझे वो बैरल्स बेचेगी. अगर दिसंबर तक उस कम्पनी को लगेगा कि मुझे सत्तर डॉलर प्रति बैरल पर ढाई लाख बैरल देने पर उसे फायदा होगा, तो वो अपने हिसाब लगाकर मुझे तब बेच देगी. इससे रोज़ रोज़ के उतार चढ़ाव से छुटकारा मिलेगा. लेकिन इसमें भी अंत किसी भी तरफ हो सकता है. दिसंबर में तेल महंगा हुआ तो मेरा फायदा होगा. सस्ता हो गया तो मेरा नुकसान होगा. फिर मैं उस तेल को बाद में बेचूंगी. जब दाम बढ़ जाएंगे. या नुकसान उठाऊंगी.
अगर बाज़ार में खबर चल गई कि आने वाले टाइम में ईराक तेल का प्रोडक्शन बंद करने वाला है. या फिर कहीं एक बहुत बड़ा तेल का कुआं सूखने वाला है. या फिर अगले साल गाड़ियां बहुत अधिक बिकने वाली हैं. तो तेल के दाम ऊपर चढ़ जाएंगे. अगर पता चला कि एक ऐसा नैचरल गैस का कुआं मिल गया है जिससे एक पूरे देश की ज़रूरत फ्यूल की पूरी की जा सकेगी तो तेल के दाम गिरेंगे. या पता चला कि इलेक्ट्रिक गाड़ियां सस्ती होने वाली हैं, तो भी तेल के दाम गिरेंगे. पिछले कुछ सालों में इंटरनेशनल लेवल पर तेल के दाम गिरे थे. क्योंकि अमेरिका में तेल का प्रोडक्शन बढ़ गया था. ईरान पर से इम्बार्गो (रोक या लिमिटेशन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला टेक्निकल शब्द)हट गया था यानी लिमिटेशन हट गई थी तेल को बेचने की. तो मार्केट में काफी तेल आ गया था. और भी कई कारण थे. लेकिन अभी हाल में न्यूक्लियर डील पर अमेरिका के पीछे हट जाने की वजह से ईरान पर फिर लिमिटेशन लगने की बात हो रही है. तो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बात चल रही है कि तेल की कमी हो जाएगी. जैसे अभी ईरान रोज़ 25 लाख बैरल सप्लाई कर रहा है. अगर अमेरिका उसपर रोक लगा दे या लिमिट कर दे तो ईरान रोज़ 10 लाख बैरल से ज्यादा तेल सप्लाई नहीं कर पायेगा. अभी हाल फिलहाल में OPEC देशों ने भी सप्लाई कम की है जिसकी वजह से तेल के दाम पूरी दुनिया में बढ़े हैं.
लेकिन भारत में स्थिति थोड़ी और कॉम्प्लेक्स हो जाती है.
जब पूरी दुनिया में तेल के दाम गिरे हुए थे, तब भी भारत में तेल के दाम काफी ऊपर थे. ऐसा क्यों/ इसको समझने के लिए तेल की प्राइसिंग का स्ट्रक्चर समझना होगा.
क्रूड ऑइल के एक बैरल में 159 लीटर क्रूड ऑइल होता है. मान लीजिये इस एक बैरल की कीमत 3200 रुपये है. यानी हर लीटर के तकरीबन बीस रुपये हुए. अब इस बैरल को ऑइल मार्केटिंग कम्पनीज खरीद लेंगी. भारत में मुख्य तीन कम्पनियां हैं. सरकारी हैं. BPCL(भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड), IOCL(इंडियन ऑइल कॉर्पोरेशन लिमिटेड), और HPCL( हिंदुस्तान प्राइवेट कॉर्पोरेट लिमिटेड). अब रिलायंस और एसार भी मार्केट में आ गई हैं लेकिन 90 से 95 परसेंट कंट्रोल इन्हीं तीनों कम्पनीज का है. अब इनमें से किसी एक ने ये बैरल खरीदा. अब क्रूड ऑइल है तो उसको रिफाइन करने में भी तो पैसे खर्च होंगे.तो ये कम्पनी रिफाइनरी को पैसे देकर तेल रिफाइन कराएगी. उसमें उसके पैसे लगे. ट्रांसपोर्ट करने में पैसे लगे. उसमें सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी भी लगेगी. फिर उसमें अपना चार्ज लगाकर कम्पनी उसे डीलर को देगी. डीलर कौन? जिसका पेट्रोल पम्प है. डीलर उसमें अपना कमीशन ऐड करेगा. उसमें वैट (VAT यानी वैल्यू एडेड टैक्स) और पॉल्यूशन सेस (CESS) जैसे चार्जेज जुड़ जाते हैं. तो अंत तक आते आते 20 रुपए पर लीटर वाला ये तेल आप तक 70 रुपये तक का हो जाता है. अलग अलग राज्यों में टैक्स स्टेट का अलग होता है तो उस वजह से दाम में थोड़ा अंतर आ जाता है.
बाकी देशों में पेट्रोल सस्ता क्यों होता है,उसकी अलग अलग वजहें हो सकती हैं. टैक्स का स्ट्रक्चर अलग होना, रिफाइनरी सर्विसेज का सस्ता होना, ट्रांसपोर्ट सुविधा का बेहतर होना. उन सबकी वजह से ये बाकी के खर्चे घट जाते हैं. इस वजह से वहां पर तेल के दाम कम हो जाते हैं. भारत में टैक्स का सिस्टम जल्दी जल्दी नहीं बदलता. कमीशन भी लोग कम नहीं करते. जब तक दाम कम होते हैं क्रूड ऑइल के तब डीलर भी अपने कमीशन में फायदा उठा लेते हैं. अब अगर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैरल के दाम बढ़ते हैं, तो ना तो रिफाइनिंग का पैसा कम होगा, ना ट्रांसपोर्ट का, ना ही डीलर के कमीशन का. टैक्स भी वही रहेंगे. तो दाम ज्यादा देगी जनता. लेकिन कम हुए, तो भी रिलीफ जनता को मिलने की आस कम ही होगी.
तो ये हुई तेल की बात. तेल के दाम की बात. तेल से जुड़े ऊंच नीच की बात. और कोई सवाल हो तो पूछिए बेझिझक. हम बताएं आपको.
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