इन पाकिस्तानी लड़कों की सोचने की शक्ति ख़त्म हो चुकी है, इनकी बीमारी का नाम है 'मर्दानगी'
बेहयाई का कोई धर्म नहीं होता, कोई भाषा नहीं होती, कोई सीमा नहीं होती
अभी हाल फिलहाल में पाकिस्तान में औरत मार्च निकला था. औरतों ने अपने हक़ के लिए, अपनी बातें कहने के लिए मार्च निकाला था. दिन था इंटरनेशनल विमेंस डे.
अब औरतों ने अपनी कहानी कहने के लिए मार्च निकाला. मिर्ची लग गई पुरुषों को. ऐसे कैसे भई? औरतें अपनी बात कैसे कह रही हैं? हमारी तो कोई सुनता ही नहीं. तो उन्होंने डिसाइड किया कि वो भी निकालेंगे मर्द मार्च. कुछ तस्वीरें उस मर्द मार्च से ये रहीं:
ये वाली तस्वीर कहती है,
तुम करो तो जस्ट फ्रेंड, मैं करूं तो गर्लफ्रेंड. कुछ नहीं, वही पुराना फ्रेंडज़ोन वाला रोना है.
तस्वीर: फेसबुक
ये वाली तस्वीर कहती है,
अपना चेक कराओ व्हाट्सएप.
तस्वीर: फेसबुक
और ये वाली,
तुम हव्वा की बेटी हो तो मैं भी आदम का बेटा हूं.
वाह, हम तो जानते ही नहीं थे जैसे.
वैसे जहां-जहां ये तसवीरें शेयर हुईं हैं, वहां पाकिस्तानी औरतों ने इनको धोया भी खूब है. अब आप कहेंगे इसमें दिक्कत क्या है? यही तो दिक्कत है बाबूजी, आपने सिमरन को समझा ही नहीं.
चंद पॉइंट्स आपकी नज़र क्योंकि ज्यादा पढ़ने में लोग अलसाते हैं आजकल. फिर कमेन्ट सेक्शन में गरियाएंगे कि तुमने ये क्यों नहीं लिखा. CBSE वाले भी सिखाते हैं कि पॉइंट में लिखो. तो वो भी कर के देख लेते हैं:
- मुझे भी पिक एंड ड्राप दो. बिलकुल देंगे. मिलना भी चाहिए. बस ये बता दें कि आखिरी बार रास्ते चलते कब किसी ने आपकी छाती पर हाथ मारा था, या नितम्ब नोचे थे? कब किसी ने अन्धेरे कोने में सीटी मारते हुए आपको घसीटने की कोशिश की थी. कब डर के मारे आपने अपने पर्स में पेपर स्प्रे कैरी किया था? रास्ते सेफ करवा दो. कैब वालों को कैब में मास्टरबेट करने से रोक लो. सड़क चलते छेड़ने वालों को रोक लो. औरतें खुद अपनी कैब्स बुक करके निकल जाएंगी. पिक एंड ड्राप आप ही रख लें.
तस्वीर: फेसबुक
- क्रेडिट कार्ड अपना बनवा लो. वाह. क्रेडिट कार्ड के लिए कमाई का एक जरिया भी तो होना चाहिए. सालों-साल काम तो करने दिया नहीं औरतों को. घर की अस्मत के नाम पर ओक्का बोक्का तीन तड़ोक्का खेलने बिठा दिया चारदीवारी में. अब औरतें जब काम कर रही हैं तो उससे दिक्कत है. अच्छी इम्प्लोयी हो, तो ज़रूर बॉस के साथ सोती होगी. एवेरेज एम्प्लोयी हो, तो हाय क्या घटिया रिसोर्स हायर कर लिया सिर्फ लड़की है इसलिए. बुरी होने का तो ऑप्शन ही नहीं होता उनके पास. एफोर्ड ही नहीं कर सकतीं वो. अब इसके लिए भी उनको शेम किया जाए कि उनको नौकरी नहीं करने दी जा रही. और रही बात क्रेडिट कार्ड की, तो अपने पैसे कमाने वाली सभी औरतें क्रेडिट कार्ड रखती भी हैं, और उनका इस्तेमाल भी करती हैं. ये सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स ना, छोड़ दीजिए. कोई भला नहीं होने वाला इससे.
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- मोजा छोड़ो दुपट्टा ढूंढो. मतलब कुछ भी? यानी पैरों में पहने जाने वाले एक साधारण से कपड़े के टुकड़े की तुलना आप उस चीज़ से कर रहे हैं जिसे सदियों से शर्म और इज्ज़त का गहना बोलकर औरतों के मत्थे मढ़ा गया है? अकल धेले की है या नहीं? या मोज़े खरीदने में बेच खाई है वो? कोई मोजा ढूंढने को कह दे तो आग लग जाती है? इतनी सी भी ज़िम्मेदारी नहीं संभाल सकते अपनी खुद की तो औरत को दुपट्टे के पीछे लगा दिया. उसे ह्यूमिलियेट करने के लिए और कोई रास्ता नहीं बचा? अपनी थेथरई छुपाने के लिए औरत की शर्म को हथियार बना लिया? यही तो करते आए हैं सदियों से. 2019 में भी यही कर रहे हैं? गजब.
तस्वीर: फेसबुक
- पहले खाना पका तो लो, फिर मैं गरम भी कर दूंगा. वाह. मतलब खाना बनाना और उसे गर्म करना सेम बात है? ऐसा है तो खुद बना लें. अपनी मां के पसंद का शोरबा पकाएं. उसके साथ की रोटी सेंकें. जब बन जाए सब तब खाते समय खाना मां खुद गर्म कर लेंगी. क्या बेहयाई है? खाना बनाने में खुद को चाहे सिर्फ पानी उबालना ही आता हो, खाने में छप्पन भोग से कम कुछ नहीं चलेगा. लाड़-प्यार के नाम पर बिगाड़ कर माटी कर देते हैं राजकुंवरों को लोग. जिस एक्साइटमेंट में ड्राइविंग सीखते हैं, उसी एक्साइटमेंट से खाना बनाना भी सीख लीजिए. दिन में तीन बार तो खाते ही हैं. बेसिक लाइफ स्किल है. औरत क्यों बनाएगी खाना आपके लिए? कोई और क्यों बनाएगा? क्यों ही बनाएगा? कोई ज़बरदस्ती है? अपने लिए बनाइए और खा लीजिए.
तस्वीर: फेसबुक
मर्दों के इशू सीरियस हैं. जिस तरह औरतें स्ट्रगल कर रही हैं, कई मामलों में पुरुषों को भी करना पड़ता है. मर्दों का भी रेप होता है. मर्दों को भई परिवार का प्रेशर झेलना पड़ता है कमाऊ पूत बनने के लिए. मर्दों को भी डिप्रेशन होता है अपनी इमोशंस को छुपाए रखने की वजह से. लड़कों को भी हैरेसमेंट झेलना पड़ता है. लड़कों को भी एक्सपेक्टेशंस का भार उठाना पड़ता है.
ये सब ज़रूरी मुद्दे हैं. इन पर बात होनी चाहिए. इसके लिए रास्ते ढूंढे जाने चाहिए. इन पर खुलकर बातचीत करने के मौके दिए जाने चाहिए. इनका हल ढूंढा जाना चाहिए. लेकिन इन सब पर अचानक से चीख-पुकार तब ही क्यों मचती है जब औरतें अपने मुद्दों के बारे में बात करने की कोशिश कर रही होती हैं? बाकी समय इस पर सीरियस डिस्कशन करने की किसी को फिकर नहीं होती. लेकिन जैसे ही कोई ये बात करता है कि औरतों को सेफ्टी के ज्यादा ज़रिये मुहैय्या कराने चाहिए क्योंकि रेप केसेज बढ़ रहे हैं, वहीं आवाज़ आती है पर मर्दों के रेप का क्या? वो भी तो होता है. बिलकुल होता है, दुख की बात है कि हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां किसी को इस तरह वायलेट किया जा सकता है. गुस्से की बात है कि ऐसा होता जा रहा है और कोई कुछ नहीं कर रहा. लेकिन इस तरह से किसी मुद्दे को नीचा दिखाने या उसकी महत्ता घटाने के लिए जब इस तरह की बातें शुरू की जाती हैं, तब लगता है कि क्या आपको सच में इस मुद्दे की फिकर है भी या आप सिर्फ अपने फायदे और डिबेट के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं?
मोज़े दुपट्टे व्हाट्सएप तक बहस है आपकी? शर्म नहीं आती?
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