शाहरुख़, दिक्कत कहां आ रही है?

इसे आप 'ज़ीरो' का फिल्म रिव्यू कह लीजिए. बट वी नीड टू टॉक.

जोरी फिल्म का पोस्टर.

बीते एक महीने से एक ही गाना प्लेलिस्ट में है. 'जबतक जहां में मेरा नाम है, तबतक मेरे नाम तू'. कीबोर्ड झूठ न लिखवाए, इतना सेक्सिस्ट गाना है. फिर भी सुना. शास्त्रों में इसे ही सेक्शुअल टेंशन कहा गया है. एक ही चीज से प्यार और नफरत करने को. मगर इस तपस्या का क्या फल मिला. शाहरुख़ चला गया मार्स पे. मैंने मनाया था कि अब ये वापस न आए और ज़ीशान अयूब के दो-चार सीन और आ जाएं.

ज़ीरो फिल्म की बुराई आपने पढ़ ली होगी. मगर फिल्म कई चीजों से बनती है. और उसे सिर्फ उसके क्लाइमैक्स के लिए देखना अन्याय है. इसलिए मैं फिल्म को पूरी तरह बुरा नहीं कहूंगी.

पहले तारीफ

शाहरुख़ बहुत फ्रेश है. मतलब बहुत फ्रेश लग रहा है ('रहे हैं' कि जगह 'रहा है' लिख रही हूं क्योंकि उससे प्यार करती हूं). सुपर एनर्जी, सुपर डांस. बहुत बढ़िया एक्टिंग. शाहरुख़ को देखकर लगता है कि अगर ये स्मॉल टाउन रोल ऐसे ही निभाने लगा तो अपने आयुष्मान और राजकुमार राव का क्या होगा. साथ ही फनी.

साथ उसको मिला ज़ीशान अयूब का. ज़ीशान को स्टैंडिंग ओवेशन मिलनी चाहिए. क्योंकि शाहरुख़ के कद (फिल्म वाले नहीं, रियल वाले) का स्टार आपका प्रेजेंस खा सकता है. आपको अदृश्य कर सकता है. मगर ज़ीशान कई जगह सपोर्टिंग रोल से बहुत ज्यादा लगते हैं. फिल्म के ह्यूमर की जान लगते हैं. जब वो स्क्रीन पे नहीं होते तो उनकी याद आती है.

अनुष्का ब्रिलियंट हैं. एक्टिंग पे हम क्या ही कहें, हम कौन से एक्सपर्ट हैं. मगर उनका रोल काफी सही है. एक मजबूत, इंटेलिजेंट, समझदार लड़की का करैक्टर है उनका. जो रोमैंस और आंसुओं से बेवकूफ नहीं बनती. हालांकि स्क्रिप्ट में अगला बंदा शाहरुख़ है तो कभी न कभी तो लड़की को हां करना ही पड़ता है. वरना शाहरुख़ की मेल-सेंट्रिक स्क्रिप्ट कैसे पूरी होगी.

कटरीना, कटरीना हैं. तिग्मांशु, तिग्मांशु हैं.

शाहरुख़ की मां का रोल करने वाली शीबा चड्ढा उनसे असल जीवन में 8 साल छोटी हैं. नहीं, ये इस बात का सूचक नहीं है कि शाहरुख़ कितने यंग लगते हैं. बल्कि ये बताता है कि 40 की उम्र पार करती एक्ट्रेस को यंग रोल देने में बॉलीवुड की नानी कैसे मरती है. खैर.

1_122118030527.jpgअनुष्का ब्रिलियंट हैं. एक्टिंग पे हम क्या ही कहें, हम कौन से एक्सपर्ट हैं. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

शारीरिक/मानसिक अक्षमता

शाहरुख़ का करैक्टर बौना है. बउआ सिंह का बौना होना काफी हद तक उसकी साइकोलॉजी एक्सप्लेन करता है. ज़माने से लेकर खुद के बाप तक ने इतना लताड़ा है कि अब वो बेस्ट चाहता है. समाज ने अगर किसी पुरुष को सताया हो तो पुरुष को बदला लेने के लिए एक ही व्यक्ति मिलता है--एक औरत. औरत ही है, जो कमज़ोर पुरुष से भी ज्यादा कमज़ोर वर्ग है. एक भिखारी या नौकर जो दिनभर दुत्कारा जाता है, अपनी पत्नी के सामने शेर बन जाता है.

बउआ अपने जीवन की कमी एक लड़की से पूरी कर सकता है. क्योंकि औरत के साथ उसे ताकतवर महसूस होगा. मगर शादी डॉट कॉम से बात नहीं बनती. और अफ़सोस, उसने जिन्हें पाना चाहा, उनमें से एक उससे दिमाग में ज्यादा थी, एक दौलत में. और बउए को सबक मिल गया कि औरत से रिश्ता प्रेम का ही हो सकता है, कुंठा मिटाने या मेल ईगो संतुष्ट करने का नहीं.

'ज़ीरो' किसी शारीरिक 'अक्षमता' पर विजय पाकर जीवन में जीतने की कहानी नहीं है. कम से कम सीधे तौर पर तो नहीं. पर ये जरूर कहती है कि प्रेम, विरह और क्रोध महसूस करने का हक़ हर व्यक्ति को है. और इन संवेदनाओं की अदला-बदली पुरुष और स्त्री के बीच केवल एक बराबरी के रिश्ते में हो सकती है.

2_122118030634.jpg'ज़ीरो' किसी शारीरिक 'अक्षमता' पर विजय पाकर जीवन में जीतने की कहानी नहीं है. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

थोड़ी बुराई

फिल्म को दो बीमारियां हैं. पहली, आनंद एल राय सिंड्रोम. यानी फर्स्ट हाफ़ को ऐसा बनाओ कि लगे कि ये साल की सबसे अच्छी फिल्म है. सेकंड हाफ को गोबर कर दो. नो ऑफेंस, गौरक्षक्स.

दूसरी बीमारी, शाहरुख़ खान सिंड्रोम. पहले हाफ में शाहरुख़ इतना बढ़िया काम कर रहे थे. पर तबतक उनका स्टारडम एस्टेब्लिश नहीं हो पा रहा था. कोई महंगा सेट नहीं, कोई फॉरेन लोकेशन नहीं. कोई लार्जर दैन लाइफ मोमेंट नहीं. कोई अतिरिक्त ड्रामा नहीं. इसलिए फिल्म सही भी चल रही थी. क्योंकि ये सब न होना ही फिल्म को फ्रेश बना रहा था. सेकंड हाफ में शाहरुख़ के कीड़े ने काट लिया. और 200 करोड़ के 150 करोड़ तो सेकंड हाफ में ही लगा दिए.

थोड़ी और बुराई, फिर एक फैन की गुजारिश

शाहरुख़ अपने लगभग हर इंटरव्यू में कहते आए हैं कि उन्हें मेहनत से परहेज नहीं है. सिनेमा उनके लिए तपस्या है. वो फिल्मों का इस्तेमाल पैसे कमाने के लिए नहीं करते. बल्कि सारे पैसे स्टेज शो और विज्ञापन से कमाते हैं. कि उनके बनाए हुए सिनेमा का लक्ष्य ये होता है कि उनकी ऑडियंस उन्हें पसंद करे.

शाहरुख़ ने बेशक बहुत मेहनत की है. इन फैक्ट, 'फैन' फिल्म के बाद उनका हार्ड वर्क अब दिख रहा है. उन्होंने फैन फिल्म के पहले ये भी स्वीकारा था कि अब उनको लोकल ज़ुबान पकड़ने में बहुत दिक्कत होती है. मुंबई में इतने साल रह चुके हैं कि दिल्ली के 'गीता कलोनी' का एक्सेंट पकड़ने में उन्हें काफी वक़्त लगा. ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि मेरठ के लड़के और आनंद एल राय के लीड बनने के लिए उन्होंने मेहनत की होगी.

3_122118030729.jpgशाहरुख़ को शायद अपनी ऑडियंस को हमेशा फिल्म के बाद ख़ुशी-ख़ुशी घर भेजने का मोह छोड़ देना चाहिए. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

दुखी करने वाली बात ये है कि जिस ऑडियंस को शाहरुख़ अपना माई-बाप मानते हैं, उसी से कटे हुए हैं. साल की सबसे अच्छी फिल्मों में अंधाधुन, स्त्री और बधाई हो का नाम आ रहा है. ये छोटे बजट की, क्लोज टू कॉमन पीपल फ़िल्में हैं. शाहरुख़ के लंबे करियर में ऑडियंस बदल गई है. पूरी पीढ़ी बदल गई है. शायद अब हमें सामूहिक तौर पर 'ग्रैंड' भाना बंद हो गया है. नेटफ्लिक्स और टोरेंट के दौर में हम इंटरनेशनल सिनेमा के काफी करीब हैं. अब आप ऑडियंस को महज स्टारडम, फॉरेन लोकेशन या महंगे सेट्स का लॉलीपॉप देकर घर नहीं भेज सकते. शायद यही वजह है कि इस साल तीनों 'खान', रणवीर और रनबीर पर आयुष्मान और राजकुमार राव भारी पड़ रहे हैं.

शाहरुख़ को शायद अपनी ऑडियंस को हमेशा फिल्म के बाद ख़ुशी-ख़ुशी घर भेजने का मोह छोड़ देना चाहिए. ये 'अंत-में-सबकुछ-ठीक-हो-जाता-है' के फेर में स्क्रिप्ट को रायते की तरह फैलने नहीं देना चाहिए. ज़ीरो फिल्म शायद आधे घंटे छोटी होती तो साल की बेस्ट फिल्मों में से एक हो सकती थी. पर दुखद ये है कि हम केवल क्लाइमैक्स के साथ घर जाते हैं.

ये 90s का दौर नहीं है. हीरो, हीरो नहीं है. शाहरुख़ और चाय बनाने वाला लल्लन, सब एक ही ट्विटर पर हैं. इसलिए कुछ भी लार्जर दैन लाइफ बनाने से पहले उसका लॉजिक परखना आवश्यक है.

 

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