मदर्स डे: मिलिए दुनिया की सबसे लीचड़, घटिया, कपटी मांओं से

और जानिए कि वो ऐसी कैसे बन गईं.

दुनिया में शायद ही कोई इंसान ऐसा कहे कि उसकी मां अच्छी नहीं है. दुनिया में मां एक ऐसा शब्द है जिसको लेकर सर्वज्ञानी से लेकर अल्पज्ञानी तक एकमत हो जाते हैं. कि मां मतलब दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्द. मां जैसा कोई नहीं. कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति. पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कभी कुमाता नहीं हो सकती.

लेकिन वही मां जब अपने मां के चोले से परे कदम रखती है, तो विलेन बनते उसे देर नहीं लगती. वहां उसका मां होना गौण हो जाता है. उसका स्त्री होना टेकओवर कर लेता है. जब वो सिर्फ स्त्री रह जाती है, तो उसके चरित्र की खामी उसके भीतर की मां को भी बुरा बना देती है. जैसे एक वायरस पूरे कम्प्यूटर को करप्ट कर दे. हाउ ईजी.

मां: सखी-सहेली-सगी-सौतेली ?

मां के गुण गाने वाला बॉलीवुड, और कुछ हद तक पॉपुलर लिट्रेचर उसके लिए गढ़े गए स्टीरियोटाइप से निकल नहीं पाता. मां बच्चे की धरती है, मां बच्चे के लिए उसका पानी का कुआं है, मां छांव है, जैसी बातें अनगिन बार कही और लिखी गई हैं. नया कुछ नहीं है. लेकिन उसके मां होने के साथ साथ एक बाउंड्री खींच दी गई है. पिता रुपी आसमान के नीचे मौजूद मां. पेड़ है तो छांव है. उससे आगे बढ़ती है मां तो लक्ष्मणरेखा के पार पहुंच जाती है. वो स्वीकार्य नहीं है. वहां फिर मां विलेन बनती है.

जैसे, 

himani-750x500_051219072804.jpgसंजना से मां पूछती है टू इतने उसके साथ रही, घूमी-फिरी, कहीं कुछ? (यहां इम्प्लाइड ये है कि कहीं संजना ने प्यार में वर्जिनिटी तो नहीं खो दी?)

मैं प्रेम की दीवानी हूं फिल्म में मां का प्रेम के खिलाफ हो जाना (लिटरली और मेटाफॉरिकली) एक ऐसी नेगेटिव चीज़ है जो उसके पिता से बहुत आसानी से परे कर दी जाती है. मां को चिंता है, हाय लड़की किसी गरीब-बेखानदान से कैसे शादी कर लेगी. फिल्म में जब मां की इस चिंता पर फोकस किया जाता है कि वो किसी तरह प्रेम किशन (ऋतिक रोशन) को संजना (करीना कपूर) से दूर करना चाहती है, तब संजना के पापा (पंकज कपूर) को बहुत चिंतित दिखाया जाता है. ये दिखाया जाता है कि वो नरमदिल हैं. वो सिचुएशन हैंडल करेंगे. लेकिन मां को चिंता इसकी है कि कहीं उसकी बेटी अब वर्जिनिटी खो तो नहीं चुकी? वो पिता को चुप करा देती है. प्यार के खिलाफ खड़ी एक मां का तमगा ले लेती है. हिमानी शिवपुरी, जिन्होंने मां का किरदार निभाया है, इस फिल्म में वो कालजयी डायलॉग बोलती नज़र आती हैं,

‘तो फिर प्रॉब्लम क्या है?’

नीम करेले पर तब चढ़ जाता है जब मां सौतेली हो.

राजा हिन्दुस्तानी फिल्म में अर्चना पूरन सिंह के किरदार को ही ले लें. कहने को मां हैं. लेकिन दूसरी शादी कर के आई हैं. नज़र जायदाद पे है. तो जीना हराम कर देती हैं. आरती (करिश्मा कपूर) और राजा (आमिर खान) की जोड़ी को तोड़ने की हरसंभव कोशिश करती हैं. अंत में थप्पड़ खा कर सुधरती हैं.

archana-puran-750x500_051219073028.jpgये जायदाद शब्द फिल्मों ने इतना पॉपुलर कराया है, वरना एक अदद इन्सान के पास एक लैपटॉप-फोन-गाड़ी के अलावा होता ही क्या है.

सौतेली मां वाली बात असल जिंदगी में देखें तो बहुत ही डिफरेंट है. करीना कपूर खान से लेकर हेलेन तक रियल लाइफ में ‘सौतेली’ माएं हैं. इनके स्टेप किड्स यानी सौतेले बच्चों के साथ इनकी बॉन्डिंग की खबर अक्सर सामने आती रहती है. लेकिन मन में इतने गहरे ये बात पैठा दी गई है पॉपुलर कल्चर में कि मां अगर सौतेली है तो बुरी ही होगी, कि लोग उससे निकल नहीं पाए आज तक.

मेनस्ट्रीम सिनेमा की मानें तो सौतेली माएं वो औरतें होती हैं जिनको अक्सर पहली पत्नी के मर जाने पर पुरुष घर ले आता है, ताकि घर का खालीपन भरे. बच्चों को मां का प्यार मिल जाए. जाहिर है कि पुरुष अपने स्वार्थ के लिए दूसरी पत्नी कभी लाता हुआ नहीं दिखाया जाता. उसके लिए ये एक ज़िम्मेदारी होती है. उसकी जिंदगी में वो औरत एक ‘सेकण्ड चॉइस’ है. नॉट द टॉप प्रायोरिटी. वो कैसे ही उसकी पहली पत्नी की जगह ले सकती है. बॉलीवुड में विधवा मां बर्तन मांज कर अपने बच्चों को पाल सकती है, वो दूसरी शादी नहीं करेगी. लेकिन पुरुष तो पुरुष है. उसकी तो ज़िम्मेदारी है घर के लिए किसी को ले आना. तो वो ले आता है. वो कैसे अकेले काटेगा जिंदगी. तो सौतेली मां आ जाती है. बच्चों में पहली पत्नी की झलक देखती है. जल-भुन ख़ाक होती है. अपने बच्चों से लाड़ लड़ाती है. फिल्म बेटा में अरुणा ईरानी का किरदार एक फ़िल्मी सौतेली मां का क्लासिक उदाहरण था.

aruna-beta-750x500_051219073314.jpgमाधुरी दीक्षित का जीना हराम किया था इस फिल्म में उन्होंने, लेकिन बेटा अनिल कपूर इतना भक्ति में डूबा था कि कुछ देख ही नहीं पाया.

ये एक तरीका है दिखाने का, कि किस तरह एक स्त्री की ईर्ष्या, जलन उसके मां होने पर भी भारी पड़ जाती है. मां वो भी है. लेकिन यहां वो गौण हो जाता है, क्योंकि स्त्रीद्वेष यहां प्रायोरिटी पर आ जाता है. उसके आगे सब तुच्छ है. ध्यातव्य है कि इसमें भी अक्सर पति/पिता को परिवार में शान्ति बनाए रखने की कोशिश करता हुआ दिखाया जाता है. क्योंकि पुरुष है तो रैशनल होगा. दिल से नहीं दिमाग से काम लेगा. खैर.

सबसे छोटे बेटे के हिस्से में मां आई, लेकिन बहू आते ही मोगैम्बो कैसे बन गई?

बेटा एक. मां के संसार का केंद्र. ऑफ़ कोर्स. बेटे के लिए मां सब कुछ. मां के लिए बेटा. उनका दुलरुआ. जब तक रिश्ता यहां तक सीमित है, तब तक दुनिया का सबसे आइडियल रिश्ता है. कवितायें लिखा जाने वाला रिश्ता. लेकिन इसमें आप बहू ले आइए. बहू के आते ही दुनिया का सबसे समझदार, सबसे लायक लड़का भी ऐसा सींग वाला बैल बन जाएगा कि आप एक्सप्लेन नहीं कर पाएंगे कि ये क्या हो गया. मां की अथॉरिटी चैलेन्ज हो जाएगी. या तो ये होगा, या फिर बहू इतनी बड़ी चंट होगी कि देखने वाले चाहेंगे स्क्रीन के भीतर घुसकर उसे चांटा मार दें. जैसे कहानी घर-घर की सीरियल में पल्लवी का किरदार.

pallavi-750x500_051219073644.jpgसीधी सादी बहू पार्वती, उसके सामने चंट चतुर पल्लवी. क्लासिक 'औरत ही औरत की दुश्मन होती है' वाला नैरेटिव.

एक कॉमन ट्रोप है. सासें अच्छी बहुत कम दिखाई जाती हैं. हालांकि ये सिनेमा /सीरियल बनाने वालों पे डिपेंड करता है कि वो बहू को विलेन बनाएं, या सास को. घर तोड़ने वाले हमेशा औरतें ही होती हैं, ये मेंटालिटी दूर करना इतना आसान थोड़ी है. जलनखोर किसी को भी दिखाएं, इनमें बेसिक बात यही होती है कि औरतें स्वभाव से ईर्ष्यालु होती हैं. अपने नजदीकी पुरुष पर अपना एकाधिकार चाहती हैं. सास है तो अपने बेटे के हाथ से निकलने पर चिढ़ेगी. बहू है, तो अपनी सास को तख़्त पर से हटाकर खुद वहां बैठने की जुगत भिड़ाएगी. नाज़िया नईम डॉक्टर हैं. लिखती रहती हैं सोशल मीडिया पर. बहू के मामले में जो मिसोजिनी यानी स्त्रीद्वेष उभर कर आता है, उस पर उन्होंने लिखा है, 

हमेशा ही होता है, बहू को ही बस खलनायिका के रूप में पेश किया जाता है, वही स्टीरियोटाइप. उसी के तिरस्कार, जली कटी के कारण वृद्ध पिताओं को तक़लीफ़ है या वृद्धाश्रमों में रहना पड़ रहा है.

इन सभी कपूत बेटों के पात्रों के रचयिताओं से मैं पूछना चाहूंगी. जब पेट-जाई औलाद सगी न हुई, जो जन्म से अब तक साथ रह रही है. पैरासाइट या अमरबेल की तरह मां-बाप का श्रम और कमाई चूसकर. हम तो स्टूडेंट हैं जी कहकर 20-25 साल तक निठल्ली रही, अपने पैरों पर पढाई के दौरान खड़े होने की बारीक सी भी कोशिश न करी. और जो इतनी मंदबुद्धि, कमज़ोर नज़र की मानसिक दिव्यांग है कि उसे कल की बाहर से आई पत्नी द्वारा चली गयी चालें नज़र न आ रही हैं, न प्रताड़ना, चाबी भरे गुड्डे की तरह सिर्फ पत्नी के मायके पर ही दावतें लुटा रहे हैं, बाप खटिया पर खांस रहा है, तो जुतियाए जाने का असली हक़दार कौन हुआ?

अगर सौतेली मां है, तो अपने पति की पूर्व पत्नी की निशानी से नफरत करेगी. मां है, तो अपने स्त्री होने की ‘स्वभावगत कमजोरियों’ की वजह से कहीं-न-कहीं कम पड़ जाएगी. आदर्शों के ऊंचे पेडस्टल से नीचे फिसल ही जाएगी. वहां देवी होने का सवाल पैदा नहीं होता. बाहुबली 2 में शिवगामी पुत्र प्रेम में इतनी अंधी हो जाती हैं, कि अपने पुत्र भल्लालदेव का षड्यंत्र तक नहीं देख पातीं. पूरे साम्राज्य को अकेले अपने कन्धों पर चला लेने वाली स्त्री जिसने अपने दम पर दो-दो राजकुमारों को पाल-पोस कर बड़ा किया, वो भूल जाती है कि न्याय क्या है, अर्थ क्या है, शासन क्या है. उसका अभिमान तब आहत होता है जब देवसेना पलट कर जवाब देती है.

shivagami-750x500_051219073401.jpgवचन से किया जाने वाला शासन भरभरा जाता है शिवगामी का, जब वो अपनी बहू देवसेना से टकरा जाती हैं

और अंत में शिवगामी को देवसेना के चरणों में झुकना पड़ता है. इसलिए नहीं क्योंकि वो गलत थी. गलतियां तो उसके पहले भी कम नहीं हुईं. बल्कि इसलिए कि माहिष्मती का भविष्य, अमरेन्द्र बाहुबली की बलि चढ़ा दी गई है. देवसेना का महत्त्व इस बात से नहीं कि वो कुंतल देश की राजकुमारी है.बल्कि इसलिए दिखाया गया है क्योंकि वो अमरेन्द्र बाहुबली की पत्नी है. अमरेन्द्र के ‘बेटे’ की मां है.

पॉपुलर कल्चर और सिनेमा में मां तब तक अच्छी है, जब तक वो अपनी सीमा में रहती है. सवाल नहीं करती, साधन बने रहना स्वीकार कर लेती है. जो घटिया मांएं हैं, वो कहीं-न-कहीं इस सीमा का अतिक्रमण करने वाली होती हैं. चाहे वो सास रूप में हों, या सौतेली मां के रूप में, या चाहे सगी मां ही क्यों न हों. दूसरी शादी करने वाली मांएं नहीं दिखाई जातीं, जाती भी हैं तो उनका प्रतिशत बहुत कम होता है. उनमें भी अधिकतर के लिए ये मॉडर्न फैक्टर एक नेगेटिव चीज़ ही एड करता है. उनको प्रोग्रेसिव नहीं दिखाता. एक अच्छी मां वो होती है जो सब सह कर भी खुद को सिफ़र कर देती है, लेकिन आह तक नहीं भरती. पिटती है, दस बातें सुनती है, लेकिन अपने बच्चों के लिए घर नहीं छोड़ती, अपना पति नहीं छोड़ती. खुद भूखी रहती है, लेकिन बच्चों को खिला देती है. इसी तरह के पचहत्तर और दूसरे स्टीरियोटाइप जिसमें त्याग की मूरत बनाकर औरत से उसका व्यक्ति होना छीन लिया जाता है. और उसकी सिर्फ एक पहचान बना कर रख दी जाती है- मां, पत्नी, बहन, बस.

nirupa-750x500_051219073453.jpgएक टिपिकल मां का ट्रोप बॉलीवुड ने ऐसा ही बनाकर रखा. अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी ,आंचल में है दूध आंखों में पानी.

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती  

मुनव्वर राना का ये शेर पढ़कर पहले बहुत अच्छा लगता था. फिर कोफ़्त होने लगी. दुनिया भर की मांओं को खफा होने, अपने लिए खड़े होने, और उन रिश्तों से बाहर निकलने की आज़ादी होनी चाहिए जो उन्हें जीते-जी एक इंसान के तौर पर मार देती हैं. मांओं का मां के खोल से निकलना उनके घटिया होने की नहीं, उनके उद्भव का सुबूत है.

  

 

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