एब्स्ट्रेक्ट्स की कहानी है 'लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट'
जात-पात पर सवाल उठाती एक कहानी.
'गरीब का कौनो जात नहीं होता'
सही बात है. जिसके पास खाने को नहीं हो, उसे जात-बिरादरी से कोई फर्क नहीं पड़ता. यह डायलॉग है फिल्म 'लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट' का. अपने पिता से पूछने पर कि बाबा हम कौन जात हैं, पिता बच्चे को कहता है कि बेटा गरीब की कोई जात नहीं होती. लेकिन सच्चाई तो यह है कि आप चाहे जात को छोड़ भी दें. पर जात आपको नहीं छोड़ती. यही इस फिल्म का सेंट्रल आइडिया है.
जाति व्यवस्था जो आज भी हमारे समाज का हिस्सा है. इस हिस्से से आम जनता तो संक्रमित है ही, पढ़े-लिखे, तथाकथित बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग भी इस संक्रमण से अछूते नहीं हैं. इसलिए इस फिल्म को गांवों के साथ शहरों में दिखाने की आवश्यकता है. यह कहना था दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का, जो 'लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट' की स्क्रीनिंग में शिरकत करने पहुंचे थे.
फिल्म की कहानी एक दलित व्यक्ति की है, जिसे हम उन लोगों का प्रतिनिधि मान सकते हैं जो समाज के रूढ़िवादी रिवाज़ों को ठोकर मार कर अपने लिए नई राह चुनते हैं. लेकिन यह राह कैसी होगी ये किसी से छिपा नहीं. भेड़चाल की तरह किसी लीग को मानना बहुत आसान है लेकिन ब्लैक शीप बनकर अपना रास्ता खोजना उतना ही मुश्किल.
एक सम्पूर्ण कहानी होने के बावजूद यह फिल्म एब्सट्रेक्ट्स का समूह लगती है. माने कुछ भी फिक्स नहीं दिखता. जैसे कई सीन मिला दिए हों. यह इस फिल्म की ताकत भी है और कमज़ोरी भी. मॉडर्न आर्ट में जिस तरह एब्स्ट्रेक्ट्स को महत्व दिया गया है, उस लिहाज़ से यह फिल्म मॉडर्न आर्ट का खूबसूरत नमूना है. लेकिन यही खूबसूरती कई दफा आपको इस फिल्म की कमी भी लगने लगती है. आपके लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि फिल्म क्या कहना चाहती है. लगने लगता है कि फिल्म कई दृश्यों को साथ में बस दिखा रही है उनका आपस में संबंध कुछ खास है नहीं.
लेकिन निर्देशक पवन के. श्रीवास्तव इसे फिल्म का साइक्लिक स्ट्रक्चर कहते हैं. जैसे हम जीवन में कभी अतीत के बारे में सोचते हैं तो एक क्रम में नहीं सोचते, कभी कुछ तो कभी कुछ और सोचते हैं. सिनेमा साइक्लिक स्ट्रक्चर में ही ज़्यादा वास्तविक लगता है. इससे हम अपने जीवन को अधिक जुड़ा हुआ देख पाते हैं.
दृश्यों का ज़िक्र करना फिल्म के साथ न्याय नहीं होगा. लेकिन एक दृश्य जो स्तब्ध कर देता है उसका ज़िक्र ज़रूरी है – भारत के गांवों में आज भी कई जगह यह रीत है कि शादी के दिन बहू को पहली रात गांव के ज़मींदार के साथ गुज़ारनी होती है. ज़मींदार का आदमी कहता है- ‘नथ भी तो साहब ही उतारेंगे.’ मतलब साफ है कि लड़की वर्जिन होनी चाहिए, वो पहली बार सेक्स करेगी तो गांव के ज़मींदार के साथ. ‘गांव की हर औरत पर पहला हक ज़मींदार का है.’ इस पर नवविवाहित लड़का कहता है कि ‘मेरी बहू कहीं नहीं जाएगी, मैंने प्यार किया है इससे.’ ‘तो प्यार जात देख कर करना चाहिए था.’
लड़की साथ जाने से मना कर देती है. और यह हर रूढ़िवादी सोच वाले व्यक्ति के मुंह पर तमाचा है. परंपराएं हम जैसे लोगों ने ही बनाई हैं. हम जब चाहें उन्हें बदल सकते हैं. लेकिन हमारे मन का डर अक्सर जीत जाता है और हम सारी ज़िन्दगी बाकी लोगों की तरह गुलाम बन कर रहते हैं.
यह फिल्म गांव के परिदृश्य में बनी है लेकिन इसका नाम अंग्रेज़ी में है. फिल्म का नाम 'लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट' ही क्यों रखा गया? इस सवाल के जवाब में निर्देशक साहब कहते हैं – इस फिल्म की संवेदना को आउटकास्ट शब्द ही सबसे बेहतर तरीके से दर्शा रहा है. इसका हिन्दी अनुवाद अजाति इसकी मार्मिकता को नहीं बता पाता. इसलिए इसका नाम लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट रखा. साथ ही ये कमर्शियल फिल्म नहीं है. अक्सर ऐसी फिल्में फिल्म फेस्टिवल में ही चलती हैं और वहां अंग्रेज़ी नाम देना ज़्यादा बेहतर है. वैसे इस फिल्म के लिए हिन्दी नाम भी रखा है. जब अलग-अलग जगहों पर इसे रिलीज़ किया जाएगा तो हिन्दी नाम के साथ रिलीज़ करेंगे.
यह फिल्म हर उस व्यक्ति के लिए है, जो समाज की रूढ़िवादी सोच को मानने से इनकार कर देता है. अपने लिए नई दुनिया बनाने की चाह रखता है और कोशिश भी करता है. लेकिन क्या वह ऐसी दुनिया बना पाता है जहां भेदभाव के लिए जगह न हो. पवन कहते हैं कि जाति व्यवस्था इस समाज को पूरी तरह जकड़े हुए है. अगर कोई भी इससे अलग होने की कोशिश करता है तो उसे नकार दिया जाता है. कोई भी समाज के प्रतिकूल जाने का प्रयास करता है तो उसे पूरी ज़िन्दगी संघर्ष ही करते रहना पड़ता है. ये संघर्ष किसी उच्च वर्ग वाले व्यक्ति के लिए अलग होगा और दलित के लिए अलग. उच्च वर्ग के व्यक्ति की बात एक बार को लोग मान भी लेंगे लेकिन जिस के साथ खाना नहीं खा सकते, उसकी बात सुनना तो दूर की बात है.
फिल्म बदलाव की बात करती है साथ ही बदलाव की सार्थकता कितनी है, इस पर भी हमें सोचने पर मजबूर करती है. फिल्म के एक दृश्य में पुलिस का सिपाही कहता है कि ये समाज सीढ़ी की तरह है. इस सीढ़ी के सबसे नीचे वाली पायदान पर तुम हो और सबसे ऊपर की पायदान पर मिश्रा. तुम कितनी भी कोशिश कर लो वहां कभी नहीं पहुंच पाओगे. वह कहता है कि तुम मास्टर तो बन गए, अब क्या सिर पर चढ़ोगे. मास्टर बन गए हो, एड्जस्ट करो और अपनी ज़िन्दगी जियो.
सर्वहारा स्टूडियो द्वारा निर्मित फिल्म 'लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट' क्राउड फंडिंग से बनी है. लगभग 120 लोगों ने इस फिल्म को बनाने में सहयोग दिया है. साथ ही नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गनाइज़ेशन ने भी इस फिल्म को सहयोग दिया है. संसाधनों की कमी के चलते फिल्म में तकनीकी खामियां ज़ाहिर तौर पर हैं.
पवन के. श्रीवास्तव ने लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट फिल्म का निर्देशन किया है. फिल्म में केवल एक गीत है जिसे पवन जी ने लिखा है, जिसे मिस कल्पना पटोवरी ने गाया है. कल्पना बेगमजान और मुक्काबाज़ जैसी मशहूर फिल्मों में गा चुकी हैं. इस फिल्म की स्क्रीनिंग 29 मई की शाम फिल्म डिविशन ऑडिटोरियम, नई दिल्ली में की गई. फिल्म में अधिकतर नए कलाकार हैं. पिता की भूमिका को रवि शॉ ने बखूबी निभाया है. वे इससे पहले पानसिंह तोमर और फिल्मीस्तान जैसी बॉलीवुड फिल्मों में एक्टिंग कर चुके हैं.
यह फिल्म सीधे तौर पर कुछ नहीं कहती. अपने संवादों और दृश्यों के माध्यम से अपनी बात हम तक पहुंचाती है. फिल्म में कहा गया एक संवाद पूरी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर देता है–
‘बच्चे स्कूल में तार्किक होने के लिए आते हैं. मंदिर और स्कूल में कुछ तो फर्क होना ही चाहिए.’
फिल्म की ये बेबाकी सराहनीय है. पवन जी बताते हैं कि यह फिल्म 10 विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवादित होगी. साथ ही इसे 500 से ज़्यादा गांवों में भी दिखाया जाएगा.
हर कहानी की शुरुआत, मध्य और अंत होता है. लेकिन इस फिल्म का अंत नहीं है, यह हमें सवाल पर छोड़ देती है. अब हमें तय करना है कि हम क्या चाहते हैं इस फिल्म से. निर्देशक फिल्म के अंत में कहते हैं कि यह फिल्म सवाल पर खत्म होती है क्योंकि आप कितना भी बेहतर अंत कर दीजिए उस व्यक्ति की पूरी ज़िन्दगी के संघर्ष को आप फिल्म में नहीं दिखा पाएंगे. ये संघर्ष पूरी ज़िन्दगी का है. इसे छोटी सी कहानी में दिखाना बहुत मुश्किल है.
इस कहानी के दो रूप हैं एक ऐसे इन्सान का जो शोकमय है, पूरी ज़िन्दगी लड़ता है लेकिन कुछ खास बदल नहीं पाता. वहीं दूसरी तरफ ऐसा शख्स है जो जागरूक है, सवाल करता है. उसकी मां कहती है कि तुम दिल्ली, मुम्बई चले जाओ पर वो कहता है आपने भी तो गांव छोड़ा था, क्या हुआ? इन दोनों को अपने नज़रिए से देखिए और तय कीजिए आप क्या लेकर जाते हैं इस फिल्म से.
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