क्या रियलिटी टीवी शो बच्चों का जीवन बर्बाद कर रहे हैं?
क्या कहते हैं इन शोज़ से निकले वो बच्चे जो अब बड़े हो गए हैं?
टीवी पे रियलिटी शोज़ हम सब ने देखी हैं. ‘सा रे ग म प’, ‘वॉइस आफ़ इंडिया’, ’डांस इंडिया डांस’ जैसे नामों से शायद ही कोई अनजान होगा. इन सारे शोज़ की प्रक्रिया लगभग एक सी है. देशभर से म्यूज़िक, डांस वग़ैर में माहिर लोगों को बुलाया जाता है. उनका ऑडिशन होता है. सिलेक्शन के बाद दुनियाभर के लोगों के सामने वे अपनी कला दिखाते हैं. फिर पब्लिक वोटिंग के ज़रिए एलिमिनेशन होने के बाद जो बचता है, वह होता है शो का विजेता. ऐसा कोई शो आपने ध्यान से फ़ॉलो किया होगा तो आपको एहसास हुआ होगा कि इन शोज़ का फ़ोकस टैलेंट पे कम, दर्शकों के मनोरंजन पे ज़्यादा होता है. नाच गाने से ज़्यादा इनमें रोना-धोना होता है. दिल दहलाने वाली बैकस्टोरीज़ सुनाई जातीं हैं. झगड़े होते हैं. ड्रामा होता है. वही सारी चीज़ें जो एक आम सास-बहू वाले सीरीयल में भी होतीं हैं.
यह समझा जा सकता है. आख़िर टीवी शो है. व्यूअरशिप बढ़ानी है. टीआरपी इकट्ठे करने हैं. निर्माताओं ने मुफ़्त में टैलेंट का प्रदर्शन करने का वादा न कभी किया था, न करेंगे. मुसीबत तब होती है जब इन रियलिटी शोज़ में बच्चों को शामिल किया जाता है. उनसे कैमरे के सामने बेहतरीन पर्फ़ॉर्मन्स की उम्मीद की जाती है. उनसे ऐसी बातें और ऐक्शन कराए जाते हैं जो उनकी एज के लिए सही नहीं हैं. इस लेवल के कॉम्पटिशन और उससे जुड़ी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए क्या बच्चे मानसिक तौर पर प्रस्तुत हैं?
2008 का वाक़या है. बंगाल के एक डांस रियलिटी शो में शिंजिनी नाम की एक लड़की ने हिस्सा लिया था. 16 साल की शिंजिनी जजेज़ से ख़राब परफॉरमेंस के एक हॉस्पिटल में कई महीने उसका इलाज चला जिसके बाद ही उसका मानसिक संतुलन वापस आया. रियलिटी टीवी और शो बिज़नेस पर भारी आलोचना हुई थी. तत्कालीन नारी और शिशु कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी ने बयान दिया था कि बच्चों को ऐसे शोज़ में नहीं भेजना चाहिए क्योंकि यह उनके बौद्धिक विकास पर भारी पड़ सकता है.
इसके बावजूद आज भी सैकड़ों बच्चे रियलिटी शोज़ में ‘स्टार’ बनने के लिए भेजे जाते हैं. टैलेंट नर्चर करने के नाम जहां उन्हें अडल्ट गानों पे नचाया जाता है और उनसे फूहड़ चुटकुले बुलवाए जाते हैं.
फ़िल्म इंडस्ट्री की कई हस्तियों ने बच्चों के रियलिटी शोज़ पर आपत्ति जताई है. ‘विकी डोनर’ और ‘पीकू’ के डिरेक्टर शूजित सरकार ने पिछले साल ट्वीट किया था कि सरकार को बच्चों के रियलिटी शोज़ पर पाबंदी लगानी चाहिए क्योंकि इनसे बच्चों की मासूमियत और इमोशन्स पर बहुत असर पड़ता है. उनका कहना है, ‘ग़लती पेरेंट्स की है जो नहीं समझते उनके बच्चों के लिए क्या सही है और उन्हें ऐसे शोज़ में भेजते हैं. इन शोज़ पे बच्चों पर कड़ी निगरानी रहती है, उन्हें बॉडी-शेम किया जाता है, उनका मज़ाक़ उड़ाया जाता है. बच्चे भी इन तथाकथित जजेज़ को ख़ुश करने के चक्कर में अपना बचपन खो बैठते हैं और ऐंज़ाइयटी-ग्रस्त हो जाते हैं.’
‘तारे ज़मीन पर’ के लेखक अमोल गुप्ते भी कहते हैं, ‘रियलिटी शोज़ की दुनिया बहुत क्रूर और निर्दयी है. छोटे छोटे बच्चों से घंटों तक शूट कराया जाता है. उन्हें एक नॉर्मल बचपन से वंचित किया जाता है. मैंने ख़ुद देखा है कैसे एक छोटे लड़के से इतनी देर तक रिहर्स कराया गया कि वो अपनी आवाज़ ही खो बैठा.’
मनोवैज्ञानिक अरुणा ब्रूटा, जो कई चाइल्ड ऐक्टर्ज़ की काउन्सलिंग कर चुकीं हैं, कहतीं हैं, ‘जिस उम्र में बच्चों को सिर्फ़ पढ़ाई और खेलकूद पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें इतने टफ़ कॉम्पटिशन में डालना ठीक नहीं. इससे उनके मानसिक विकास में दिक़्क़त आ सकती है. जब कोई बच्चा शो से एलिमिनेट हो जाता है, उसके कॉन्फ़िडेन्स और आत्मविश्वास को गहरी चोट पहुंचती है. वह कैमरे पे अपने माँ-बाप के निराश चेहरे देखता है और ख़ुद को एक डिसपॉयेंटमेंट समझने लगता है. इन बच्चों को कई बार डिप्रेशन भी हो जाता है और वे ख़ुद को चोट पहुंचाने लगते हैं.’
ऑडनारी ने ज़ी टीवी के रियलिटी शो ‘सा रे ग म प लिटल चैम्प्स’ के पुराने फ़ायनलिस्ट समीर मुहम्मद से बात की. 2006 में इस शो में हिस्सा लेने के वक़्त समीर 11 साल के थे. आजकल वे संगीतकार हिमेश रेशमिया के साथ काम कर रहे हैं और ‘जीनियस’ और ‘लाल रंग’ जैसी फ़िल्मों में प्लेबैक सिंगिंग कर चुके हैं. उनका कहना है, ‘बच्चों को रियलिटी शोज़ में हरगिज़ हिस्सा नहीं लेना चाहिए. यह उम्र सिर्फ़ सीखने के लिए है और इस समय इतने बड़े कॉम्पटिशन में नहीं उतरना चाहिए. तारीफ़ कुछ बच्चों के सर चढ़ जाती है और उन्हें लगने लगता है कि एक शो में भाग लेने से वह बहुत बड़े स्टार बन गए. फिर उन्हें क्रिटिसायज़ किया जाता है तो वे हैंडल नहीं कर पाते. इन शोज़ में बहुत पॉलिटिक्स भी होती है जिसकी तरफ़ बच्चों को एक्सपोज़ करना ठीक नहीं. बच्चों को मासूमियत में रहने दो और उन्हें अपना टैलेंट स्कूल और पढ़ाई में दिखाने दो.’
‘लिटल चैम्प्स’ में समीर का ख़ुद का अनुभव बहुत अच्छा रहा है मगर वह कहते हैं कि ऐसा सबके लिए नहीं है. ‘मैं म्यूज़िकल बैक्ग्राउंड से आता हूं और बचपन से कॉम्पटिशन्स में हिस्सा लेता आया हूं तो यह मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. मेरे ऊपर फ़ैमिली का प्रेशर भी नहीं था और मैं जब चाहे वापस जा सकता था. मगर उन बच्चों का क्या जिनके लिए यह शोज़ उनकी ज़िंदगी है और जिन पर इतने लोगों की उम्मीदें हैं? उनके बारे में तो ऐसा नहीं कहा जा सकता.’
समीर की एक आठ साल की भांजी है जो अच्छा गाती है. उनकी बहन चाहतीं हैं कि वह भी रियलिटी शो में जाए मगर समीर पूरी तरह से इसके ख़िलाफ़ हैं.
‘लिटल चैम्प्स’ (2006) की विजेता संचिता भट्टाचार्य का कहना है, ‘कई रियलिटी शोज़ में बच्चों से ऐसी हरकतें करवाई जातीं हैं जो उनकी एज के मुताबिक़ अप्रोप्रीएट नहीं हैं, और मैं इसका बिलकुल समर्थन नहीं करती. मगर इसके लिए सिर्फ़ रियलिटी टीवी को दोष देना ठीक नहीं. ऐसा लोगों के घरों में भी होता है और जहां कहीं भी होता है, बहुत ग़लत बात है.’ शो जीतने के बाद से संचिता ने ‘मिथ्या’, ‘काँची’, ‘यमला पगला दीवाना 2’ जैसी फ़िल्मों को अपनी आवाज़ दी और आशा भोंसले के साथ एक ऐल्बम भी निकाल चुकी है. वे अपने सक्सेस का श्रेय ‘लिटल चैम्प्स’ को ही देतीं हैं.
संचिता की को-कंटेस्टेंट पावनी पांडेय, जो ‘सा रे ग म प’ के आनेवाले सीज़न की ज्यूरी में हैं, कहतीं हैं, ‘रियलिटी शोज़ में जो कुछ भी होता है, बच्चों के पेरेंट्स की रज़ामंदी से होता है. किसी के ऊपर कोई ज़बरदस्ती नहीं है. अगर उन्हें ऐतराज़ हो तो वे ऐसा कह सकते हैं. बच्चे अडल्ट गानों पर डांस भी करते हैं तो सिर्फ़ बीट की वजह से. लिरिक्स की वजह से नहीं’. पावनी कहतीं हैं कि ‘लिटल चैम्प्स’ का माहौल बहुत अच्छा था. वहां उनके कई दोस्त बने जिनके साथ वे आज भी टच में हैं. शो के जजेज़, संगीतकार अभिजीत भट्टाचार्य और गायिका अलका याज्ञिक से भी उनका ख़ास रिश्ता है.
2007 वाले सीज़न के फ़ायनलिस्ट तन्मय चतुर्वेदी कहते हैं कि इन शोज़ में कॉम्पटिशन कभी कभी बहुत टफ़ हो जाता है. वे कहते हैं, ‘मुझे याद है एक कंटेस्टेंट ने मेरे गले में पार्टी स्नो स्प्रे कर दिया था. सात दिन मेरा गला बंद था.’ वे फिर भी कहते हैं कि ऐसा कॉम्पटिशन हर जगह ही है और सिर्फ़ रियलिटी शोज़ को दोष देना ठीक नहीं. ऑडनारी से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘अगर मैंने उस वक़्त शो में हिस्सा न लिया होता तो आज आप मुझसे बात नहीं कर रहीं होतीं.’
यह सच है कि रियलिटी शोज़ ने कई बच्चों को अपने टैलेंट को तराशने का मौक़ा दिया है. लेकिन क्या इतनी नाज़ुक उम्र में इतना ज़्यादा एक्स्पोज़र सही है? क्या स्टारडम के चक्कर में बच्चे अपना बचपन नहीं खो रहे?
यह स्टोरी ऑडनारी के साथ इंटर्न्शिप करती ईशा ने लिखी है
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