केरल में औरतें 'बैठने' के हक़ के लिए 'खड़ी' हो गईं

सुंदर कपड़ों के पीछे एक बहुत ही बदसूरत सच्चाई है, जो इस औरतों ने बदल दी हैं.

सरवत फ़ातिमा सरवत फ़ातिमा
जुलाई 16, 2018
बैठ पाने के लिए भी लड़ना पड़ता है इस दुनिया में. (सांकेतिक तस्वीर) फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

केरल का एक शहर है कोज़ीकोड. वहां एक साड़ी की एक दुकान है. उसमें अनीता नाम की एक औरत काम करती है. एक दिन साड़ी ख़रीदने कुछ लोग उस दुकान में आए. अनीता ने उनको कुछ साड़ियां दिखाईं. कस्टमर आपस में सलाह-मशवरा करने लगे. उनकी बातें अगले 10 मिनट तक चलीं. अनीता थक गई थी. सुस्ताने के लिए उसने पीछे दीवार का टेक ले लिया. वो घंटों से नहीं बैठी थी. न टॉयलेट गई थी. तभी उस दुकान का मैनेजर वहां भागता हुआ आया. उसे फटकारा. बोला, “सुस्ताओ मत. काम करो.” महीने के आखरी में उसकी पगार 100 रूपये कट के आई.

ये अनीता के साथ इसलिए हुआ क्योंकि टेक्सटाइल इंडस्ट्री में काम कर रही औरतों को काम के वक़्त बैठने की इजाज़त नहीं थी. ये रूल कई सालों तक चला. कुछ लोगों ने एक कैंपेन शुरू किया. उनकी मांग थी कि काम के दौरान औरतों को बैठने की इजाज़त होनी चाहिए. इसे ‘राइट तो सिट’ कहा गया.

ख़ुशी की बात ये है कि ये फ़ालतू का रूल भी जल्दी औपचारिक तौर से बदल दिया जाएगा. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर ख़ुशी की बात ये है कि ये फ़ालतू का रूल भी जल्दी औपचारिक तौर से बदल दिया जाएगा. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

हाल-फिलहाल में इन औरतों ने ‘राइट तो सिट’ हासिल कर लिया है. इसे मलयालम में ‘इरिपू सामाराम’ भी कहते हैं. पर ये इतना आसान नहीं था. इसके लिए उनको लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. पर सिर्फ़ न बैठ पाना ही इन औरतों की अकेली मुसीबत नहीं थी. ढंग के टॉयलेट्स की भी बहुत कमी थी. औरतों दिन भर खड़े रहने के साथ-साथ अपना पेशाब भी रोके रहतीं. जिसकी वजह से उनको किडनी इन्फेक्शन हो जाता. ये इसलिए होता था क्योंकि दुकान के अंदर औरतों के लिए शौचालय नहीं थे. मजबूरी में उनको किसी बिल्डिंग के टॉयलेट इस्तेमाल करने पड़ते. उसे आदमी भी इस्तेमाल करते थे. नतीजा ये होता कि औरतों बीमार पड़ जातीं.

ढंग के टॉयलेट्स की भी बहुत कमी थी. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर ढंग के टॉयलेट्स की भी बहुत कमी थी. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

एक वीमेंस कलेक्टिव है 'पेनकूटू' नाम का. उसमें काम कर रही पीवीजी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में बताया:

“हमने सरकार का ध्यान इस तरफ़ मोड़ा. ऐसा पहली बार 2010 में किया था. ज़्यादातर कमर्शियल बिल्डिंगों में औरतों के लिए टॉयलेट नहीं हैं. कोई हिस्सा खाली रह गया तो उसे शौच बना दिया. कुछ समय पहले औरतें हमारे पास आईं. उन्होंने बताया कि न वो बैठ सकती हैं. न ही उनके लिए टॉयलेट हैं. जब हमने ‘केरल मरचेंट्स यूनियन’ से बात कि तो वो बोले ‘जिसे बैठना है या टॉयलेट इस्तेमाल करना है वो घर बैठे.’ तब हमने इस मुहिम की शुरुआत की.”

पहले तो राज्य सरकार ने इस कलेक्टिव की बात नहीं सुनी. क्योंकि वो रजिस्टर्ड नहीं थे. तब इन लोगों ने फीमेल कर्मचारियों के साथ मिलकर एक यूनियन बनाई. और औरतों के हक के लिए आवाज़ उठाई.

‘राईट तो सिट’ के लिए लड़ती औरतें. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर ‘राईट तो सिट’ के लिए लड़ती औरतें. फ़ोटो कर्टसी: ट्विटर

वीमेंस कलेक्टिव पेनकूटू ने पूरे राज्य में ये मुद्दा उठाया. शोर मचाया. तब जाकर सरकार को उनकी आवाज़ सुनाई दी. बाद में कुछ नेता उनकी मदद के लिए उतरे. अब सरकारी निर्देशों के तेहत लेबर लॉज़ में बदलाव लाया जा रहा है.

ख़ुशी की बात ये है कि ये फ़ालतू का रूल भी जल्दी औपचारिक तौर से बदल दिया जाएगा. और टॉयलेट भी बनेगें. अब औरतों को कम से कम इतनी सुविधा तो मिलनी चाहिए. है कि नहीं?

 

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