खुद पर हमेशा शक करती हैं? तो आपको ये दिक्कत हो सकती है

दो तिहाई औरतें इस सिंड्रोम से जूझ रही हैं.

ईशा चौधरी ईशा चौधरी
दिसंबर 20, 2018
सांकेतिक तस्वीर. क्रेडिट: Pixabay

दिव्या 20 साल की है. कॉलेज में पढ़ती है. बहुत होनहार स्टूडेंट है और अपनी क्लास की टॉपर है. बोर्ड्स में भी उसने टॉप किया था और अखबार में उसका फ़ोटो भी छपा था. पढ़ाई में अच्छी होने के साथ-साथ वो बहुत टैलेंटेड भी है. कॉलेज की डिबेट सोसायटी का हिस्सा है और कई अवॉर्ड जीत चुकी है. एक बेहतरीन फोटोग्राफ़र भी है और एक कंपिटीशन में सेकंड भी आ चुकी है.

मगर दिव्या अपने आप से खुश नहीं है. उसे लगता है वो एकदम नालायक है और उसे कुछ नहीं आता. वो समझती है कि जो लोग उसकी तारीफ़ करते हैं, वो सब ग़लत हैं. वो ये नहीं जानते कि असल में वो किसी लायक नहीं है और तारीफ़ डिज़र्व नहीं करती. जब उसे अपने टैलेंट्स और अचीवमेंट्स के बारे में याद दिलाया जाता है, वो बोलती है, ‘इसमें क्या है? ये सब तो कुछ भी नहीं है. कोई भी कर सकता है.’

दिव्या को लगता है कि वो किसी लायक नहीं है. सांकेतिक तस्वीर. क्रेडिट: Pixabayदिव्या को लगता है कि वो किसी लायक नहीं है. सांकेतिक तस्वीर. क्रेडिट: Pixabay

दिव्या को इम्पोस्टर सिंड्रोम (Impostor Syndrome) है. ये एक ऐसी कंडिशन है जिसमें लोग बहुत होनहार, टैलेंटेड और कामयाब होने के बावजूद ख़ुद को नालायक और निकम्मा समझते हैं. वो अपने काम में बहुत सक्सेसफुल हैं. मगर फिर भी उन्हें लगता है कि उन्होंने कुछ नहीं हासिल किया. उन्हें लगता है जो लोग उन्हें काबिल समझते हैं, वो बिल्कुल ग़लत हैं. क्योंकि उनमें कोई ख़ास बात है ही नहीं.

‘इम्पोस्टर’ का मतलब होता है ‘ढोंगी’. इन लोगों को लगता है कि वो स्मार्ट, बुद्धिमान, टैलेंटेड और सक्सेसफुल होने का ढोंग ही कर रहे हैं. क्योंकि असल में तो वो निहायत बेवकूफ़ हैं. वो अपने टैलेंट्स को भी टैलेंट नहीं समझते. कहते हैं, ‘अरे यार ये तो कोई भी कर लेगा.’ या ‘टैलेंट-वैलेंट कुछ नहीं, मेरी किस्मत अच्छी है बस’.

इंपोस्टर सिंड्रोम से ग्रसित लोग ख़ुद को ढोंगी समझते हैं. सांकेतिक तस्वीर. क्रेडिट: Shutterstockइम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रसित लोग ख़ुद को ढोंगी समझते हैं. सांकेतिक तस्वीर. क्रेडिट: Shutterstock

युनाइटेड किंगडम में 3000 लोगों पर एक स्टडी हुई थी. इससे पता चला कि इम्पोस्टर सिंड्रोम मर्दों से कहीं ज़्यादा औरतों को होता है. दो-तिहाई औरतों ने बताया कि पिछले एक साल में उन्होंने इम्पोस्टर सिंड्रोम के लक्षण अनुभव किए हैं. इसके मुक़ाबले बहुत कम मर्दों ने, खासकर श्वेत मर्दों ने बताया कि उनके साथ ऐसा होता है.

‘इंस्टिट्यूट ऑफ लीडरशिप एंड मैनेजमेंट’ ने कंपनियों के मैनेजरों को स्टडी किया था. उनका कॉन्फ़िडेंस लेवेल परखने के लिए. 50% महिला मैनेजर्स ने बताया कि उन्हें इंसिक्योरिटी होती है, और कॉन्फिडेंस की कमी महसूस होती है. सिर्फ़ 33% मर्दों ने ख़ुद में कॉन्फिडेंस की कमी बताई.

अमेरिका की एक करियर एजेंसी ने 18-34 साल की उम्र के प्रोफेशनल्स पर रिसर्च किया. पता चला 40% महिलाओं को अपने सीनियर्स के सामने घबराहट होती है. ऐसा सिर्फ़ 22% मर्दों के साथ होता है.

मनोवैज्ञानिक डॉ. वैलरी यंग बताती हैं ये ऑफ़िस में सेक्सिज़्म की वजह से हो सकता है. ‘औरतों को पता होता है कि उन्हें मर्दों से ज़्यादा और अलग तरीके से जज किया जा रहा है’ वो कहती हैं. उनका ये भी कहना है कि औरतें ज़्यादतर अपने काम का क्रेडिट नहीं लेतीं, जो एक और वजह हो सकती है.

‘रिसर्च बताता है कि लड़कियां अपनी सारी गलतियां अपने ऊपर ले लेती हैं. जबकि लड़के मानते हैं कि उनकी गलती बाहरी कारणों की वजह से हुई है.’  जैसे अगर एक लड़की एग्ज़ाम में फ़ेल हो जाए, तो वो ख़ुद को दोष देती है. ठीक से पढ़ाई न करने के लिए. मगर कोई लड़का अगर फ़ेल हो, तो वो कहेगा कि पेपर मुश्किल था.

डॉ. वैलेरी यंग. क्रेडिट: यूट्यूब स्क्रीनशॉटडॉ. वैलेरी यंग. क्रेडिट: यूट्यूब स्क्रीनशॉट

ऐसा भी कहा गया है कि ज़्यादतर लड़कियां अपनी कामयाबी का क्रेडिट किस्मत या भगवान को देती हैं.

प्रोफ़ेशनल माहौल में औरतों को सीरियसली लिए जाने के लिए उन्हें मर्दों से दुगना काम करना पड़ता है. जो उन पर मानसिक दबाव डालता है और उनकी इंसिक्योरिटी की एक और वजह है.

इम्पोस्टर सिंड्रोम पांच तरह के होते हैं, जैसे:

पर्फेक्शन सिंड्रोम: ये वो लोग होते हैं जिन्हें अपना काम बिल्कुल पर्फेक्ट चाहिए होता है. पर्फेक्ट मतलब पर्फेक्ट. छोटी सी गलती भी निकले तो उन्हें डूब मरने का मन करता है. उनसे जो उम्मीद की जाती है, वो उससे कई गुना ज़्यादा करने की कोशिश करते हैं. अपने ऊपर हद से ज़्यादा प्रेशर डालते हैं. ऐसे-ऐसे टार्गेट्स तय करते हैं जिन्हें पूरा करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. और ख़ुद से ज़रा सी चूक हुई, तो अपने आप को कोसना नहीं छोड़ते. अगर वो कामयाब भी होते हैं, तो खुशी मनाने के बजाय ये सोचते हैं कि इससे बेहतर कर सकते थे. ये शारीरिक और मानसिक सेहत दोनों के लिए ठीक नहीं. ऐसे इन्सान को बहुत जल्द ‘बर्नाउट’ (यानी स्ट्रेस की वजह से अतिरिक्त थकान) हो सकता है.

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 सुपरवुमन/मैन सिंड्रोम: इन्हें लगता है कि क्योंकि वो दूसरों से कम अक्लमंद या टैलेंटेड हैं, उन्हें इसकी भरपाई ज़्यादा काम करके करनी चाहिए. इसलिए वो देर रात तक ऑफ़िस में रहते हैं. हॉबीज़, दोस्त या फ़ैमिली के लिए कोई वक्त नहीं निकालते. छुट्टी के दिन भी कमरतोड़ मेहनत करते हैं. इसकी वजह से न सिर्फ़ उनकी सेहत को खतरा रहता है, बल्कि वो अपने करीबी लोगों को समय भी नहीं दे पाते.

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जीनियस सिंड्रोम: इन्हें इस बात का अफ़सोस रहता है कि ये ‘जीनियस’ नहीं हैं. ये हमेशा कुछ नया करने या सीखने की कोशिश में रहते हैं. ये बहुत अच्छी बात है. मगर मुश्किल तब होती है जब वो अपने आप से हद से ज़्यादा एक्सपेक्टेशन रखते हैं. और वो पूरा न होने पर उनके आत्मसम्मान को गहरी चोट पहुंचती है.

जैसे आपने सोचा आप आधे घंटे में एक कविता याद कर लेंगी. मगर आधे घंटे की जगह आपको एक घंटा लगा. इससे आपको लगने लगा कि आप कितनी बेवकूफ़ हैं. आपको कुछ ठीक से करना नहीं आता. और आप डिप्रेशन में चली जाती हैं.

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सोलोइस्ट सिंड्रोम: वैलेरी यंग उन लोगों को ‘सोलोइस्ट’ कहती हैं जो अपना सब काम अकेले करना पसंद करते हैं. ‘सोलो’ मतलब ‘अकेला’. ये वो लोग होते हैं जिन्हें किसी से मदद मांगने में शर्म आती है. उन्हें लगता है कि मदद मांगना कमज़ोरी या नालायक होने का लक्षण है. इसलिए काम चाहे कितना भी मुश्किल हो, वो कहते हैं, ‘मुझे किसी की ज़रूरत नहीं. मैं ये ख़ुद कर सकती हूं. मुझे मदद नहीं चाहिए’. ऐसे काम भी पूरा नहीं हो पाता, और उनका स्ट्रेस लेवल भी बढ़ता है.

 

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एक्सपर्ट सिंड्रोम: ऐसे लोगों को लगता है कि इन्होंने जितना पढ़ा है या लाइफ़ में जितना कुछ हासिल किया है, वो ‘कम’ है. वो हर चीज़ में एक्सपर्ट होना चाहते हैं. इन्हें डर रहता है कि अगर उन्हें अपना ज्ञान और एक्स्पीरियंस नहीं बढ़ाया, तो सबको पता चल जाएगा कि वो कितने नालायक हैं. इसलिए वो नौकरियों के लिए अप्लाई करने से शर्माते हैं. क्योंकि उन्हें लगता है वो कम क्वालीफाईड हैं. या कई साल नौकरी करने के बाद भी उन्हें लगता है कि उन्हें जो कुछ भी आता है, वो काफ़ी नहीं है. अपना ज्ञान और तजुर्बा बढ़ाना अच्छी बात है. मगर इसके आधार पर लोग अपने आप को जज करने लगें, तो ये कतई हेल्दी नहीं है.

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 इम्पोस्टर सिंड्रोम को कैसे भगाएं

- अपना नज़रिया बदलें. अपने आपको समझाइए कि कोई भी इन्सान पर्फेक्ट नहीं होता. ग़लतियां सब करते हैं. और ग़लती करने का ये मतलब नहीं कि आप बेवकूफ़ या निकम्मे हैं. यही मतलब है कि आप अभी सीख रहे हैं, जिसके लिए वक्त लगता है.

 

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- अपनी खूबियों को पहचानें. आप के अंदर बहुत अच्छाइयां हैं. उन्हें पहचानने की कोशिश करें. और उनको बेहतर करने पर ध्यान दें. कामयाब होने पर अपने आपको बधाई भी दें.

 

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- कॉम्प्लिमेंट्स की लिस्ट बनाएं. एक कांच की शीशी लें. और जब भी कोई आपकी तारीफ़ करे, उसे कागज़ के पर्चे में लिखकर उस शीशी में डाल दें. धीरे-धीरे वो शीशी भरती जाएगी. और आपको देखकर अच्छा लगेगा कि आपको कितने लोग पसंद करते हैं. अगली बार जब आपको कॉन्फिडेंस की कमी महसूस होगी, आप एक पर्चा निकालकर उस पर लिखी अपनी तारीफ़ पढ़ सकते हैं.

 

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- दूसरों से ख़ुद की तुलना करना बंद कर दें. आपको किसी की तरह बनने की ज़रूरत नहीं है. आप जैसे हैं, वैसे ही अच्छे हैं. ख़ुद के इंप्रूवमेंट पर ध्यान दें. किसी से बेवजह कंपिटीशन न लगाएं.

 

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- किसी से बात करें. किसी ख़ास दोस्त को बताएं कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं. अपनी इनसिक्योरिटी उनके साथ शेयर करें. अपनी फ़ीलिंग्स बताने से बोझ काफ़ी हद तक हल्का होता है.

 

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