एक मिडिल क्लास, जॉइंट फैमिली की लड़की का दर्द जो कोई नहीं समझ सकता
'आप अपने फैसले खुद लेती हैं? अच्छा, मम्मी-पापा लेते होंगे. पर मेरी हालत और बुरी है.'
नोट: ये लेख हमारी एक 25 साल की रीडर ने लिख भेजा है. उनकी इच्छा है कि उनकी पहचान न बताई जाए.
ये सिर्फ एक किस्सा नहीं है, ऐसे कई मौके आए जब मेरी जिंदगी से जुड़ा फैसला सिर्फ मेरे या मेरे पैरेंट्स की बजाए पूरे परिवार ने लिया.
मेरी लाइफ में कम चुल नहीं रही है. कुछ न कुछ होता ही रहा है, हालांकि वो सभी की लाइफ में होता है. मैं बताती हूं कि क्या कहना चाहती हूं. दरअसल सबकी लाइफ के डिसीजन उनके मम्मी-पापा या वो खुद लेते हैं. पर मेरी लाइफ किसी कोर्ट रूम से कम नहीं रही है. सेशनल कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रोल मेरी लाइफ में काफी रहा है. बिना दिमाग लगाए आप ये जान लें कि मैंने यहां सेशनल कोर्ट मम्मी-पापा, हाईकोर्ट बड़े पापा-बड़ी मम्मी और चाचा, सुप्रीम कोर्ट बाबा-अम्मा को कहा है.
पर मेरी लाइफ में इन कोर्ट के मायने उल्टे ही रहे हैं. जो मामला पहले निचली अदालत में जाता है और उसके बाद अपर कोर्ट में. वो मेरी लाइफ में पहले अपर कोर्ट में फिर किसी और कोर्ट में जाते हैं.
मैं इन लोगों को कोर्ट का नाम देकर इसलिए डिनोट कर रही हूं क्योंकि मुझे अपने लाइफ की हर छोटी से छोटी चीजों के लिए इतने लोगों से परमिशन लेनी पड़ती है और अगर ठप्पा लग जाए उस बात पर तो ही करने की इजाजत मिलती है.
बात 2012 की है. जब मैंने अपनी 12वीं का एग्जाम पास कर लिया था. उसके बाद मुझे सभी की तरह ग्रैजुएशन करना था. मैंने मास कम्यूनिकेशन में एडमिशन लेने का तय किया था. एक-दो कॉलेज यूनिवर्सिटीज के फार्म भी भर दिए थे, एन्ट्रेंस एग्जाम भी दे दिए. रिजल्ट भी आ गया. घर वालों के कहने पर एक-दो फार्म मेडिकल फील्ड में भी अप्लाई कर दिए थे. उसके भी टेस्ट दिए और उसका भी रिजल्ट आ गया. मास कम्यूनिकेशन का एक टेस्ट क्वालिफाई भी कर लिया. बीडीएस और बीफार्मा में भी टेस्ट क्लियर हो गया. पर अब एडमिशन लेने वाली बात फंसी.
परमिशन जो लेनी थी. मन मास कम्यूनिकेशन करने का था. उसी को लेकर बात भी की घर वालों से. सब जगह के फॉर्म निकल चुके थे, तो दूसरी जगह अप्लाई करने जैसा कोई चांस ही नहीं बाकी था. खैर, आगे हुआ ये कि अगस्त महीना आ गया. एडमिशन लेना था. देर हो रही थी. सभी कोर्ट में एप्लिकेशन दी. पहले सेशनल कोर्ट गई. मम्मी-पापा को बोला कि ये वाला ही कोर्स करना है. उन्होंने बिना हां-ना बोले, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भेज दिया.
उसके बाद हाईकोर्ट यानी बड़े चाचा, बड़े पापा-मम्मी के पास गई. उनसे पूछा. तो उन्होंने सिरे से एप्लिकेशन खारिज कर दी. मतलब मना कर दिया. क्योंकि मुझे अपना शहर छोड़ कर एक तो दूसरे शहर जाना था. और दूसरा वो कॉलेज प्राइवेट था. तो पैसा ज्यादा लगता. और तीसरा ये कि इस कोर्स से कुछ नहीं होगा.
हाई कोर्ट में काफी दिनों तक मामला लंबित पड़ा रहा. कई बार सुनवाई हुई, मैंने मनाने की कोशिश की. पर कोई फायदा नहीं हुआ. उनकी तरफ से एक दिन फैसला आया. वो मेरे फेवर में नहीं था, क्योंकि उन्होंने कहा कि एक साल ड्रॉप करो और लग कर तैयारी करो.
पर मन नहीं माना, क्योंकि एक साल खराब करना सही नहीं लगा. एक बार फिर मैंने बड़े पापा से रिक्वेस्ट की, कि वो मुझे ये कोर्स करने की परमिशन देदें. चाचा से भी बोला, पर वो दोनों राजी नहीं हुए. दोनों ने अपना अंतरिम फैसला सुना दिया था. उसके बाद मैंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. मैं बाबा के पास गई. उनसे बोला कि मुझे ये कोर्स करना है. कर लूं?
बाबा ने कहा कि उन्हें जानकारी नहीं है ज्यादा इस कोर्स के बारे में. फिर कहा, वैसे भी तुम ये कोर्स क्यों करोगी. बीए-बीएससी करो यहां की यूनिवर्सिटी से और टीचर बनो. आज कल तो टीचर की नौकरी कितनी अच्छी होती है.
वहां से भी कोई सटीक फैसला नहीं हुआ. मेरे हक में बात नहीं बनी.
समय तेजी से निकला जा रहा था. कॉलेज से कई बार कॉल आई. पर मेरे पास खुद जवाब नहीं था. पर कुछ दिनों के इस कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने के बाद एक फैसला आया. शायद मैं लकी थी जो मुझे सुप्रीम कोर्ट यानी बाबा से इजाजत मिल गई. उसके बाद मम्मी-पापा ने भी हां बोल दी.
लेकिन कई ऐसी लड़कियां होती हैं जो सिर्फ इसलिए अपने सपने पूरे नहीं कर पातीं क्योंकि उनके रिश्तेदार इसके लिए राजी नहीं होते. कई बार तो ऐसा होता है कि पेरेंट्स साथ देते हैं लेकिन खानदान हाथ खींच लेते हैं और सपना चूल्हे में चला जाता है.
मुझे उम्मीद है कि इस लेख को पढ़ने वाले मां-बाप होंगे. चाचा-चाची होंगे. बाबा-अम्मा होंगे. ऐसे लोग होंगे जिनके घर की बच्चियां बड़ी होकर करियर बनाने की उम्र में कदम रख रही होंगी. बेटों की बात फ़िलहाल इसलिए नहीं कर रही हूं क्योंकि उनको शहर से दूर भेजने में मां-बाप हिचकते नहीं हैं. उनसे ये नहीं कहते, कि टीचर की नौकरी कितनी अच्छी होती है.
अपने डर, अपनी असुरक्षाएं अपनी बेटी पर मत थोपिए. आप अपनी बेटियों का भला चाहते हैं, बेशक. पर उसकी जिम्मेदारी चाचा, ताऊ और बाबा पर मत डालिए. वो आपकी बेटी है. उससे बात करेंगे तो उसके लिए बेहतर होगा. आपके लिए भी.
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